Tuesday, November 30, 2010

हमारे समाज का महारोग एड्स

एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएंसी सिंड्रोम अथवा एड्स पूरी दुनिया में तेजी से पाँव पसार रहा हैं। एचआईवी पाजटिव होने का मतलब आम तौर पर ज़िन्दगी का अंत मान लिया जाता हैं लेकिन यह अधूरा सच हैं और डाक्टरों के मुताबिक एच आई वी पॉजीटिव लोग भी सामान्य आदमी की तरह लम्बे समय तक जीवन जी सकते हैं। न्यूयॉर्क में एड्स की पहचान १९८१ में समलिंगी वयस्क पुरुषों में प्रतिरक्षण क्षमता में कमी एवं उच्च मृत्यु दर के लक्षणों के साथ की गयी। और इसका नाम एड्स रखा गया।
ए- मतलब एक्वायर्ड यानी यह रोग किसी दूसरे व्यक्ति से लगता है।
आई डी-- मतलब इम्यूनो डिफीशिएंसी यानी यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को खत्म कर देता हैं।
एस -मतलब सिंड्रोम यानी कई तरह के लक्षणों से पहचानी जाती हैं।
वास्तव में एड्स वर्तमान समाज में मानव सभ्यता की समझ सबसे बड़ी चुनौती बनकर खडा है। इस बीमारी का लाइलाज होना ही इससे भयाक्रांत होने का सबसे प्रमुख कारण हैं। पूरी दुनिया में अब तक तकरीबन ढाई करोड़ लोग एड्स के गाल में समा चुके हैं और करोड़ों लोग अभी इसके प्रभाव में हैं। एड्स रोगियों में अफ्रीका पहले नंबर में हैं जबकि भारत दूसरे नंबर में हैं। भारत में पहला एड्स मरीज मद्रास में पाया गया था। अमेरिका में ये रोग समलैंगिकता के कारण तेजी से फैला जबकि भारत में असुरक्षित यौन सम्बन्धों के कारण दिनों दिन अपने पैर जमा रहा हैं।
जुलाई २००५ में ब्राजील की राजधानी रियो-डी - जेनेरिया में १२५ देशों के लगभग ५०० विशेषज्ञों ने मिलकर एक सेमिनार का आयोजन किया था। और उसमें २६० शोध पत्र पेश किये गए थे। बीमारी से लड़ने हेतु तमाम सुझाव भी दिए गए थे। शोध के मुताबिक पूरी दुनिया में १४००० लोग हर दिन एड्स की चपेट में आते हैं। ९५ फ़ीसदी लोग मध्यम और कम आय वाले देशों के होते हैं । २००५ में ६.५ मिलियन एड्स से पीड़ित लोगों को उपचार की ज़रुरत थी लेकिन एक मिलियन का ही उपचार हो सका ।
भारत में एड्स के हालत -
यूनिसेफ,यूएन एड्स और विश्व स्वस्थ्य संगठन के ताजे सर्वेक्षण
माता से बच्चों में एचआईवी संक्रमण की रोक -
--- एचआईवी पॉजीटिव गर्भाधारित महिलाओं की संख्या - ६४,०००
-- एचआईवी पॉजीटिव के साथ उत्पन्न बच्चों की संख्या और प्रतिशत - १२,00 {२%}
-- १५ - २४ साल के लोगों में एचआईवी पुरुषों में - ०.३% और महिला ०.३%
-- १५-२४ साल के लोगों में जो पिछले एक वर्ष में एक से अधिक जीवन साथी के साथ लैंगिक सम्बन्ध बनाये उनका प्रतिशत पुरुष - १.६%, महिला ०.१%
-- एचआईवी से ग्रसित अनाथ बच्चों की संख्या २५,०००,०००

इस सच्चाई को जानने के बाद यही कहा जा सकता हैं की एड्स एक बड़ी बीमारी हैं - बेहद खतरनाक भी, लेकिन कोई समाज जितना बीमारियों से नहीं मरता उतना अपने रवैये से नष्ट होता हैं। एड्स का हम मुकाबला कर सकते हैं लेकिन उस डर, उस नासमझ का सामना कैसे करें जो अमानवीय ढंग से हमें अपने ही समाज के कुछ असहाय लोगों से काट डालती हैं । उन्हें अछूत बना डालती हैं। भारत सिर्फ एड्स का नहीं बल्कि कई बीमारियों का घर है। उन्नीसवीं सदी की बीमारियाँ इस इक्कीसवी सदी में पलट कर हमला कर रही हैं। हम प्लेग और पोलियो से भी लड़ रहे हैं। कैंसर एड्स की ही तरह रहस्यमय और जानलेवा बीमारी बना हुआ हैं। डायबिटीज को खामोश महामारी कहा जाता हैं। लेकिन और भी कई खामोश महामारियां से इस समाज को बीमार बनाने में लगी हैं। हमने एक चमकता हुआ भारत बनाया लेकिन इस भारत में कई हाँफते,कराहते,खांसते भारत भी शामिल हैं। वो बेदखल भारत शामिल हैं जो अपने घर परिवार से सैकड़ों मील दूर ज़िन्दगी और रोजगार की जद्दोजहद में रोज खुद को गला रहे हैं। छोटे-छोटे शहरों से देश के महानगरों तक ज़िन्दगी की तलाश में पहुंचे ये लोग अपने जिस्म में मौत के कीड़े लेकर लौटते हैं। और उनके घर वाले जान तक नहीं पाते कि आखिर उन्हें बीमारी है क्या ? ये वो एड्स हैं जो शरीर को नहीं बल्कि समाज को खा रहा हैं। फिर कहना होगा कि एड्स का इलाज सिर्फ एंटी रेट्रो वायरल थेरपी से नहीं हो सकता। इसके लिए पूरे समाज की धमानिया साफ़ करनी होगी उसका रक्त बदलना होगा। ये काम आसान नहीं है इसके बिना हम एड्स और कैंसर के इलाज खोज भी लें तो भी अपने समाज को नहीं बचा पायेंगे। क्यों कि हम इस लिए नहीं मर रहे हैं कि दवाएं नहीं हैं बल्कि इस लिए मर रहे हैं कि उनके पास दवाओं तक पहुंचने का साधन नहीं हैं ।

Wednesday, November 10, 2010

जय हिन्द बराक ओबामा

आखिर ऊँट पहाड़ के नीचे आ ही गया। यानी दुनिया का तानाशाह औकात पर आ गया। कल तक जो भारत की तरफ आँखें तरेरता था अब उसकी आँखों में पानी भर आया हैं। और आँखों में पानी भरने कि वजह भी साफ़ हैं । जब राजा के यहाँ बेरोजगारी मुह फैलाकर खड़ी होने लगी तो भारत कि तरफ आस जागी। और इसी आस के साथ इस व्यापारी ने भारत से कारोबार करके अब अमेरिकी बाज़ार को गुलजार करेगा। " जय हिन्द, बहुत धन्यवाद,नमस्ते" जैसे शब्दों का इस्तेमाल करके और लच्छीदार भाषण पिलाकर भारत से जो उसे चाहिए था वो ले लिया। और भारत भी उसके इस भाषण से लट्टू हो गया। और भारत को जिस तरह कि उम्मीद थी वो मिल गयी। ओबामा ने आज भारत को विश्व पटल में एक नया आयाम दिया हैं। और इसकी बानगी यही हैं कि भारत को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थाई सदस्यता के लिए ओबामा ने वकालत भी कर दी। यानी सुरक्षा परिषदमें भारत कि दावेदारी पर मोहर लगा दी हैं। सुरक्षा परिषद के क्या दाँव पेंच हैं इसे समझने के लिए सबसे पहले सुरक्षा परिषद के बारे में जाना जरूरी होगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रमुख अंग
सयुंक्त राष्ट्र संघ के संविधान में इसके छह प्रमुख अंगों का वर्णन किया गया हैं ।
१ - महासभा
२ - सुरक्षा परिषद
३- आर्थिक व सामाजिक परिषद
४- न्याशी परिषद
५- अंतरर्राष्ट्रीय न्यायलय
६- सचिवालय

