Friday, October 11, 2013

रामसेतु

रामसेतु जिसे अंग्रेजी में एडम्स ब्रिज भी कहा जाता है, भारत (तमिलनाडु) के दक्षिण-पूर्वी तट के किनारे रामेश्वरम द्वीप तथा श्रीलंका के उत्तर-पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के मध्य बनी एक श्रृंखला है। भौगोलिक प्रमाणों से पता चलता है कि किसी समय यह सेतु भारत तथा श्रीलंका को भू-मार्ग से आपस में जोड़ता था। यह पुल करीब 18 मील (30 किलोमीटर) लंबा है।

राम सेतु पर संपूर्ण वैज्ञानिक और पौराणिक जानकारी

रामसेतु या प्राकृतिक सेतु! 

रामसेतु विवाद का घटनाक्रम : भारत के दक्षिण में धनुषकोटि तथा श्रीलंका के उत्तर पश्चिम में पम्बन के मध्य समुद्र में 48 किमी चौड़ी पट्टी के रूप में उभरे एक भू-भाग के उपग्रह से खींचे गए चित्रों को अमेरिकी अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान (नासा) ने जब 1993 में दुनिया भर में जारी किया तो भारत में इसे लेकर राजनीतिक वाद-विवाद का जन्म हो गया था। इस पुल जैसे भू-भाग को राम का पुल या रामसेतु कहा जाने लगा। ईसाई या पश्चिमी लोग इसे एडम ब्रिज कहने लगे हैं। रामसेतु का चित्र नासा ने 14 दिसम्बर 1966 को जेमिनी-11 से अंतरिक्ष से प्राप्त किया था। इसके 22 साल बाद आई.एस.एस 1 ए ने तमिलनाडु तट पर स्थित रामेश्वरम और जाफना द्वीपों के बीच समुद्र के भीतर भूमि-भाग का पता लगाया और उसका चित्र लिया। इससे अमेरिकी उपग्रह के चित्र की पुष्टि हुई। वैज्ञानिकों में इस ब्रिज को लेकर विवाद है। कुछ वैज्ञानिक इसे प्राकृतिक ब्रिज मानते हैं तो कुछ इसे मानव निर्मित मानते हैं।

क्या है रामसेतु : नासा और भारतीय सेटेलाइट से लिए गए चित्रों में धनुषकोडि से जाफना तक जो एक पतली-सी द्वीपों की रेखा दिखती है, उसे ही आज रामसेतु माना जाता है।भारत के दक्षिणपूर्व में रामेश्वरम और श्रीलंका के पूर्वोत्तर में मन्नार द्वीप के बीच उथली चट्टानों की एक चेन है। समुद्र में इन चट्टानों की गहराई सिर्फ 3 फुट से लेकर 30 फुट के बीच है। इसे भारत में रामसेतु व दुनिया में एडम्स ब्रिज के नाम से जाना जाता है। इस पुल की लंबाई लगभग 48 किमी है। यह ढाँचा मन्नार की खाड़ी और पाक जलडमरू मध्य को एक दूसरे से अलग करता है। इस इलाके में समुद्र बेहद उथला है।कहा जाता है कि 15वीं शताब्दी तक इस पुल पर चलकर रामेश्वरम से मन्नार द्वीप तक जाया जा सकता था, लेकिन तूफानों ने यहाँ समुद्र को कुछ गहरा कर दिया। 1480 ईस्वी सन् में यह चक्रवात के कारण टूट गया और समुद्र का जल स्तर बढ़ने के कारण यह डूब गया।दूसरी और पुल की प्राचीनता पर शोधकर्ता एकमत नहीं है। कुछ इसे 3500 साल पुराना पुराना बताते हैं तो कछ इसे आज से 7000 हजार वर्ष पुराना बताते हैं। कुछ का मानना है कि यह 17 लाख वर्ष पूराना है।क्या है सेतु समुद्रम परियोजना: 2005 में भारत सरकार ने सेतुसमुद्रम परियोजना का ऐलान किया गया। भारत सरकार सेतु समुद्रम परियोजना के तहत तमिलनाडु को श्रीलंका से जोड़ने की योजना पर काम कर रही है। इससे व्यापारिक फायदा उठाने की बात कही जा रही है। इसके तहत रामसेतु के कुछ इलाके को गहरा कर समुद्री जहाजों के लायक बनाया जाएगा। इसके लिए सेतु की चट्टानों को तोड़ना जरूरी है। इस परियोजना से रामेश्वरम देश का सबसे बड़ा शिपिंग हार्बर बन जाएगा। तूतिकोरन हार्बर एक नोडल पोर्ट में तब्दील हो जाएगा और तमिलनाडु के कोस्टल इलाकों में कम से कम 13 छोटे एयरपोर्ट बन जाएँगे।
माना जा रहा है कि सेतु समुद्रम परियोजना पूरी होने के बाद सारे अंतरराष्ट्रीय जहाज कोलंबो बंदरगाह का लंबा मार्ग छोड़कर इसी नहर से गुजरेंगें, अनुमान है कि 2000 या इससे अधिक जलपोत प्रतिवर्ष इस नहर का उपयोग करेंगे। मार्ग छोटा होने से सफर का समय और लंबाई तो छोटी होगी ही, संभावना है कि जलपोतों का 22 हजार करोड़ का तेल बचेगा। 19वें वर्ष तक परियोजना 5000 करोड़ से अधिक का व्यवसाय करने लगेगी जबकि इसके निर्माण में 2000 करोड़ की राशि खर्च होने का अनुमान है।

