Monday, December 22, 2008

हाय रे मनमोहन ये तूने क्या किया

यूं पी ऐ सरकार के गठन के बाद मनमोहन सरकार महंगाई के आंच से झुलस रही थी। इसके बाद मंदी का दीमक लग गया। अभी सरकार को दीमक खा रहा था कि बीच में आतंकी छर्रे भी खाने पड़े। इन ढेर साडी समस्याओं से पीड़ित होकर सरकार ने सोचा कि अब सत्ता का भोग दोबारा मिलाना मुश्किल है। लेकिन जैसे ही विधान सभा चुनाव में नतीजे अच्छे निकले। तो मनमोहन सरकार को आस जगी और आनन् फानन में लम्बी लम्बी घोशनाएँ करना शुरू कर दिया जैसे मंदी से निपटने के लिए बैंकों को रहत पॅकेज होम लोन में ब्याज डरघटाकर बहार लाना। नौकरी के दौरान निकले गए कर्मचारियों को ६ महीने का वेतन दिलाना।
सरकार ने घोषणाओं का अम्बर लगा दिया। लेकिन मेरे हिसाब से घाव कहीं और है और मरहम कहीं और लगाया जा रहा है। जैसे आवासीय पॅकेज में सरकार ने २० लाख लोन तक में ब्याज दर घटी हैं। लेकिन मुंबई ठाणे जैसे शहरों में तो २० लाख से ऊपर का माकन मिलाता नहीं है। बिल्डर बंधू दाम घटने के मूड में नहीं हैं। मकान बीके या नहीं। उल्टे ग्राहकों को लुभाने के लिए स्कीम और चला दी है वो भी दाम बढाकर । तब तो होम लोन का तो फायदा मिलाने से रहा। अब दूसरी बात मंदी से निपटने के लिए कर्मचारिओं की छंटनी पर ६ महीने का वेतन दिया जाए। उसमे भी शर्त रख दी गयी के कंम्पनी में पाँच साल तक काम कर चुका हो। अब मैं यहांं पर ये बताना चाहता हूँ कि पाँच साल का मतलब बाजपेयी की सरकर में नौकरी लगी और मनमोहन की सरकार में मरहम मिला रहा है जबकि असलियत ये है के जितना मनमोहन सरकार में प्राइवेट सेक्टर में उफान आया है उतना बाजपेयी सरकार में नहीं आया था॥ और लोग मनमोहन सरकार में ही ज्यादातर कम्पनियों में जों हुए हैं।
यानी कि आप्कावे ज़माने में जो भरती हुए हैं वो तो बेचारे नीबू नमक ही चटाकर रह जायेंगे। और जो बाजपेयी सरकार में शामिल हुए उनकी तो बहार है।
अब में यही कह रहा हूँ कि हे मनमोहन सरकार ये आपने क्या किया । थोड़ा बहुत तो आप अपने काम काज को परख लें । आप क्या कर रहे है और इधर काया हो रहः है।