सुरक्षा परिषद
सुरक्षा परिषद विश्व शांति एवं सुरक्षा से सम्बन्धित संयुक्त राष्ट्र संघ के दायित्वों को पूरा करने वाला आदेशात्मक संस्था है। इसके १५ सदस्य हैं। जिनमें पांच स्थायी सदस्य हैं- अमेरिका, ब्रिटेन, साम्यवादी चीन, फ़्रांस और रूस । अस्थायी सदस्यों को सयुंक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा दो वर्षों के लिए चुना जाता है। अस्थायी सदस्यों में सामान्यतः पांच अफ्रीकी एशियाई देशों से, दो लैटिन अमेरिका, दो पश्चिमी यूरोप तथा एक पूर्वी यूरोप से चुने जाते हैं। अंग्रेजी वर्णमाला के अक्षरों के क्रम से सभी देश एक-एक मास के लिए सुरक्षा परिषद की अध्यक्षता करते हैं। सुरक्षा परिषद के अंतर्गत प्रक्रिया संबंधी सामान्य विषयों पर किन्ही ९ सदस्यों के समर्थन से कोई प्रस्ताव पारित किया जा सकता है। लेकिन अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा से सम्बंधित किसी विषय पर उन नौ सदस्यों में पांचो स्थायी सदस्यों का समर्थन हासिल होना आवश्यक हैं। यदि स्थायी सदस्यों में से किसी ने प्रस्ताव के खिलाफ समर्थन कर दिया तो प्रस्ताव पारित नहीं माना जाएगा। इस प्रकार स्थायी सदस्यों को वीटो शक्ति का निषेधाधिकार दिया गया हैं। जिसका प्रयोग करके वो किसी मुद्दे पर प्रस्ताव पारित करने या किसी कारवाई को रोक देते हैं।
अपने दायित्वों को पूरा करने के क्रम में सुरक्षा परिषद सर्वप्रथम शांतिपूर्ण उपायों से विवादों के समाधान का प्रयास करती हैं। जिनमें विचार विमर्श, मध्यस्थता आदि शामिल हैं। यह क्षेत्रीय संगठनों को भी विवादों के समाधान हेतु प्रोत्साहित करती है। शांतिपूर्ण उपायों द्वारा विवादों का समाधान न होने पर यह दोषी राष्ट्रों के विरुद्ध कूटनीतिक, आर्थिक व वित्तीय दंड निर्धारित करती है एवं अंतिम उपाय के रूप में सैनिक कारवाई का आदेश भी दे सकती है।
सुरक्षा परिषद में सुधार का प्रश्न - वर्तमान समय में विश्व की बदली हुई राजनैतिक एवं आर्थिक व्यवस्था के अनुरूप सुरक्षा परिषद में सुधार की मांग लगातार की जा रही हैं। जिससे अफ्रीका, एशिया तथा लैटिन अमेरिकी देशों को उचित प्रतिनिधत्व प्राप्त हो सके । संयुक्त राष्ट्र के अस्तित्व में आने के छह दशकों के दौरान विश्व व्यवस्था में एक बड़ा बदलाव आ गया है। दूसरे विश्व युद्ध के खलनायक देश जापान और जर्मनी की अर्थ व्यवस्था क्रमशः विश्व की दूसरी और तीसरी बड़ी अर्थ व्यवस्था बन चुकी है। दूसरी ओर भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, व मैक्सिको जैसे देश विश्व की तेजी से बढ़ती हुई अर्थ व्यवस्था वाले देश बनकर उभरे हैं । जहां तक भारत की सुरक्षा परिषद में दावेदारी का प्रश्न है अमेरिका व चीन को छोड़कर अन्य तीन स्थायी सदस्यों ने खुलकर समर्थन किया हैं ( अमेरिका ने अब समर्थन किया हैं ) । जबकि विश्व के अन्य प्रमुख देशों सहित विकासशील देशों ने ऐसी ही मंशा जतायी हैं। हालाँकि सुरक्षा परिषद में सुधार के स्वरूप को लेकर देशों के बीच मतभेद हैं कुछ का मानना है कि सुरक्षा परिषद के नए सदस्यों को वीटो पावर न दिया जाए। जबकि सदस्यता के इच्छुक भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका,जापान व जर्मनी इस शक्ति के बगैर सुरक्षा परिषद की सदस्यता को उचित नहीं मानते।
लेकिन अब अमेरिका ने भारत के दावेदारी को मजबूती प्रदान कर दी हैं। लिहाजा विरोध झेलना है केवल चीन का । इस लिहाज से स्थायी सदस्यता की राह खुलती नजर आ रही हैं। लेकिन अभी राह आसान नहीं हैं । केवल उम्मीद जाग गयी हैं । और उम्मीद पर तो पूरी दुनिया टिकी है। लेकिन जैसे ही ओबामा ने खुल कर समर्थन किया तो दावेदारी के अन्य सदस्यों की भौंहें तन गयी हैं । इस सीट के लिए प्रबल दावेदारों में शुमार किये जा रहे जापान और जर्मनी ने आरोप लगाया है कि उनकी अनदेखी की जा रही है। भारत के धुर विरोधी पाकिस्तान ने तो अमेरिकी राजदूत से मिलकर अपना विरोध औपचारिक रूप से भी दर्ज करा दिया हैं। जब कि तथ्य यही है कि अभी ये तो दूर की कौड़ी हैं। लेकिन अन्य देशों की नीद हराम हो गयी हैं।

ओबामा की नब्ज - ओबामा ने भारत को एक उभर चुका देश कहा हैं। यानी अब हम विकसित देश की कतार में शामिल हो गए। लेकिन ऐसा नहीं हैं। अमेरिका ने अभी स्थायी सदस्यता के लिए जापान का समर्थन किया है। जब कि जी - ४ का विरोध किया है । इस समूह में जापान, जर्मनी , भारत और ब्राजील शामिल हैं। इस तरह ओबामा ने भारत के दावे का समर्थन करके अपना रूख तो स्पष्ट कर दिया है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि जी- ४ मामले में अमेरिका भारत का समर्थन करेगा।
कौन किसके खिलाफ - सयुंक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता चाहने वालों में आपस में ही एक दूसरे के विरोधी हैं । जैसे - जापान और भारत की दावेदारी के खिलाफ चीन हैं। ब्राजील को मैक्सिकोऔर अर्जेंटीन का विरोध झेलना पड़ रहा है। अफ्रीका में दक्षिण अफ्रीका सबसे प्रबल दावेदार हैं । लेकिन कुछ और देश अपनी दावेदारी पेश कर सकते हैं। इधर इसके स्थायी सदस्य ज्यादातर यूरोपीय देशों के हैं। और वो चाहते हैं कि विश्व के हर हिस्से के देशों को इसका प्रतिनिधत्व दिया जाए ।
इन सब तमाम पेंच को देखकर लगता हैं कि कहीं स्थायी सदस्यता खैनी पुलाव न साबित हो लेकिन ऐसा नहीं होगा। और ओबामा के जय हिन्द ने भारत को एक नयी ऊर्जा दी हैं और उसी सकारात्मक ऊर्जा के साथ भारत को अपने कदम आगे बढ़ाना होगा।