परियोजना से नुकसान : रामसेतु को तोड़े जाने से ऐसी संभावना व्यक्त की जा रही है कि अगली सुनामी से केरल में तबाही का जो मंजर होगा उससे बचाना मुश्किल हो जाएगा। हजारों मछुआरे बेरोजगार हो जाएँगे।इस क्षेत्र में मिलने वाले दुर्लभ शंख व शिप जिनसे 150 करोड़ रुपए की वार्षिक आय होती है, से लोगों को वंचित होना पड़ेगा। जल जीवों की कई दुर्लभ प्रजातियाँ नष्ट हो जाएँगी। भारत के पास यूरेनियम के सर्वश्रेष्ठ विकल्प थोरियम का विश्व में सबसे बड़ा भंडार है। यदि रामसेतु को तोड़ दिया जाता है तो भारत को थोरियम के इस अमूल्य भंडार से हाथ धोना पड़ेगा।

सेतु समुद्रम पर विवाद : भगवान राम ने जहाँ धनुष मारा था उस स्थान को 'धनुषकोटि' कहते हैं। राम ने अपनी सेना के साथ लंका पर चढ़ाई करने के लिए उक्त स्थान से समुद्र में एक ब्रिज बनाया था इसका उल्लेख 'वाल्मिकी रामायण' में मिलता है। केन्द्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल किए गए एक हलफनामें कहा था कि रामसेतु को खुद भगवान राम ने अपने एक जादुई बाण से तोड़ दिया था, इसके सुबूत के तौर पर सरकार ने 'कंबन रामायण' और 'पद्मपुराण' को पेश किया। सरकार ने रामसेतु के वर्तमान हिस्से के बारे में कहा कि यह हिस्सा मानव निर्मित न होकर भौगोलिक रूप से प्रकृति द्वारा निर्मित है। इसमें रामसेतु नाम की कोई चीज नहीं है।

