Tuesday, January 29, 2019

कांग्रेस का गरीबी हटाओ से न्यूनतम आय तक का सफर


कांग्रेस का गरीबी हटाओ से न्यूनतम आय तक का सफर

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के युवराज ने अपनी दादी को याद करते हुए गरीबी हटाओ का संकल्प लिया। कांग्रेस अध्यक्ष जी पुराने दिनों को याद करते हुए कहते हैं कि 1971 में दादी इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था। अब यदि कांग्रेस 2019 में सत्ता में आई तो सभी गरीबों को न्यूतम आय दी जायेगी।
अब जरूरत है इस न्यूनतम आय का गहराई से विश्लेषण करने की। तो सबसे पहले गरीबी हटाओ के समय देश से कितनी गरीबी हटी यह एक अलग शोध का विषय बन गया। हाँ गरीब जरूर हट गये। पिछले दस सालों में यूपीए के शासन काल में देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों को दिये जाने की वकालत प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुद की थी। अब संसाधनों पर पहला हक गरीबों को दिये जाने की बात कही जा रही है। अगर संसाधनों पर पहला हक गरीबों का होता तो आज युवराज को ये दिन न देखने पड़ते।
दूसरी सबसे बड़ी महत्वपूर्ण बात ये है कि, न्यूनतम आय के विषय में यूपीए के शासन काल में सबसे पहले लंदन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर गाय स्टेंडिंग ने सुझाव दिया था। उन्होंने सुझाव दिया था यूनिवर्सल बेसिक इनकम का। इसके तहत हर गरीब को एक तयशुदा रकम दी जाती है। यूपीए के शासन के दौरान भी प्रफेसर गाय स्टैंडिंग ने सरकार को यह स्कीम लागू करने का सुझाव दिया था। प्रफेसर स्टैंडिंग के मुताबिक तब सरकार इसे लागू करने की हिम्मत नहीं कर सकी थी। यूनिवर्सल बेसिक इनकम यानी यूबीआई ही एमआईजी यानी मिनिमम इनकम गारंटी या न्यूनतम आय है।
यक्ष, अब प्रश्न यहां पर यह है कि जब इस योजना पर काम करने के लिए यूपीए के शासन काल में सुझाव आ गये थे। तब अर्थशास्त्री विशेषज्ञ प्रधानमंत्री देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों के लिए माला जप रहे थे। यदि उसी समय इसे लागू करने पर विचार करते तो शायद आज इस पर बहस नहीं होती।  
  1 फरवरी 2019 को एनडीए सरकार के इस कार्यकाल का आखिरी बजट पेश होगा। चर्चा है कि इस बजट में सरकार यूनिवर्सल बेसिक इनकम (UBI) का ऐलान कर सकती है। हालांकि इस सुविधा के बदले में सरकार नागरिकों को दी जाने वाली सब्सिडीज को बंद कर सकती है। पूर्व वित्तीय सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने साल 2016-17 के आर्थिक सर्वे में इस योजाना को लागू करने की सिफारिश की थी।

शिवराज सरकार के समय मध्य प्रदेश की एक पंचायत में पायलट प्रॉजेक्ट के तौर पर ऐसी स्कीम को लागू किया गया था, जिसके बेहद सकारात्मक नतीजे आए थे। इंदौर के 8 गांवों की 6,000 की आबादी के बीच 2010 से 2016 के बीच इस स्कीम का प्रयोग किया। इसमें पुरुषों और महिलाओं को 500 और बच्चों को हर महीने 150 रुपये दिए गए। इन 5 सालों में इनमें अधिकतर ने इस स्कीम का लाभ मिलने के बाद अपनी आय बढ़ा ली। हाल ही में सिक्किम ने भी इस योजना को लागू करने का प्रस्ताव पेश किया है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों ही रुझान वाले अर्थशास्त्री यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम का समर्थन करते रहे हैं। भारत जैसे आय में सबसे ज्यादा असमानता वाले देशों के लिए यह स्कीम काफी मददगार साबित हो सकती है।

राहुल गांधी का एमआईजी यानी मिनिमम इनकम गारंटी या न्यूनतम आय कोई नया विचार नहीं है। मोदी सरकार ने आते ही इस पर काम करना शुरु कर दिया था। जिसे लागू करने के समय कांग्रेस के युवराज ने इसे लपक लिया। लेकिन उन्हें नहीं पता कि ये कड़ाही से उतर चुकी है। 24 घंटे अंग्रेजी में उल्टी, पल्टी करने वाले कांग्रेसी नेता भी इस योजना को हिंदी में लिख कर समझा रहे हैं। लेकिन यूबीआई योजना कांग्रेसियों को सत्ता से बाहर जाने के बाद समझ में आई। खैर कुछ भी हो देर आये दुरुस्त आये। योजना तो समझ में आई।