Thursday, November 4, 2010

झंडा ऊंचा रहे हमारा देश फिरै चाहे मारा - मारा

यह कहानी आजाद भारत की हैं। जहाँ तिरंगा भले ही न लहरा रहा हो , लेकिन तिरंगे की कुंडली मारे बैठे देश के राजनीतिक दलों के झंडे लक्ष्मी जी की ऊर्जा से लहरा रहे हैं। सरकार के पास अनाज सडाने का प्रावधान हैं,उसे पानी में बहाने का प्रावधान हैं लेकिन गरीबों में बांटने का प्रावधान नहीं हैं। राजनीतिक पार्टियां मालामाल हैं। आम आदमी फटे हाल हैं। दिन दो गुना रात चौगुना की रफ़्तार से राजनीतिक पार्टियों का खजाना भर रहा हैं। आज़ाद भारत में दो जून की रोटी के लिए जिन्हें लाले पड़ रहे हैं उनसे पूछो आपको आज़ादी के बाद क्या मिला ? और देश के नेताओं से पूछो कि उन्होंने देश की आज़ादी के बाद क्या हासिल किया ? इसका जवाब यही होगा कि देश के राजनीतिक दल आज़ाद भारत का भविष्य चर रहे हैं।
हाल ही में सूचना के अधिकार के तहत जो जानकारी सामने आई हैं । उसका अंदेशा सबको होगा और वही जानकारी मिली हैं जो राजनीतिक दलों से उम्मीद की जा सकती हैं। देश में कांग्रेस पार्टी सबसे अमीर दल के रूप में उभरकर सामने आई हैं । हालाँकि पिछले एक साल के दौरान खजाने में सबसे ज्यादा बढ़ोत्तरी सर्व धर्म सुखाय सर्व धर्म हिताय का नारा देने वाली बहुजन समाज पार्टी ने किया हैं। आंकड़ों के अनुसार ३१ मार्च २००९ तक छह सालों के दौरान कांग्रेस को सबसे अधिक ४९७ करोड़ रुपये कि कमाई हुयी है। २००२ से २००९ के बीच कांग्रेस की कुल संपत्ति १५१८ करोड़ रुपये की आंकी गयी हैं। वहीँ २००९ से १० के दौरान भाजपा के खजाने में २२० करोड़ रुपये व बसपा के खजाने में १८२ करोड़ रूपये की कमाई दर्ज हैं। पिछले ६ सालों के दौरान कुल आय वृद्धि दर के मामले में बसपा ने सबको पीछे छोड़ दिया। बसपा ने २००२ से ०९ के बीच ५९ फीसदी की दर से अपनी आय बढाई है। जब कि कांग्रेस की आय ४२ फीसदी की दर से बढ़ी है । कांग्रेस की सहयोगी एन.सी.पी.ने अपना खजाना भरने में ५१% की दर से बढ़ोत्तरी की हैं। वहीँ सपा ने ४४% की वृद्धि दर के साथ खजाना भरा है। असोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रेफोर्म्स ( ए.डी.आर.) ने सूचना के अधिकार के तहत सभी राजनीतिक पार्टियों का आयकर और अचल संपत्ति के आधार पर उक्त विश्लेषण किया हैं । केन्द्रीय सूचना आयोग के आदेश के बाद सभी प्रमुख पार्टियों ने अपनी सम्पत्ति और आय का ब्यौरा दिया। वहीँ पिछले एक साल में सीपीआई ने एक करोड़, समाजवादी पार्टी ने ४० करोड़, सीपीएम ने ६३ करोड़ व राजद ने ४ करोड़ का फंड जुटाया।
२००२ - २००३ से लेकर २००९-१० के अंतराल में कुल संपत्ति के मामले में भी कांग्रेस सबसे आगे है । इस दौरान कांग्रेस की कुल संपत्ति १५१८ करोड़ रुपये रही। जब कि भाजपा की इस अवधि में ७५४ करोड़ रुपये की कुल संपत्ति के साथ दूसरे स्थान पर है। बसपा की कुल संपत्ति की कीमत ३५८ करोड़ रुपये आंकी गयी है। पिछले छह सालों के दौरान सीपीएम की कुल संपत्ति ३३९ करोड़ रुपये सपा की २६३ करोड़ रुपये रही जब कि राजद की संपत्ति १५ करोड़ और सीपीआई की कुल संपत्ति महज ७ करोड़ आंकी गयी।
यक्ष अब सवाल यहाँ से ये उठता है कि जो भी पार्टी सत्ता में आती है उसका वित्तीय मामले में रोना शुरू हो जता है। अच्छी योजनाओं के लिए फंड में कमी,कानूनी दांव पेंच जैसे मामले की वजह से योजनायें अधर में लटक जाती हैं। जबकि सत्ता का नशा चढ़ते ही पार्टी मालामाल होना शुरू हो जाती हैं। रिकॉर्ड तोड़ कमाई करने वाली मायावती की पार्टी की बात की जाए तो वो नोटों की माला पहनने में ही सम्मान समझती है। और दलील देती हैं कि दलित की बेटी हूँ। मेरे कार्यकर्ताओं ने धन एकत्र करके दिया है, जब आपके कार्यकर्ताओं में इतनी कूवत है तो उन्हें निर्धन, असहाय लोगों की सेवा में क्यों नहीं लगाया जाता है? उल्टे जूं बन कर उन्हीं का खून चूसने निकल पड़ते है॥ आज हर एक राजनीतिक दल का यही हाल है। बड़े नेता जिस भी अमुक जगह में पहुँचते हैं रुपयों की पोटली बाँध कर विदा किया जाता हैं.जबकि उसी जगह कितने लोग जीवन निर्वाह के लिए अपने शरीर की हड्डियों का ढांचा ढोनेके लिए मजबूर होते हैं। मुंबई में लालकृष्ण आडवाणी के आने पर करोड़ों रुपये की धन राशि दी गयी थी । इसको देने वाले और खर्च करने वाले ही आज देश के भस्मासुर है ।
अब ज़रुरत हैं लोकतंत्र के जिस ढाँचे को पीढ़ियों से ढोया जा रहा है उसमें बदलाव करने की। कितना गलत पढ़ाया जा रहा है कि सरकार जनता ने चुना हैं जबकि जनता ने सिर्फ विधायक और सांसद चुने हैं न कि प्रधानमन्त्री और मुख्यमंत्री नहीं। देश का कोई आम नागरिक कह दे कि ,मैंने प्रधानमन्त्री और मुख्यमंत्री का चयन किया हैं। और यहीं से भ्रष्टाचार पनपना शुरू हो जाता हैं। और हकीकत जानना है तो कहते हैं बहमत प्राप्त दल के सदस्य अपना नेता चुनते हैं। कितने सदस्यों ने अपना नेता स्वतंत्र रूप से चुना है। आज देश के नेताओं की शैक्षिक योग्यता निर्धारित होना अनिवार्य हैं तभी कहा जाए कि लोकतंत्र प्रधान देश है। नहीं तो संसद भवन में नोटों की गड्डी लहराना अभी तो एक बानगी हैं। आगे क्या होगा देश के मालामाल नेता और मालामाल राजनीतिक दल जानें। क्योंकि भविष्य निर्माता यही हैं। देश का झंडा इन्हें भाता नहीं हैं इनके कार्यालयों में पार्टी का झंडा लहराएगा। इसी लिए राजनीतिक पार्टियों के तरफ से झंडा ऊंचा रहे हमारा देश फिरै चाहे मारा-मारा ।

Saturday, October 30, 2010

हीरो की ज़रुरत है नीरो की नहीं

हिंदुस्तान के जिस राज्य को विशेषाधिकार प्राप्त राज्य घोषित किया गया है जहां जीवनावश्यक वस्तुएं सस्ते दामों पर मुहैया कराई जाती हैं आज उस राज्य में आग के गोले बरस रहे हैं । जम्मू का जमूरा आज सत्ताधारी दल के पास नहीं है । मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला हों या प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह कश्मीर के नीरो बने हुए हैं। आज कश्मीर को नीरो कि नहीं हीरो कि ज़रुरत है। जो वहां दहकते शोलों को बुझाकर रहनुमाई दे सके । अब अगर कश्मीर के baare में ज्यादा जानकारी चाहिए, तो उसके अतीत को जानना ज़रूरी होगा। तभी कश्मीर क्यों जल रहा है का सटीक विश्लेषण हो सकेगा ।
राजतरंगिणी ( कल्हण ) तथा नीलमत पुराण के अनुसार , कश्मीर की घाटी पहले बहुत बड़ी झील थी । भू गर्भ शास्त्रियों के मतानुसार , भूगर्भीय परिवर्तों के कारण खादियानुसार , बारामुला में पहाड़ों के घर्षण से झील का पानी बहार निकल गया। फलतः घटी का निर्माण हो गया। पौराणिक आख्यान के अनुसार, कश्यप मुनि के नाम पर कश्मीर का naam प्रचलित हुआ।
ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक ने कश्मीर में बौद्धधर्म का प्रचार किया । छठी शताब्दी के आरम्भ में कश्मीर पर हूणों का अधिकार हो गया। इसके बाद यहाँ पर कार्कोट, उत्पल और लोहार वंशीय राजाओं ने शाशन किया। हिन्दू राजाओं में ललितादित्य मुक्तापीद ( सन 697 से 738 ) सबसे प्रसिद्ध राजा हुए । कश्मीर में इस्लाम का आगमन 13 वीं शताब्दी और 14वीं शताब्दी में हुआ। यहाँ के मुश्लिम शाशकों में जैन-उल आबदीन (१४२०-७०) ससबसे प्रसिद्ध शासक हुआ। सन १८५७ में कश्मीर मुग़ल शासकों के हाथ से निकलकर अहमद शाह अब्ब्दाली के पास चला गया । पठानों ने ६७ वर्ष तक कश्मीर पर शासन किया।