विवाद का कारण : इससे पूर्व जब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने सितंबर 2007 में उच्चतम न्यायालय में दाखिल अपने हलफनामें में रामायण में उल्‍लेखित पौराणिक चरित्रों के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिए थे, जिसे हिंदू भावनाओं को ठेस पहुँचाना माना गया। एएसआई के हलफनामें में उसके निदेशक (स्मारक) सी. दोरजी ने कहा था कि राहत की माँग कर रहे याचिकाकर्ता मूल रूप से वाल्मीकि रामायण, तुलसीदास की रचित राम चरित्र मानस और पौराणिक ग्रंथों पर विश्वास कर रहे हैं, जो प्राचीन भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है, लेकिन इन्हें ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं कहा जा सकता और उनमें वर्णित चरित्रों तथा घटनाओं को भी प्रामाणिक सिद्ध नहीं किया जा सकता। इससे पूर्व अहमदाबाद के मैरीन ऐंड वाटर रिसोर्सेज ग्रुप स्पेस एप्लिकेशन सेंटर ने कहा कि माना जाता है कि एडम्स ब्रिज या रामसेतु भगवान राम ने समुद्र पारकर श्रीलंका जाने के लिए बनाया था, जो मानव निर्मित नहीं है। सरकार और एएसआई ने भी इस मामले में इसी अध्ययन से मिलते जुलते विचार प्रकट किए हैं।  गौरतलब है कि रामसेतु की रक्षार्थ याचिकाकर्ता ने अदालत से रामसेतु को संरक्षित एवं प्राचीन स्मारक घोषित करने का अनुरोध किया था। यह निर्देश देने का भी अनुरोध किया गया था कि रामेश्वरम को श्रीलंका से जोड़ने वाले सेतु समुद्रम के निर्माण के समय रामसेतु को नष्ट न किया जाए। इस याचिका पर 14 सितम्बर 20007 को उच्चतम न्यायालय में सुनवाई हुई।

नया हलफनाम : विवाद के चलते भारत सरकार ने हलमनामें को वापस लेते हुए 29 फरवरी 2008 को उच्चतम न्यायालय में नया हलफनामा पेश कर कहा कि रामसेतु के मानव निर्मित अथवा प्राकृतिक बनावट सुनिश्चित करने के लिए कोई वैज्ञानिक विधि मौजूद नहीं है।
इस विवाद के चलते उधर तमिलनाडु की करुणानिधि सरकार ने रामसेतु को तोड़कर सेतु समुद्रम परियोजना को जल्द से जल्द पूरा करने के लिए कमर कस ली। हालाँकि उच्चतम न्यायालय ने अधिकारियों को निर्देश दिया है कि खनन गतिविधियों के दौरान रामसेतु को किसी प्रकार का नुकसान नहीं हो, लेकिन इस आदेश का पालन किस हद तक किया जा रहा है यह राज्य सरकार ही बता सकती है।

सरकारी दावे का खंडन : रामकथा के लेखक नरेंद्र कोहली के अनुसार, सरकार यह झूठ प्रचारित कर रही है कि राम ने लौटते हुए सेतु को तोड़ दिया था। जबकि रामायण के मुताबिक राम लंका से वायुमार्ग से लौटे थे, तो सोचे वह पुल कैसे तुड़वा सकते थे। रामायण में सेतु निर्माण का जितना जीवंत और विस्तृत वर्णन मिलता है, वह कल्पना नहीं हो सकता। यह सेतु कालांतर में समुद्री तूफानों आदि की चोटें खाकर टूट गया, मगर इसके अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता। लालबहादुर शास्त्री विद्यापीठ के लेक्चरर डॉ. राम सलाई द्विवेदी का कहना है कि वाल्मीकि रामायण के अलावा कालिदास ने 'रघुवंश' के तेरहवें सर्ग में राम के आकाश मार्ग से लौटने का वर्णन किया है। इस सर्ग में राम द्वारा सीता को रामसेतु के बारे में बताने का वर्णन है। इसलिए यह कहना गलत है कि राम ने लंका से लौटते हुए सेतु तोड़ दिया था। भारतीय नौ सेना की चिंता : सेतुसमुद्रम परियोजना को लेकर चल रही राजनीति के बीच कोस्ट गार्ड के डायरेक्टर जनरल आर.एफ. कॉन्ट्रैक्टर ने कहा था कि यह परियोजना देश की सुरक्षा के लिए एक खतरा साबित हो सकती है। वाइस एडमिरल कॉन्ट्रैक्टर ने कहा था कि इसकी पूरी संभावना है कि इस चैनल का इस्तेमाल आतंकवादी कर सकते हैं। वाइस एडमिरल कॉन्ट्रैक्टर का इशारा श्रीलांकाई तमिल उग्रवादियों तथा अन्य आतंकवादियों की ओर है, जो इसका इस्तेमाल भारत में घुसने के लिए कर सकते हैं।