Saturday, June 23, 2018

ट्रंप की ‘टंप’ चाल से, ‘अमेरिकी फर्स्ट नीति’ की को बढ़ावा


ट्रंप की टंप चाल से, अमेरिकी फर्स्ट नीति को बढ़ावा

ताश के पत्ते खेलते समय स्थानीय भाषा में एक शब्द इस्तेमाल होता है टंप चाल, इस टंप चाल का अर्थ यह है कि जब कोई भी टंप चाल के तहत किसी पत्ते का नाम ले लेता है, तो फिर उसी पत्ते के सहारे जीत तय करनी होती है। यानी वही टंप चाल पूरे खेल के दौरान ताश के पत्तों के रूप में फेंटा जाता है। इन दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप भी अमेरिकी नीतियों को ताश के पत्तों की तरह फेंट रहे हैं। मोदी सरकार के चुनावी नारों की तरह लुभावने नारे देकर राष्ट्रपति का चुनाव जीतने वाले ट्रंप ने पूरे विश्व में व्यापार युद्ध करने की लकीर खींच दी है। ये एक ऐसी लकीर है जिससे अमेरिकियों को भले ही चुनावी फायदा मिल जाये, लेकिन दीर्घकालीन तो नुकसान दायक ही सिद्ध होगा।

  दरअसल, अमेरिका ने भारत के स्टील पर 25 फीसदी और एल्यूमिनियम पर 10 फीसदी की इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ा दी थी। इससे भारत पर 24.1 करोड़ डॉलर का टैक्स बोझ बढ़ गया। भारत ने इसका जवाब देते हुए अमेरिका से आने वाले कई उत्पादों पर इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ा दी । इन उत्पादों में बंगाली चना, मसूर दाल और आर्टेमिया शामिल है। मटर और बंगाली चने पर टैक्स 60 फीसदी और मसूर दाल पर 30 फीसदी कर दिया गया है। जबकि आर्टेमिया पर टैक्स 15 फीसदी बढ़ गया है। अपने कदम को जायज ठहराते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा है कि अमेरिका ऐसे मुक्त व्यापार को मंजूरी नहीं देगा, जिसमें उसे भारी नुकसान उठाना पड़े। इन बयानों से पता चलता है कि इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ाने का निर्णय अमेरिकी फर्स्ट नीति का ही एक अंग है, जिसके जरिए ट्रंप अपने श्रम-सघन उद्योगों को मजबूती देते हुए दिखाना चाहते हैं। इससे भले ही अमेरिकी स्टील और एल्यूमिनियम उद्योग को थोड़ा गति मिल जाये, लेकिन चीन और भारत के जवाबी कार्रवाई से अमेरिका को नुकसान उठाना पड़ सकता है। कुल मिलाकर यह व्यापार युद्ध काम धंधे पर बुरा असर ही डालेगा। ट्रंप की मुश्किल सबसे बड़ी यह है कि वो दूरगामी सोच नहीं पैदा कर पाते। अभी उनकी नज़र तीन महीने बाद अमेरिका में होने वाले संसदीय चुनावों पर है, जिन्हें वो अपने नारेबाज़ी के दम पर जीतना चाहते हैं। ग्लोबलाइजेशन के इस दौर में आज विश्व जिस शिखर पर पहुंचा है, उससे पीछे आने में पूरी दुनिया को भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। व्यापारिक मामलों में सभी देशों को एक दूसरे से तालमेल बिठाकर काम करना होता है। भारत ने इस तालमेल में कोई कसर नहीं छोड़ी। हाल ही में एक ताज़ा के खबर के मुताबिक भारत ने अमेरिका से व्यापार युद्ध समाप्त करने के लिए 1,000 नागरिक विमान खरीदने का प्रस्ताव रखा है। भारत ने अगले 7 से 8 साल में विमान खरीदने की योजना बनाई है। इसके अलावा अमेरिका से तेल और गैस खरीद में भी इज़ाफ़ा करने की बात की जा रही है। वाणिज्य मंत्री सुरेश प्रभु ने अमेरिकी समकक्ष के साथ मीटिंग में यह बात कही है। हालांकि भारत का कहना है कि जो भी इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ाई गई है वो सभी विश्व व्यापार संगठन के मिले अधिकार का प्रयोग है।