सन १७३३ से १७५२ तक राजा रणजीत सिंह ने जम्मू पर शासन किया। बाद में उन्होंने इसे पंजाब में मिलकर डोगरा शाही परिवार के एक व्यक्ति गुलाब सिंह को जम्मो सौंप दिया। गुलाब सिंह रणजीत सिंह के गवर्नरों में सबसे शक्तिशाली बन गया। सन १९४७ तक जम्मो पर डोगरा शासकों का आधिपत्य रहा। भारत द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महाराजा हरि सिंह ने १९४७ में कश्मीर राज्य ko भारत में विलय के समझौते पर हस्ताक्षर किये।
महाराजा के पुत्र कर्ण सिंह १९५० में रेजिडेंट बने और आनुवंशिकी शासन की समाप्ति (१७ अक्टूबर १९५२) पर उन्हें सद्र - ए - रियासत पद की शपथ दिलाई गयी । भारत के संविधान में उल्लेखित धारा ३७० के अंतर्गत यह एक विशेषाधिकार प्राप्त राज्य है। जम्मू कश्मीर राज्य का संविधान २६ जनवरी १९५७ से लागू हुआ।
अब आज जम्मू के क्या हालत हैं ये सभी जान रहे हैं। क्या कहा जाए की १९५७ से अब तक नाटक चल रहा हैं और आगे भी चलता रहेगा। जब जम्मू में आग दहकने लगी तो केंद्र सरकार ने ताजा स्थिति का जायजा लेने के लिए सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल भेजने का फैसला किया। ताज्जुब इस बात का रहा की किसी ने भी उमर अब्ब्दुल्ला सरकार को बर्खास्त करने की मांग तक नहीं की । इस पूरे बैठक में नेताओं के दिमाग में कितना दीवालियापन है ये भी साबित हो गया । माकपा, भाकपा, जदयू, राजद , लोजपा जैसी वामपंथी और समाजवादी विचार धारा चरने चरने वाली पार्टियों ने कश्मीर से सशस्त्र बल विशेषाधिकार क़ानून तथा जनसुरक्षा क़ानून पूरी तरह वापस लेने की मांग की हैं। यक्ष सवाल यहाँ पर ये उठता है कि देश के इन नेताओं को कितना ज्ञान है। कश्मीर में सुर्क्षों बालों को मिले जिन विशेषाधिकारों पर हो हल्ला मचा हुआ है। वे पहले ही ख़त्म हो चुके हैं। १९९८ में राज्य की नेशनल कांफ्रेस सरकार ने इसे अपने आप ही समाप्त हो जाने दिया था । और इसकी अवधिको आगे नहीं बढ़ाया था। मौजूदा समय में सरकारी रिकार्ड के मुताबिक़ जम्मू कश्मीर में सुरक्षा बालों को विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हैं। अब जिन लोगों को दोबारा भेजा हैं उन लोगों ने तो अलग ही राग अलापना शुरू कर दिया । उन्हें पाकिस्तान पापा नजर आ रहा हैं। जिसे राजा हरि सिंह ने कभी घास नहीं डाला उसे हमारे देश के बुद्धजीवी तत्व सब अमृत मान रहे हैं। लेखिका अरुंधती ने अपनी लेखनी के जरिये एक अलग ही शिगूफा रच दिया हैं। अरुंधति रॉय को वर्ष १९९७ के मैं बुकर पुरस्कार की विजेता हैं। अब उनको भारत की राज्य प्रणाली ही बुरी दिख रही हैं। माओवादियों की चिंता सताने के बाद अब जम्मू कश्मीर पर भी कलम फेर दिया हैं। जिन लोगों को सरकार ने जम्मू में दौरा करने के लिए भेजा हैं और जान रेपर्ट देने के लिए कहा हैं वही कह रहे हैं की जम्मू को पाकिस्तानी चश्में से देख रहे हैं। इस बंटवारे की वकालत करने वालों को एक बात बहुत बारीकी से समझना होगा दुनिया के जितने भी देस्शों का बंटवारा हुआ हैं सभी जनसंख्या या भू भाग के अधर पर हुआ हैं लेकिन इसे धर्म के नाम पर बाँट रहे हैं। और ये धर्म के नाम पर बांटने वाले सिर्फ अपना व्यक्तिगत उल्लू ही सीधा करेंगे। पाकिस्तान ने पाक अधिकृत कश्मीर में कितना विकास किया हैं और भारत के कश्मीर में कितना विकास हुआ हैं ये पहले देख लो। अलगाववादी क्यों पैदा हुए और किसने पैदा किया ? सरकार कश्मीर का इलाज ढूँढने के बजाय इसे लाइलाज छोड़ना चाहती हैं । देश के नेताओं ke दिमाग mein भरा हुआ hai की जब 63 साल से चल रहा hain तो आगे bhi चलता रहेगा। आज ज़रुरत हैं कश्मीर के हालत को ठीक अकरने के लिए। लेकिन सभी वहाँ जाकर नीरो बन कर काम कर रहे हैं। ज़रुरत हैं सही दिशा में काम करने की ।