धर्म ग्रंथों में जिक्र : वाल्मीकि रामायण कहता है कि जब श्रीराम ने सीता को लंकापति रावण से छुड़ाने के लिए लंका द्वीप पर चढ़ाई की, तो उस वक्त उन्होंने सभी देवताओं का आह्‍वान किया और युद्ध में विजय के लिए आशीर्वाद माँगा था। इनमें समुद्र के देवता वरुण भी थे। वरुण से उन्होंने समुद्र पार जाने के लिए रास्ता माँगा था। जब वरुण ने उनकी प्रार्थना नहीं सुनी तो उन्होंने समुद्र को सुखाने के लिए धनुष उठाया।
डरे हुए वरुण ने क्षमायाचना करते हुए उन्हें बताया कि श्रीराम की सेना में मौजूद नल-नील नाम के वानर जिस पत्थर पर उनका नाम लिखकर समुद्र में डाल देंगे, वह तैर जाएगा और इस तरह श्रीराम की सेना समुद्र पर पुल बनाकर उसे पार कर सकेगी। इसके बाद श्रीराम की सेना ने लंका के रास्ते में पुल बनाया और लंका पर हमला कर विजय हासिल की।

नल सेतु : वाल्मीक रामायण में वर्णन मिलता है कि पुल लगभग पाँच दिनों में बन गया जिसकी लम्बाई सौ योजन और चौड़ाई दस योजन थी। रामायण में इस पुल को नल सेतुकी संज्ञा दी गई है। नल के निरीक्षण में वानरों ने बहुत प्रयत्न पूर्वक इस सेतु का निर्माण किया था।- (वाल्मीक रामायण-6/22/76)।
वाल्मीक रामायण में कई प्रमाण हैं कि सेतु बनाने में उच्च तकनीक प्रयोग किया गया था। कुछ वानर बड़े-बड़े पर्वतों को यन्त्रों के द्वारा समुद्रतट पर ले आए ते। कुछ वानर सौ योजन लम्बा सूत पकड़े हुए थे, अर्थात पुल का निर्माण सूत से सीध में हो रहा था।- (वाल्मीक रामायण- 6/22/62) गीताप्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर में वर्णन है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम नल सेतुरखा। इसका कारण था कि लंका तक पहुँचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा बताई गई तकनीक से संपन्न हुआ था। महाभारत में भी राम के नल सेतु का जिक्र आया है। अंन्य ग्रंथों में कालीदास की रघुवंश में सेतु का वर्णन है। स्कंद पुराण (तृतीय, 1.2.1-114), विष्णु पुराण (चतुर्थ, 4.40-49), अग्नि पुराण (पंचम-एकादश) और ब्रह्म पुराण (138.1-40) में भी श्रीराम के सेतु का जिक्र किया गया है।

Wednesday, October 9, 2013

झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई

रानी लक्ष्मीबाई 

स्त्री जो उठी तो सभी को चकित कर दिया 

लक्ष्मी बाई भारतीय नव संस्कृति की सबसे पूज्यनीय तथा माननीय नारी हैं। बच्चे तथा बृद्ध सभी उनको आदर्श नारी के रूप में देखते हैं। आईए जानते हैं उनका वास्तविक नाम क्या था।

गंगा नदी 
उनका वास्तविक नाम मणिकर्निक था। ये जानना अधिक विस्मयकारी है कि ये नाम गंगा नदी का है। बनारस जिसका वास्तविक नाम वाराणसी है, वहां पर गंगा नदी को मणिकर्निका कहते हैं। संस्कृत भाषा में एक श्लोक भी है: वाराणसी पुरे मणिकर्निका तीरे।

घर का नाम 
उनका घर का नाम या यूँ कहें कि कच्चा नाम मनु था जो कि उनके वास्तविक नाम से स्वै-स्वभाविक है।

छबीली 
उनका एक दूसरा घरेलू नाम था जो उनके पिता के राजा ने रखा था। वो नाम था छबीली जिसका अर्थ होता है चञ्चल। ये नाम बिठूर के पेश्वा बाजीराव ने दिया था जो कि मणिकर्निका को अपनी पुत्री के जैसा मानते थे।

