Tuesday, October 9, 2012

भारतीय बैंकिंग

भारतीय बैंकिंग


भारत में आधुनिक बैंक का प्रादुर्भाव सौ साल से कुछ पहले हुआ । ब्रिटिश शासन में सबसे पहले जिन संस्थाओं ने बैंकिंग कार्य किये थे, वे एजेंसी हाऊस थे । जिन्होंने कारोबारी काम के अलावा बैंक का भी काम करते थे । इसमें तीन मुख्य प्रेसीडेंसी बैंक थे, जो बैंकिंग संकट काल में 1919 में इंपीरियल बैंक में मिला दिये गये ।

भारत में पहला बैंक अवध कॉमर्शियल बैंक था, जिसकी स्थापना 1818 में की गयी थी । उसके बाद 1894 में पंजाब नेशनल बैंक की स्थापना हुई । 1906 में शुरू हुए स्वदेशी आंदोलन ने बहुत से वाणिज्यिक बैंकों की स्थापना को प्रोत्साहन दिया । सन 1913-17 के बैंकिंग संकट काल और 1949 में समाप्त होने वाले दशक में विभिन्न राज्यों के 588 बैंकों की असफलता ने वाणिज्यिक बैंकों के नियम और नियंत्रण की आवश्यकता पर बल दिया । जनवरी 1946 में बैंकिंग कंपनी अधिनियम पारित हुआ, जो बाद में बैंकिंग नियमन अधिनियम के नाम से संसोधित हुआ । 1955 में भारतीय स्टेट बैंक की स्थापना की गयी । उसके बाद 1960 में 8 क्षेत्रीय बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर उन्हें स्टेट बैंक के सहायक बैंक का दर्जा दिया गया ।


भारत सरकार ने सामाजिक दायित्व और उद्देश्यों की पूर्ति के लिए 14 बड़े व्यावसायिक बैंकों के प्रबंधन को आर्थिक विकास की मुख्य धारा में लाने की दृष्टि से 19 जुलाई 1969 को उनका राष्ट्रीय करण कर दिया गया । सितंबर 1993 में न्यू बैंक ऑफ इंडिया को पंजाब नेशनल बैंक में मिला दिया गया । इस समय देश में देश में सार्वजनिक क्षेत्र या राष्ट्रीय बैंकों की संख्या 27 है।


भारतीय रिजर्व बैंक – यह देश का केंद्रीय बैंक है। इसकी स्थापना ‘ रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया अधिनियम, 1934’ के अंतर्गत 1 अप्रैल 1935 को की गयी । उसके बाद 1 जनवरी 1949 को इसका राष्ट्रीय करण किया गया । एक रुपये के सिक्के/नोटों और छोटे सिक्कों को छोड़कर भारत में मुद्रा जारी करने का एकमात्र अधिकार रिजर्व बैंक को प्राप्त है । इसके प्रमुख गर्वनर होते हैं जिनके जरिये सरकार पूरे अर्थतंत्र पर नियंत्रण रखती है। आरबीआई का संचालन सेंट्रल बोर्ड के जरिये होता है जिनकी नियुक्ति भारत सरकार चार साल के लिए करती है । सेंट्रल बोर्ड में गर्वनर और डिप्टी गवर्नर समेत 20 सदस्य होते हैं ।


मौद्रिक नीति या क्रेडिट पॉलिसी – एच. जी. जॉनसन के अनुसार मौद्रिक नीति वह नियंत्रण नीति है, जिसके द्वारा केंद्रीय बैंक सामान्य आर्थिक नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से मुद्रा की पूर्ति पर नियंत्रण रखता है। साल में दो बार क्रेडिट पॉलिसी की घोषणा रिजर्व बैंक करता है। लेकिन इस दौरान जरूरत के मुताबिक दो से कई बार भी बदलाव हो रहे हैं।


रेपो रेट – यह वह दर होती है जिस जिस पर रिजर्व बैंक दूसरे बैंकों को कर्ज देता है। अगर रेपो रेट बढ़ाया जाता है तो साफ है कि बैंकों को रिजर्व बैंक से महंगी दर पर कर्ज मिलेगा। इस तरह कर्ज महंगे हो जायेंगे ।


रिवर्स रेपो रेट – वह दर जिस पर बैंक रिजर्व बैंक को कर्ज देते हैं । अक्सर बैंक अपना सरलतम कैश रिजर्व बैंक को देना पसंद करते हैं क्योंकि एक तो उन्हें ब्याज मिलता है और ऊपर से पैसा एकदम सुरक्षित रहता है।


नकद आरक्षित अनुपात (कैश रिजर्व रेशियो CRR) - बैंकों को अपनी जमा का जो हिस्सा केंद्रीय बैंक के पास रखना होता है। उसे नकद आरक्षित अनुपात कहते हैं। अगर सीआरआर बढ़ाया जाता है तो इसका मतलब यह है कि बैंकों को ज्यादा बड़ी राशि रिजर्व बैंक के पास रखनी होगी । यानी बाजार में पूँजी प्रवाह कम हो जायेगा ।

सर्वाधिक तरलता अनुपात (एसएलआर) – एसएलआर के तहत बैंकों को अपने पास की जमा राशि का एक निश्चित हिस्सा अनिवार्य रूप से सरकारी प्रतिभूतियों में लगाना होता है।