Tuesday, July 6, 2010

मनमोहन माफ़ कर दो गलती मारे से हो गई

देश की बागडोर अर्थशास्त्री के हाथ में हैं। अर्थशास्त्र ही इतना पेचीदा हो गया है किइस शास्त्र में कितने पेंच फंसे हुए हैं। ये तो अर्थशास्त्री ही जाने। लेकिन भौतिक शास्त्र, रसायन शास्त्र और सभी शास्त्रों की कुंडली मारे बैठे इस अर्थशास्त्र ने देश कि आम जनता के बीच आतंक का अर्थशास्त्र बन बैठा हैं। जब भी कोई गृहणी घर में खाना बना रही होती हैं। तो उसे ऐसा लगता हैं कि घर में खाना नहीं बना रही बल्कि गणित की परीक्षा दे रही हैं।
कहते हैं यूपीए आई महंगाई लाई। उम्मीद थी कि देश के प्रधानमंत्री और अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह अपने अर्थशास्त्र के तीर से महंगाई को मारेंगे। लेकिन मनमोहन सिंह जी का ब्रम्हास्त्र फेल हो गया। और महंगाई मारने के बजाय आंकड़े बाजी का खेल शुरू हो गया । यानी कहीं न कहीं लगता है कि मनमोहन सिंह,प्रणब मुखर्जी और मोंटेक सिंह अहूलवालिया (जो देश के अर्थशास्त्री जनक हैं ) अपनी प्रतिभा का इस्तेमाल आंकड़े बाजी का खेल खेलने में कर रहे हैं। शायद यही वजह है कि चीते कि रफ्तार से भाग रही महंगाई पर ये बूढ़े शेर हाँफते नज़र आ रहे हैं।
हाल ही में महंगाई ने जिस तरह से अपना रंग दिखाया हैं उससे विपक्ष में उबाल आ गया हैं। और जब सरकार ने तेल के दाम गरम कर दिए हैं तो ५ जुलाई को पूरा देश खौलने लगा देश कि जनता खून खौल रहा हैं और माकपा ने ' पेट्रोल उत्पादों kee कीमत-झूठों के पीछे छुपा सच' नामक पुस्तिका जारी कर दी हैं । अगर इस पुस्तिका में लिखी हुयी बातें सच हैं तो इसका मतलब हाथ अब भारत का हाथ नहीं बल्कि सात समंदर पार का हाथ हैं।
दरअसल इस पुस्तिका में माकपा ने सारे तथ्य गिनाये हैं कि सरकार किस तरह से जनता से चालबाजी कर रही हैं। माकपा का आरोप है कि सरकार पेट्रोलियम क्षेत्र की सरकारी कम्पनियों को डुबोना चाहती है। ताकि देश में निजी क्षेत्र और विदेशी कम्पनियों का वर्चस्व स्थापित हो सके। वामपंथी नेताओं ने कहा है की देश की किसी भी तेल कंपनी को हाल के वर्षों में कोई घटा नहीं हुआ हैं। बल्कि साल २००८-०९ में इंडियन आयल कारपोरेशन को २९५० करोड़ रुपये का शुद्ध मुनाफा हुआ हैं। ३१ मार्च २०१० को समाप्त वित्तीय वर्ष में आईओसी को शुद्ध मुनाफा १०९९८ करोड़ रुपये का हुआ हैं। एचपीसी और बीपीसी को क्रमशः ५४४ और ८३४ करोड़ रुपये का शुद्ध मुनाफा कमाया हैं। इसके अलावा माकपा ने ये भी दावा किया हैं क़ि सरकार सरासर झूठ है पेट्रोलियम पदार्थों की मूल्यवृद्धि पर सरकार ५३,००० करोड़ रुपये का बोझ सहने को मजबूर होगी । २००९-१० में पेट्रोलियम सेक्टर द्वारा कर,ड्यूटी,लाभंस इत्यादि के रूप में सरकारी खजाने में ९०,000 करोड़ जमा हुए । २०१०-११ में सरकार को १,२०,000 करोड़ रुपये से ज्यादा का आय होने का अनुमान हैं । पिछले दो सालों में कच्चे तेल की कीमत ७० पैसा प्रति लीटर बढ़ी है। जबकि सरकार ने पेट्रोल में साढ़े छह रुपये और डीजल में साढ़े चार रुपये की बढ़ोत्तरी की हैं। वाम नेताओं ने पूछा हैं क़िपिछले तीन महीने ,में विश्व बाज़ार में कोई बढ़ोत्तरी नहीं हुयी तो फिर यह ताज़ा मूल्य वृद्धि क्यों की गई ? दुनिया के कई देश पेट्रोलियम पदार्थ खरीदते हैं और अपने यहाँ रिफाइन व् प्रोसेस करने क़ि जहमत नहीं उठाते। यदि यह देश अपने यहाँ इन पदार्थों का वैश्विक भाव पर बेंचे तो बात समझ में आती हैं लेकिन भारत अपनी ज़रुरत का ८० फ़ीसदी कच्चा तेल खरीदता है। जिसे भारत में ही रिफाइन किया जाता हैं। ऐसी हालत में कच्चे तेल की कीमत और रिफाइनरी लागत जोड़कर ही तेल का दाम तय किया जाना चाहिए। लेकिन सरकार चालाकी से तैयार पेट्रोल व डीजल का वैश्विक मूल्य यहाँ की जनता पर थोपना चाहती हैं। अब ऐसे में सरकार को माकपा के आरोपों का जवाब देना चाहिए। माकपा के इन आरोपों पर भरोसा किया जा सकता हैं क्योंकि माकपा सरकार को लम्बे समय तक बहार से समर्थन देती रही हैं। इसलिए वह संप्रग का सारा घालमेल जानती होगी। ऐसे में सरकार से यही कहना होगा क़ि दाई से पेट नहीं छिपाया जा सकता हैं। लेकिन जनता को तो अब यही गाना याद आ रहा हैं की छत पे सोया था बहनोई जीजा समझकर सो गई राना राना जी माफ़ करना गलती मारे से हो गई। लिहाजा अब आम आदमी की पैरवी करने वाली इस सरकार से आज आम आदमी यही कह रहा क़ि मनमोहन जी माफ़ कर दो इस बार गलती से आपको सत्ता क़ि चाभी दे दिया। इसलिए माफ माफ़ माफ़ कर दो .....................

Monday, May 31, 2010

मीठी नदी बन गई राजनीति का जायका

हर साल मानसून आने के पहले मीठी नदी को लेकर राजनीति शुरू हो जाती हैं। मई महीने का आखिरी सप्ताह सभी दलों के नेताओं के लिए एक पिकनिक केंद्र बन जाती हैं। हर दिन नेताओं का काफिला लावलश्कर के साथ पहुंचता हैं.और शुरू हो जाता हैं एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला। मीठी नदी का विकास मनपा और एम्.एमार.डी ए कर रही है। लिहजा कोई भी अपनी जिम्मेदारी ढंग से निभाने के बजे एक दूसरे पर ठीकरा फोड़ना उचित समझते हैं।

संजय गांधी राष्ट्रीय उद्यानसे निकलकर माहिम की खाड़ी में समाहित होने वाली मीठी नदी का अस्तित्व डेढ़ सौ साल पुराना हैं। मुंबई में पानी कि ज़रुरत को पूरा करने के लिए १८६० में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने विहार जलाशय का निर्माण करवाया था। जलाशय के लबालब होने के बाद बरसात का पानी मीठी नदी के जरिये अरब सागर में जाने लगा। उस समय मुंबई के उपनगरों कि आबादी बहुत कम थी। साकीनाका,मरोल,कुर्ला का काफी इलाका घने जंगलों से घिरा था। जिसके कारण बारिश के मौसम में मीठी नदी स्वच्छंद रूप से बहा करती थी। इसका पानी पीने के उपयोग में भी आता था। सामान्य रूप से मीठी नदी में केवल ४ माह ही पानी बहता था। बांकी समय में यह लगभग सूखी ही रहती थी.,जिसके कारण लोग इस नदी के बारे में बहुत कम जानते थे। मुंबई में हुयी औद्योगिक क्रांति के बाद शहर कि आबादी में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। मीठी नदी जिस जगह से होकर बहती थी। लोगों ने वहां झोपड़े बना लिए। मीठी नदी के इर्द-गिर्द कल कारखानों ने अपनी जगह बना ली। और कारखानों का कचरा सधे इसी नदी में प्रवाहित होने लगा। इतना ही नहीं मरोल,अँधेरी,कुर्ला और साकीनाका के कई बड़े नालों को भी इससे जोड़ दिया गया। जिसके कारण मीठी नदी बदबूदार नदी के रूप में अपनी पहचान बनाने लगी। घरों का कचरा,प्लास्टिक,मकानों का मलबा आदि जमा होने के कारण नदी के पानी का प्रवाह धीरे - धीरे कम होता गया। लेकिन इस तरफ किसी ने ध्यान नहीं दिया। मानसून आने के पहले महानगरपालिका कि तरफ से थोड़ा बहुत कचरा निकाल कर साफ़ कर दिया जाता था। जिससे पानी निकलकर अरब सागर में चला जाता था।
२६ जुलाई २००५ को मुंबई में ९३४ सेमी से अधिक बारिश हुई और उसी समय समुद्र में मानसून का सबसे ऊंचा ज्वार भी उठा। बारिश का पानी समुद्र में जाने के बजे रिहायशी इलाकों में भरने लगा। देखते ही देखते मुंबई में बाढ़ आ गयी। और इसका ठीकरा मीठी नदी पर फोड़ दिया गया। ५० से अधिक लोगों की मौत और करोड़ों रुपये की सम्पत्ति के नुक्सान के बाद इसके कायाकल्प की कवायद शुरू हो गई। मुंबई महानगर पालिका,राज्यसरकार और केंद्र सरकार ने मिलकर सयुंक्त परियोजना पर काम शुरू किया। ५ साल का समय गुजर जाने के बाद भी मीठी नदी के स्वरूप में कोई विशेष फर्क नहीं आया। लेकिन ये अलग बात हैं कि मीठी नदी विकास परियोजना से जुड़े जन प्रतिनिधियों,अधिकारियों और ठेकेदारों का विकास तेजी से हुआ।
२६/७ की बाढ़ के बाद मुंबई mein बरसाती पानी की निकासी को लेकर कवायद शुरू ho गई। शहर के ५० से अधिक नालों को ब्रिम्स्तोवोड़ परियोजना से जोड़ा गया। जिसके लिए केंद्र सरकार ने १२०० करोड़ रुपये कि व्यवस्था कि हैं। जबकि १८ किलोमीटर लम्बी नदी को चौड़ा और गहरा दोनों तरफ सुरक्षा दीवार बनाने, प्रभावितों को दूसरी जगह बसाने अदि को लेकर मुख्यमंत्री के नेतृत्व में मीठी नदी विकास प्राधिकरण बनाया गया। और मुंबई मनपा, एम्.एम्.आर.डी.ए.और एअरपोर्ट अथोरती को सयुंक्त रूप से इसकी जिम्मेदारी सौंपी गई। अब तक मीठी नदी के नाम पर ६०० करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। एक हजार करोड़ रुपये से अधिक खर्च किया जाना बाकी हैं । लेकिन इसका स्तर अभी भी किसी बदबूदार नाले से ऊपर नहीं उठ पाया है । मानसून के पहले राजनीति शुरू होती हैं और नदी में राजनीती की बदबू आने लगती हैं।