जन्म 
रानी लक्ष्मीबाई का जन्म वाराणसी जनपद के भदैनी नामक नगर में हुआ था। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई तथा पिता का नाम मोरोपंत तांबे था। मोरोपंत एक मराठी थे और मराठा बाजीराव की सेवा में थे। माता भागीरथीबाई एक सुसंस्कृत, बुद्धिमान एवं धार्मिक महिला थीं।

अध्ययन 
मनु जब चार वर्ष की थीं तब उनकी माँ की मृत्यु हो गयी। चूँकि घर में मनु की देखभाल के लिए कोई नहीं था इसलिए पिता मनु को अपने साथ बाजीराव के दरबार में ले गए जहाँ चंचल एवं सुन्दर मनु ने सबका मन मोह लिया। मनु ने बचपन में शास्त्रों की शिक्षा के साथ शस्त्रों की शिक्षा भी ली।

विवाह 
सन १८४२ में इनका विवाह झाँसी के मराठा शासित राजा गंगाधर राव निवालकर के साथ हुआ, और ये झाँसी की रानी बनीं। विवाह के उपरान्त इनका नाम लक्ष्मीबाई रखा गया।

माता बनना 
सन 1851 में रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया पर चार महीने की आयु में ही उसकी मृत्यु हो गयी। सन 1853 में राजा गंगाधर राव का बहुत अधिक स्वास्थ्य बिगड़ने पर उन्हें दत्तक पुत्र लेने की सलाह दी गयी।

पति का देहान्त 
 पुत्र गोद लेने के बाद राजा गंगाधर राव की मृत्यु 21 नवंबर 1853 में हो गयी। दत्तक पुत्र का नाम दामोदर राव रखा गया।

ब्रिटिश राज के साथ तनाव 
डलहौजी की राज्य हड़प नीति के अन्तर्गत ब्रितानी राज्य ने दामोदर राव जो उस समय बालक ही थे, को झाँसी राज्य का उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया, तथा झाँसी राज्य को ब्रितानी राज्य में मिलाने का निश्चय कर लिया।

याचना 
तब रानी लक्ष्मीबाई ने ब्रितानी वकील जान लैंग की सलाह ली और लंदन की अदालत में मुकदमा दायर किया। यद्यपि मुकदमे में बहुत बहस हुई परन्तु इसे खारिज कर दिया गया। ब्रितानी अधिकारियों ने राज्य का खजाना ज़ब्त कर लिया और उनके पति के ऋण को रानी के सालाना खर्च में से काट लिया गया। इसके साथ ही रानी को झाँसी के दुर्ग को छोड़ कर झाँसी के रानीमहल में जाना पड़ा। पर रानी लक्ष्मीबाई ने हर मूल्य पर झाँसी राज्य की रक्षा करने का निश्चय कर लिया था।

उनके घोड़े 
लक्षमी बाई को घुड़स्वारी में अधिक रुची थी। उनके प्रिय घोड़ों के नाम थे सारङ्गी, पवन तथा बादल। ये माना जाता है कि वो बादल पर बैठ कर ही दुर्ग से निकली थीं।

झाँसी का युद्ध 
झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया।

पड़ोसीयों का आक्रमण 
1857 के सितंबर तथा अक्टूबर माह में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। 1857 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लडाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर कब्जा कर लिया। परन्तु रानी, दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भागने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुंची और तात्या टोपे से मिली।

तात्या टोपे 
तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर कब्जा कर लिया. 17 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा-की-सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते - लड़ते रानी लक्ष्मीबाई की मौत हो गई. लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी "सुंदरता, चालाकी और दृढ़ता के लिए उल्लेखनीय" और "विद्रोही नेताओं में सबसे खतरनाक" थीं।

सुभद्रा कुमारी चौहान 

उनकी कविता ने इस वीराङ्गणा की गाथा को सर्वदा अमर कर दिया।
खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी। 
रानी बढ़ी कालपी आयी कर सौ मील निरंतर पार.....
घोड़ा थककर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार....
यमुना तट पर अंग्रेजों ने फिर खाई रानी से हार....