 इस व्यापार युद्ध की शुरुआत अमेरिका ने ही भारत से आयात होने वाले स्टील और एल्यूमिनिय पर की थी। अब ऐसे में सवाल यही उठता है कि आख़िर भारत ही हमेशा दरियादिली क्यों दिखाता है। अमेरिकी ने तो इंपोर्ट ड्यूटी बढ़ाकर अपने नागरिकों की हितों पर ध्यान दिया, लेकिन भारत ने टैक्स बढ़ाने के बाद व्यापार युद्ध को खत्म करने के लिए ग्रहक भी बन गया।  

                                                  

Tuesday, June 5, 2018

पर्यावरण दिवस पर पहला भाषण इंदिरा गांधी ने दिया


पर्यावरण दिवस पर पहला भाषण इंदिरा गांधी ने दिया

विश्व पर्यावरण दिवस पर दृढ़ संकल्प की जरूरत

        05 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। 1972 में संयुक्त राष्ट्र ने स्टॉक होम में पर्यावरण से संबंधित एक सम्मेलन का आयोजन किया और उसके बाद पर्यावरण मुद्दा बन गया। इस साल के पर्यावरण दिवस का वैश्विक मेजबान भारत है और प्लास्टिक प्रदूषण को हराएं इस साल का विषय रखा गया है। जिसके जरिए सभी देश एकजुट हो रहे हैं।
   डॉ. हर्षवर्धन, पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री और एरिक सोलहाइम, संयुक्त राष्ट्र उपमहासचिव और संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख, ने संयुक्त रूप से घोषणा की कि भारत विश्व पर्यावरण दिवस 5 जून 2018 को अंतर्राष्ट्रीय समारोह की मेजबानी करेगा। विश्व पर्यावरण 2018 का विषय प्लास्टिक प्रदूषण को हराएं, नामक विषय रखा गया है। सरकारों से, उद्योग जगत से, समुदायों और सभी लोगों से आग्रह करता है कि वे साथ मिलकर स्थाई विकल्प खोजें और एक बार उपयोग में आने वाले प्लास्टिक के उत्पादन और उपयोग को जल्द से जल्द रोकें। यह हमारे महासागरों को प्रदूषित कर रहा है। समुद्री जीवन को नष्ट कर रहा है और मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा बन गया है।
प्लास्टिक प्रदूषण
इस प्रदूषण को हम सरल शब्दों में ऐसे भी समझ सकते हैं कि जितनी देर में हार्दिक पंड्या एक ओवर फेंकते हैं, उतनी देर में चार ट्रक के बराबर प्लास्टिक का कचरा महासागर में बहा दिया जाता है।
हर साल पूरी दुनिया में 500 अरब प्लास्टिक बैगों का उपयोग किया जाता है।
हर साल कम से कम 8 मिलियन टन प्लास्टिक महासागरों में पहुंचता है, जो प्रति मिनट एक कूड़े से भरे ट्रक के बराबर है।
पिछले एक दशक के दौरान उत्पादित किये गए प्लास्टिक की मात्रा, पिछली एक शताब्दी के दौरान उत्पादित किये गए प्लास्टिक मात्रा से अधिक थी।
हमारे द्वारा प्रयोग किये जाने वाले प्लास्टिक में से 50 फीसदी प्लास्टिक का सिर्फ एक बार उपयोग होता है।
हर मिनट 10 लाख प्लास्टिक की बोतलें खरीदी जाती हैं।
हमारे द्वारा उत्पन्न किए गए कुल कचरे का 10 फीसदी योगदान प्लास्टिक का होता है।

भारत में जागरूकता :-
1972 में जब पहली बार विश्व पर्यावरण दिवस पर सम्मेलन आयोजित किया गया था तब 119 देशों ने भाग लिया था। पहली बार एक ही पृथ्वी का सिद्धांत मान्य किया गया। इसी सम्मेलन में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) का जन्म हुआ और 5  जून को पर्यावरण दिवस आयोजित करके नागरिकों को प्रदूषण की समस्या से अवगत कराने का निश्चय किया गया। इस गोष्ठी में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पर्यावरण की बिगड़ती स्थिति एवं उसका विश्व के भविष्य पर प्रभाव विषय पर व्याख्यान दिया था। पर्यावरण-सुरक्षा की दिशा में यह भारत का प्रारंभिक कदम था।
  ये उन दिनों की बात है जब पश्चिम के देश चिंतित थे कि विकास का कुल्हाड़ा उनके जंगल काट रहा है, विकास की पताकानुमा उद्योग की ऊंची चिमनियां, संपन्नता के वाहन, मोटर-गाड़ियां आदि उनके शहरों का वातावरण खराब कर रही हैं।
  देवता सरीखे उद्योगों का निकल रहा चरणामृत वास्तव में ऐसा गंदा और जहरीला पानी है जिसने उनकी सुंदर नदियों, नीली झीलों को काला-पीला बना दिया। हर साल यह बहस 5 जून को चरम पर पहुंच जाती है, क्योंकि यह दिन पर्यावरण के समारोहों के समापन और शुरुआत दोनों का होता है।