शुरूआती दौर में मीठी नदी के विकास का खर्च ७०० करोड़ रुपये आंका गया था। इसमें से २०० करोड़ रुपये केंद्र सरकार की तरफ से मिलने थे। लेकिन नदी और नालों को लेकर केंद्र सरकार कि तरफ से रूपये मिलने में देरी होती गयी। खर्च का दायरा बढ़ता गया। और ये खर्च बढ़कर १६५७ करोड़ रुपये हो गया। १८ किलोमीटर लम्बी नदी का विकास ११.८ किलोमीटर हिस्से का विकास मुंबई महानगर पालीका कर रही हैं।
नदी को फिर से जीवीत रखने की कवायद शुरू ho गयी हैं। विहार लेक, पवई से माहिम तक बहाने वाली मीठी नदी में ४३ नालों से लाखों तन कचरा बहता हैं। जिससे नदी के पानी में ओक्सिजन की मात्रा कम हो गई हैं लिहाजा मछलियों को ओक्सिजन देने के लिए एम.एम्.आर.डी.ए.ए.ने ओक्सिजन डालने काम शुरू किया। और अमेरिकी कम्पनी इन्वायरमेंटल कंसल्टिंग टेक्नालोजी इंक से डेढ़ करोड़ रुपये कि लगत वाली २ मशीने किराये पर ली थी। जो प्रति मिनट ८ से दस गैलन पानी में ओक्सिजन डाल सकती हैं। हालाँकि मीठी नदी के प्रदुषण को रोकने के लिए निरी भी जुटा हुआ हैं। ताकि प्रदुषण को रोका जा सके।

कुल मिलाकर मीठी नदी राजनीतिक दलों के लिए सिर्फ जयका बनता जा रहा हैं।

Friday, May 28, 2010

माया के आगे ओबामा फिस्स

गले में नोटों की माला पहनने वाली माया वाकई में मालामाल हैं। भारत के गरीब राज्यों शुमार उत्तर-प्रदेश की मुख्यमंत्री ने दुनिया के सबसे अमीर देश के राष्ट्रपति को दौलत के मामले में पछाड़ दिया हैं। मायावती के पास अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की तुलना में तीन गुना ज्यादा सम्पत्ति हैं। उत्तर प्रदेश की विधान परिषद् के लिए दाखिल नामांकन पत्रके साथ पेश किये गए हलफनामें में मुख्यमंत्री मायावती ने ८८.०६ करोड़ रुपये की चल एवं सम्पत्ति की घोषणा की हैं। मायावती के पास ७५.४७ करोड़ रुपये के व्यावसायिक आवासीय भवन एवं सम्पत्ति हैं। माया की सबसे बड़ी सम्पत्ति नई दिल्ली के नेहरू रोड इलाके में ३९८७.७८ वर्गमीटर जमीन हैं। जिसकी कीमत ५४ करोड़ रुपये हैं। ५४ साल की माया के पास एक किलो सोना व् तमाम हीरे जवाहरात हैं। जिसकी कीमत ८८ लाख रुपये हैं। चार लाख रुपये का चांदी का डिनर सेट हैं। जिसका वजन १८ किलो हैं। पेंटिंग्स और भित्त्चित्र(म्यूरल्स) भी हैं। जिसकी कीमत १५ लाख हैं। ११.३९ करोड़ रुपये विभिन्न बैंकों एवं वित्तीय संस्थानों में जमा हैं। साल २००७ में एम्.एल.सी के उपचुनाव में नामांकन के साथ भरे गए शपथ पत्र में मायावती ने ५२ करोड़ रुपये से कुछ अधिक सम्पत्ति की घोषणा की थी। मगर आज भी उनके पास अपना कोई निजी वाहन नहीं हैं। मायावती का विधान परिषद् में जुलाई में कार्यकाल ख़त्म हो रहा हैं । यूं.पी में १३ सीटों के लिए १० जून को एम्.एल.सी के चुनाव हैं। और इसी के नामांकन पत्र में मायावती ने ये जानाकारी दी हैं।
अब अगर माया की तुलना ओबामा से करें तो जहां माया के पास ८८ करोड़ की सम्पत्ति हैं वहीँ ओबामा की निजी सम्पत्ति ५६ लाख डालर यानी २६ करोड़ ३० लाख ६० हजार रुपये हैं। ओबामा की पत्नी मिशेल की सम्पत्ति और परिवार से मिली सम्पत्ति को भी जोड़ दिया जाये तो कुल रकम 77 लाख डालर यानी करीब ३६ करोड़ 17 लाख रुपये बैठती हैं । मायावती भारत के सबसे अमीर नेताओं में शुमार हैं। जबकि ओबामा अपने देश के सबसे गरीब राष्ट्रपति हैं। ओबामा से पहले जोर्ज डब्ल्यू बुश सीनियर सबसे कम सम्पत्ति वाले अमेरिकी राष्ट्रपति थे। मायावती की सम्पत्ति बढ़ने की रफ़्तार भी गजब की हैं। उन्होंने २०११ में ११ करोड़ की सम्पत्ति की घोषणा की थी और अब अपनी सम्पत्ति ८८ करोड़ बता रही हैं। यानी सात साल में ८०० फ़ीसदी इजाफा। सालाना करीब ११४ फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी । तभी तो राजनीति का चस्का सबको खाए जा रहा हैं। ना ज्यदा पढने लिखने की ज़रुरत। और आराम से मालामाल हो जाओ।