Thursday, December 11, 2008

लोकल ट्रेन में इंसानी फाटक

मुंबई की लोकल ट्रेन में अब इंसानी फाटक लगे हुए हैं। ये फाटक न तो सरकार ने लगवाया है और न ही लोकल को सबसे ज्यादा रकम देने वाले वर्ल्ड बैंक ने लगवाया है। बल्कि उसमे रोजाना भेड़ बकरी की तरह यात्रा करने वाले यात्री ही अड़ जाते हैं।
यूँ तो मुंबई में मैं पिछले कई सालों से पटखनी खाए पड़ा हुआ हूँ। और लोकल ट्रेन का मेरे साथ चोली दमन का रिश्ता है। इसलिए जब से मैंने मुसाफिरी करना शुरू किया है। तब से देख रहा हूँ कि लोकल ट्रेन में फाटक नहीं लगे हैं , जो भी यात्री होते हैं वो विण्डो शीत तलाशते हैं या फ़िर गेट में डटकर खड़े हो जाते हैं। ये लोग ४ से ५-६ यात्री होते है। और फ़िर फाटक की तरह काम करते है। फाटक में दो पल्ले होते हैं। जैसे ही स्टेशन आता है तो एक पल्ला खुल जाता है , जबकि दूसरा बंद रहता है। खुलने वाला पल्ला या तो स्टेशन में धंस जाता है, या फ़िर कुछ पल्ले ट्रेन में छिपकली की तरह चिपक जाते है। और तब बांकी लोग चढ़नाशुरू कर देते हैं। फ़िर जैसे ही ट्रेन चलती है तो फ़िर से दोनों पल्ले बंद हो जाते हैं। ट्रेन स्पीड पकड़ती है तो पल्ले नीचे ऊपर हिलने लगते हैं जब कि पल्ले के अन्दर के यात्रियों की हड्डियाँ राग भैरवी गाने लगाती है। कोई चिल्लाता है उफ , कोई कहता हाँथ हटा ,कोई कहता है हाथ ऊपर कर। इतना करते करते स्टेशन आ जाता है। और फ़िर पल्ले खुल जाते हैं और यात्री भरभरा कर स्टेशन पर कूद पड़ते हैं।
इस तरह से मैंने देखा कि भारतीय लोकल रेल में कैसे हड्डी मांस के फाटक लगे हुए हैं , जिस्म के इस फाटक में अन्दर भी जिस्म ही कैद है।

Friday, December 5, 2008

हमें अपनी चिंता है

आज देश का आम नागरिक अपनी कमाई से एक चौकीदार भी रखने में हिचकता है। लेकिन हमारे लोकतंत्र के पुजारी एन एस जी को अपनी हिफज्ज़त में लगाने के लिए बिल्कुल भी नहीं हिचकते हैं। २६ नवम्बर को मुंबई में समुद्री रस्ते से आतंकी ज़हर घुल गया।फ़िर कितने बेगुनाहों का खून बह गया। कितने निहत्थे जजन गवां कर चले गए। इसके बाद एन एस जी ने कमान सभाली और और आतंकियों के चंगुल से मुंबई को मुक्त करा दिया। लेकिन इसके बाद जो नेताओं को एन एस जी का चस्का लगा है की अब अपनी हिफाजत के एन एस जी लेकर चलेगें। पहले भी एक जेड प्लस सुरक्षा पाए नेता को २० से २५ जवान लगते थे। जरूरत पड़ी तो ५० से १०० तक बढ़ा लिया।यानी की हमें अपनी पड़ी है। जिसके टैक्स का पैसा लेकर आराम फरमा रहे है, उन्हें एन एस जी देने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें तो बस हमेश सड़क पर खून बहाना होगा।
सन १९८५ में एन एस जी का गाथा किया गया था। आतंकवाद से निपटने के लिए,बंधकों को छुडाने के लिए, सरहद पर लड़ने के लिए। लेकिन बुध्जीवी नेताओं ने एन एस जी से क्या कम लेना शुरू किया आप भी देख लीजिये । ८७ के बाद से ही इसमे राजनीतिक जमा चढाने लगा था। और फ़िर चुनाव के समय सभाओं की रखवाली करना,लडाई झगडे में मोर्चा संभालना ऐसे तमाम धंधे पर लगा दिया। और केवल सरकार की हिफाज़त कराने में सुरक्छा के प्रति सालाना १८ करोड़ रूपये खर्च हो जाते है। ये खर्च केवल देश के ३० नेताओं पर होता है। यानी की नेता जी को सलाम कराने में ही करोड़ों बह जाते हैं। और जनता का खून सड़क पर बहता है।
अब बात समझ में आ गयी होगी की एन एस जी कैसे हो गयी है नेता security gaurd । क्या नेताओं को आज सुरक्षा की ज़रूरत है। एक तरफ़ तो महोदय कहतें हैं की नेताओं का काम नहीं है लड़ना , यानी की देश की हिफाज़त के लिए सेना का जवान ही मरेगा। नेता नहीं जायेंगे.अब ऐसे में यक्ष सवाल मेरा ये है की क्या इन्हे सत्ता में बने रहने का अधिकार है।