Friday, January 29, 2010

प्यार पर व्यापर

दिल की धड़कन तेज हो गयी। और दिल में समाये हुए अरमानों को इज़हार करने का वक्त भी आ रहा है। जी हाँ वेलेंटाइन डे यानी प्रेम दिवस। वैसे तो वेलेंटाइन डे का इतिहास काफी पुराना हैं। लेकिन भारत में १६५ साल पहले हमने वेलेंटाइन डे का नाम सुना ये जानकार आपको भी आश्चर्य होगा कि मसूरी के एक अंग्रेज ने अपनी बहन को लिखे ख़त में वेलेंटाइन डे का जिक्र किया था। और वेलेंटाइन डे नाम से ये भारत में लिखा गया पहला ख़त था। यानी पहला वेलेंटाइन डे ख़त मसूरी से चला था। इस ख़त में उन्होंने खुलकर अपनी जीवन संगिनी के साथ प्रेम के सुखद अहसास का अपनी बहन से जिक्र किया था। और ये ख़त लाल रंग के पेपर में लिखा गया था। यानी प्यार के लिए लाल और गुलाबी रंग को ही चुना जाता हैं। और लाल गुलाब के फूल को वरीयता दी जाती हैं। प्यार क्या देता हैं? क्या लेता हैं? इश्क लड़ने वाले आग की दरिया में डूबकर निकल जाना चाहते हैं.लैला मजनू का प्यार.हीर रांझा के किसी और मुमताज महल शाहजहाँ के प्यार की मिसाल आज भी कायम हैं। प्यार के दीवानों ने नए आयाम भी दिए हैं। गुरुत्वाकर्षण की खोज करने वाले न्यूटन ने प्यार - प्यार में आविष्कार कर दिया। नोबेल पुरस्कार प्राप्त मेरी क्यूरी और पियरे क्यूरी की कहानी भी कुछ ऐसी ही हैं। यानी जब प्यार का रसायन उफान मरता हैं तो तो केमेस्ट्री लैब भी स्वप्न वाटिका बन जाती हैं। और दो दिलों को जोड़ने वाले इस प्रेम दिवस में जोड़ों को देखकर यही लगता हैं कि प्रेम से बढ़कर कुछ भी नहीं हैं।
लेकिन जैसे जैसे प्रेम दिवस की उम्र बढ़ती जा रही हैं वैसे वैसे प्यार का व्यापार भारत में खूब फल फूल रहा हैं.प्यार का त्यौहार आने के पहले से ही प्रेमी जोड़े ताने बाने बुनना शुरू कर देते हैं। सात समंदर पार से मिले इस उपहार को भारतीय बाज़ार भी ढंग से भुनाते हैं।लेकिन अगर विदेशी बाज़ार में नज़र दौडाए तो एक अनुमान के मुताबिक वेलेंटाइन डे के अवसर पर भारतीय मुद्रा के अनुसार तकरीबन १५०० करोड़ रुपये में कार्ड और गिफ्ट का कारोबार होता हैं। इसमें ६२ फ़ीसदी पुरुष और ४४ फ़ीसदी महिलाएं उपहार खरीदती हैं। औसतन अमेरिकी पुरुष १०० डालर तो अमेरिकी महिलाएं ६० डालर खर्च करती हैं.प्यार का ये बोलबाला हिन्दुस्तान की जमीं पर सर चढ़कर बोलता हैं। और इस साल प्यार का सेंसेक्स भारत में ५५०० करोड़ रुपये के पार पहुँचाने की उम्मीद हैं। यानी गिफ्ट आइटमों के बाज़ार का आकार बढ़ गया हैं। लेकिन संत वेलेंटाइन की उम्र जीतनी बढ़ती जा रही हैं,उतना ही प्यार हाई टेक होता जा रहा हैं। यानी अब दिल की धड़कन टेक्नोलोजी के जरिये भेजी जाती हैं। साफ़ तौर पर जाहिर हैं,प्यार का बुखार बढ़ने के साथ साथ व्यापर भी फल फूल रहा हैं। और जानकारों का मानना हैं कि ३० फ़ीसदी सालाना की दर से कारोबार बढ़ रहा हैं। यानी एक दिन ऐसा आयेगा कि हम इस बात के आंकड़े निकालेंगे कि प्यार के दिन हमने कितना व्यापर किया। फिर वह व्यापर हमारी इकोनामी से जोड़ा जाएगा। फिर उसका अनुपात यानी रेसियों निकला जाएगा।और कहा जाएगा कि जी.डी.पी में इतने फ़ीसदी का योगदान हैं। अब आप भी आंकलन कीजिये कोई वेलेंटाइन डे हमारी देश की जी.डी.पी। में बढ़ोत्तरी करता हैं तो फिर आखिर उसका विरोध क्यों?

Thursday, January 28, 2010

प्रेम दिवस पर बाघ दिवस

१४ फरवरी यानी वेलेंटाइन डे आते ही प्रेमी जोड़ों के दिलों की घंटियाँ बजने लगती हैं। लेकिन इस बार बाघों के दिलों की घंटियाँ भी बजेगी । क्योंकि बाघों की तादाद बढ़ने के लिए केंद्र सरकार ने १४ फरवरी २०१० को " बाघ दिवस" कि शुरुआत करेगा। इसकी शुरुआत जिम कारबेट नेशनल पार्क से की जाएगी। इसका समापन नवम्बर २०१० में रणथम्भौर नॅशनल पार्क में होगा। ये आयोजन यह दर्शाएगा कि भारत बाघ सरंक्षण के मामले में क्या कर रहा हैं। दुनिया के वनों में ६० फ़ीसदी बाघ भारत में । दुनिया के किसी देश ने इतना व्यापक सरंक्षण कार्यक्रम नहीं लाया,जितना कि भारत ने चलाया हैं। वैश्विक स्तर पर बाघों के लिए पहल करने वाला विश्व बैंक भी भारत के प्रयास का समर्थन करना चाहता हैं।
दसवीं पञ्च वर्षीय योजना में सरकार ने २८ बाघ अभ्यारण्य को आर्थिक सहायता देने का प्रावधान किया था। जिसमें से ३७७६१ वर्गकिलोमीटर क्षेत्र में फैले २८ बाघ अभ्यारण्यों को आर्थिक सहायता दी गयी हैं। इसी तरह ग्यारहवीं योजना में भी अभ्यारण्यों और राष्ट्रीयपार्कों को और विस्तृत करने के योजना राखी गयी हैं। वैसे तो भारत में बाघों के आबादी को बरकरार रखने के लिए केंद्र सरकार ने बाघ परियोजना १९७३ में शुरू की थी। और सरकार के तरफ से हमेशा बाघों के संख्या को बढ़ने पर जोर दिया जा रहा हैं। वैश्विक स्तर पर बाघों की हो रही तस्कारी पार भारत रोक लगाने का हर संभव प्रयास कर रहा हैं। वन्य जीवों के अवैध व्यापर को प्रभावी रूप से रोकने के लिए ६ जून २००७ से एक बहुउद्देशीय बाघ एवं अन्य संकटापन्न प्रजाति अपराध नियंत्रण ब्यूरो का गठन किया गया हैं। जिसमें पुलिस, वन, कस्टम और अन्य प्रवर्तन एजेंसियों के अधिकारी शामिल हैं। और आठ नए बाघ रिजर्व घोषित करने के लिये सैन्धान्तिक रूप से अनुमति दे दी गयी हैं।

बाघ सरंक्षण से सम्बन्धित अंर्राष्ट्रीय मुद्दों के निपटारे के लिए बाघ रेंज देशों का एक ग्लोबल मंच बनाया गया हैं। साइट्स (सी.आई.टी.ई.एस।) के समर्थकों के सम्मलेन की १४वीन बैठक में ३ से १५ जून २००९ में हुयी थी। इस दौरान भारत ने चीन,नेपाल और रूसी संघ के साथ एक संकल्प प्रस्तुत किया। जिसमें वाणज्यिक पैमाने पर आप्रेसंस ब्रीडिंग बाघों के समर्थकों के लिए दिशा निर्देश जारी किये गए थे। इसके अलावा भारत ने हस्ताक्षेत करते हुए चीन से अपील की हैं कि बाघ फार्मिंग को चरणों में समाप्त किया जाए। और एशियाई बड़ी बिल्ल्यों के अंगों और उंसे बनाई गयी वस्तुओं के भण्डार को भी समाप्त किया जाए। बाघों के शरीर के अंगों के व्यापार पर रोक जारी रखने के लिए महत्वपूर्ण तरीके से भारत ने जोर दिया हैं।

आज देश में तकरीबन १५०० से २००० के आसपास बाघों के संख्या हैं। जो की बहुत कम हैं। क्योंकि पर्यावरण को संतुलन बनाये रखने के लिए जीव जंतुओं का रहना बहुत जरूरी हैं। शायद इसी लिए भारत सरकार का इस साल बाघों के प्रति प्यार जाग गया हैं। कि वेलेंटाइन डे का पूरा प्यार सरकार बाघों को देना चाहती हैं। हमारी भारतीय संस्कृति में हर दिन हर समय प्रेम दिवस बना रहता हैं। लिहाजा सरकार के प्रयासों का समर्थन करते हुए आप भी मनाइए बाघ दिवस।

Friday, January 22, 2010

सरकारी भोजन की थाली में कुपोषण

सिखों के पहले गुरू , गुरू नानक कहा करते थे कि राम दा चिड़िया राम दा खेत छक्कों चिड़ियाँ भर-भर पेट। आज सरकारी योजनायें भी पेट भर खाना खिलने की योजनायें निकाल रहीं हैं। लेकिन जब यही योजनायें भूखीं हो तो तो स्वाभाविक हैं। योजना दम तोड़ देगी और वो योजना खुद कुपोषण का शिकार हो जाएगी। जाहिर हैं इस योजना का जिसे फायदा होगा वो भी कुपोषण का शिकार होगा। ऐसे में अगर सरकार ये कहें कि बच्चों में कुपोषण दूर करना है तो सबसे पहले सरकार को अपना कुपोषण दूर करना होगा।यूनिसेफ और वाशिंगटन स्थित इंटरनॅशनल फ़ूड पालिसी रिसर्च संस्थान ने जो आंकड़े पेश किये हैं उससे साफ़ पता चलता हैं कि सरकार की कितनी योजनायें कुपोषण की शिकार हैं। बच्चोके लिए अनेक सरकरी योजनायें होने के बावजूद भी बच्चों में कुपोषण का ग्राफ बढ़ता जा रहा हैं। इससे बाल मृत्यु दर का आंकड़ा असमान छू रहा हैं। यूनिसेफ का सर्वेक्षण कहता हैं कि दुनिया भर के कुपोषित बच्चों का एक तिहाई हिस्सा भारत में निवास करता हैं। यानी हिन्दुस्तान में पांच साल से कम उम्र के छः करोड़ से ज्यादा बच्चे भूखे पेट सोने को मजबूर हैं। योनिसेफ़ के मुताबिक देश में मध्यप्रदेश की तस्वीर भयावह हैं। वहां कुपोषण के शिकार बच्चों में से सात फ़ीसदी से अधिक बच्चों का वजन औसत भार से काफी कम हैं। इसके अलावा वहां ३३ फ़ीसदी बच्चे गंभीर क्षय रोग की चपेट में हैं। केरल की स्थिति देश में सबसे अच्छी हैं। वहां २९ फ़ीसदी बच्चों का ही वजन औसत से कम मिला। जबकि क्षय रोग से पीड़ित बच्चे १६ फ़ीसदी पाए गए। भारत के महापंजीयक कार्यालय द्वारा जारी प्रतिवेदन का ही अगर अध्ययन किया जाये , तो देश में साल २००८ में नवजात शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार में ५३ फ़ीसदी थी। यूनिसेफ के द स्टेट ऑफ द वर्ल्ड चिल्ड्रेन रिपोर्ट में कहा गया हैं कि भारत में शिशु जन्म दर दुनिया के १४३ देशों से ज्यादा हैं। भारत के महापंजीयक के प्रतिवेदन के अनुसार नवजात बच्चों के मौत के मामले में मध्य प्रदेश पहले स्थान पर हैं। जबकि दूसरे स्थान पर उत्तर प्रदेश हैं। इस मामले में गोवा की स्थिति बेहतर हैं। जहाँ मृत्यु दर प्रति हजार में दस है। देश की राजधानी दिल्ली में यह आंकड़ा ३५ हैं।

भूख सूचकांक

वाशिंगटन की आई.ऍफ़.आर.आर.आई। ने भूख की वैश्विक स्थिति पर एक सूचकांक जारी किया हैं जिसे जी.एच..आई। यानी ग्लोबल हंगर इंडेक्स कहतें हैं। इस सूचाकान में लिए गए आंकड़े २००० से २००५ की अवधि के हैं। इस सूचकांक में भूख को तीन तरीकों से मापा गया हैं। लोगों में कैलोरी की न्यूनता,बच्चों में कुपोषण की कमीं , और बच्चों की मृत्यु दर । जिसका मुख्या कारण कुपोषण है। जी.एच.आई.२००७ के आधार पर ११८ विकासशील देशों में भारत को 95vaan स्थान प्राप्त हुआ है। इसमें भारत का भूख २५.०३ हैं। जब कि चीन का सूचकांक ८.३७ हैं। और सूची में वह ४७वेन पायदान पर हैं। इंडेक्स के अनुसार भारत कि विकास दर के अनुपात में जी.एच.आई.में सुधार नहीं हो पाना चिंता का विषय हैं।

इसके बाद सरकार बच्चों को लुभाने के लिए जो मिड डे मील शुरू की हैं। उसमें कितनी अनियमितताएं रहती हैं। इसे सरकरी थाली बता रही हैं। अब क्या कहा जाये कि सरकार को कुपोषण हैं या फिर थाली में कुपोषण हैं।

Tuesday, January 5, 2010

अर्थव्यवस्था की कराहती हकीकत का पाला

सकल घरेलू उत्पाद बढ़ने से देश का विकास हो जाएगा। ऐसा सोचना या समझना ग़लत हैं। बचपन भले ही भूखा रहे,नौजवान भले ही निराश हों,किसान आत्महत्या कर लें पर सकल घरेलू उत्पाद बढ़ जता हैं तो हम यह कहतें नहीं थकते किहम विकास के रास्ते पर शानदार तरीके से आगे चल रहे हैं। भारत आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहा हैं। सपनों की दुनिया और हकीकत में फर्क हैं। भारत में २० से २५ फीसदी आबादी भूखी या कहना चाहिए कि वह कुपोषण का शिकार हैं। बाज़ार में खाद्यान्न उपलब्ध हैं। पर क्रियशक्ति नहीं हैं। यदि लोगों के पास पर्याप्त खाद्य पदार्थ खरीदने के लिए पैसे नहीं है तो भूखे रहने के सिवाय उनके पास कोई चारा नहीं हैं। गरीबी भूख का सबसे बड़ा कारण हैं। सामान्य कुपोषण की दृष्टि से भारत की स्थिति अफ्रीकी देशों से भी बदतर हैं। अफ्रीका में बार बार अकाल पड़ने के बावजूद भी वहाँ का पोषण स्तरभारत की तुलना में अच्छा है। देश में ५० फीसदी वयस्क महिलाएं रक्त अल्पता से पीड़ित हैं। माताओं में कुपोशन, शिशुओं का वजन अपेक्षा से कम होना एवं जीवन के बाद के दिनों में रोगों के होने की दृष्टि से भारत सबसे ख़राब रिकार्ड वाले देशों में गिना जाता हैं। कम आय, बढाती कीमतें,ख़राब स्वास्थ्य सेवाएं, और बुनियादी शिक्षा की उपेक्षा आदि ने भारत में भूख और कुपोशन को बढाया हैं। झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले, शहर के कर्मचारी,अंशकालिक मजदूर ग्रामीण और कृषि श्रमिक , ग्रामीण क्षेत्र के शिल्पी इन सबकी ज़िन्दगी बदतर होती चली गयी हैं। इस देश में मुठ्ठी भर लोग मालामाल होकर अमीरी के शिखर पर भले ही पहुँच गए हों। पर आम आदमी बदहाल ज़िन्दगी जीने को मजबूर हैं। सही बात तो ये हैं कि केवल २० फीसदी लोग ही सबकुछ लुटे जा रहे हैं। और ८० फीसदी के पास कुछ भी नहीं हैं। जमीनी सच्चाइयां शब्दों के मायाजाल से कहीं अलग हैं।
जीडीपी से आगे हमें सोचना होगा। क्योंकि जीडीपी का आकलन करते समय बुनियादी स्वास्थ्य, बुनियादी, शिक्षा ,साफ़ पीने का पानी औसत आयु,मात्र-शिशु जीवन दर जैसे विषयों पर ध्यान नहीं दिया जाता। देश की प्रगति को आर्थिक आंकड़ों से नापा जाता हैं। जीडीपी के आंकलन में इस तथ्य की पूरी उपेक्षा की जाती हैं कि वहाँ के लोग वास्तव में कितने शिक्षित हैं, स्वास्थ्य, सुखी और संतुष्ट हैं। हमें यह समझना होगा कि ज़िन्दगी में आर्थिक विकास में नहीं हो सकता। जीडीपी हमारे देश की बढ़ रही हैं पर साथ ही गरीबी रेखा से नीचे जीवन निरवाह करने वालों की संख्या भी प्रतिवर्ष बढ़ रही हैं। काम पाने के लिए आतुर करोड़ों पढ़े लिखे नौजवान बेकार होकर पड़े हैं। अमीर और गरीब का अन्तर इतना बढ़ता जा रहा हैं कि उसे देखकर मन में कम्पन शुरू हो जाता हैं। सुखी जीवन जीने के बजाय गर्त की तरफ बढ़ रहे हैं. सामाजिक जीवन में नैतिकता मानो ख़त्म हो चुकी हैं. जीडीपी के धर्म दर्शन के बजाय हमें यह देखना चाहिए की वहां के लोग वास्तव में कितने शिक्षित , स्वास्थ्य,सुखी और संतुष्ट हैं. समय आया गया हैं की हम जीडीपी के बजे देखें की आम आदमी की हैसियत में बढ़ोत्तरी हुयी या नहीं.