जो देश थोड़ा अपने आपको पिछड़ा मान रहे थे उन्होंने इस बहस में अपने को शामिल करते हुए कहा कि ठीक है तुम्हारी नदियां गंदी हो रही हैं तो तुम हमारे यहां चले आओ, हमारी नदियां अभी साफ हैं। उद्योग लगाओ और जितना हो सके गंदा करो, ब्राजील जैसे देशों ने सीना ठोंककर कहा कि हमें पर्यावरण नहीं, विकास चाहिए। भारत ने इसी तरह सीना ठोंक कर दावा तो नहीं किया लेकिन दरवाजे तो उसने भी खुद इसी अंदाज में खोले हैं कि गरीबी से निपटना है तो विकास चाहिए। मोदी सरकार के
इजी ऑफ डूइंग बिजनेस के नाम पर पर्यावरण को हाशिए पर रखकर धंधा चमकाया जा रहा है।
पर्यावरण की समस्या :-
पर्यावरण की समस्या को ठीक से समझने के लिए हमें प्राकृतिक साधनों के बंटवारे को, उसकी खपत को समझना होगा। सीएसई के निदेशक स्व. अनिल अग्रवाल ने इस बंटवारे का एक मोटा ढांचा बनाया था। करीब पांच प्रतिशत आबादी दुनिया के प्राकृतिक साधनों के साठ प्रतिशत पर कब्जा किए बैठी है। दस प्रतिशत आबादी के हाथ में पच्चीस प्रतिशत साधन हैं। लेकिन साठ प्रतिशत की फटी झोली में मुश्किल से पांच प्रतिशत साधन हैं।
    हालत ऐसी भी रहती तो एक बात थी लेकिन इधर पांच प्रतिशत हिस्से की आबादी पूरी थमी हुई है। साथ ही जिन साठ प्रतिशत प्राकृतिक संसाधनों पर आज उनका कब्जा है, वह लगातार बढ़ रहा है। दूसरे वर्ग की आबादी में बहुत कम बढ़ोतरी हुई है। तीसरे, पच्चीस प्रतिशत की आबादी में वृद्धि हो गई है और संसाधन उनके हाथ से निकल रहे हैं। इस तरह चौथे साठ प्रतिशत वाले वर्ग की आबादी तेजी से बढ़ चली है, परिणामतः उनके हाथ में बचे खुचे संसाधन तेजी से खत्म हो रहे हैं।

   यह चित्र केवल भारत का नहीं, पूरी दुनिया का है। आबादी का तीन-चौथाई हिस्सा बस किसी तरह जिंदा रहने की कोशिश में अपने आसपास के पर्यावरण को बुरी तरह नोच रहा है। दूसरी ओर पांच प्रतिशत की पर्यावरण विलासिता भोगने वाली आबादी ऐसे व्यापक और सघन दोहन में लगी है कि उसके लिए भौगोलिक सीमाओं का कोई मतलब नहीं है।
      कर्नाटक, मध्यप्रदेश और आंध्रप्रदेश में लगे कागज उद्योग ने पहले यहां के जंगल खाए, अब वे दूरदराज के जंगलों को खाते-खाते अंडमान निकोबार तक जा पहुंचे हैं। जो जितना ताकतवर है वह दूसरे के हिस्से का पर्यावरण उतनी ही तेजी से निगलता है। दिल्ली यमुना का पानी तो पीती है लेकिन कम पड़ जाए तो गंगा को भी निचोड़ लाती है।
दृढ़ संकल्प की जरूरत:-
    वैसो तो देश के 33 प्रतिशत हिस्से को वन से ढकना था लेकिन मुश्किल से 10 प्रतिशत वन बचे हैं। उद्योगों और बड़े-बड़े शहरों की गंदगी ने देश के 14 बड़ी नदियों के पानी को प्रदूषित कर दिया। सिकुड़ती जमीन ने जो दबाव बनाया है उसकी चपेट में चारागाह भी आए हैं। वन गए तो वन के बाशिंदे भी विदा होने लगे!

    बिगड़ते पर्यावरण की इस लंबी सूची के साथ ही साथ सामाजिक अन्यायों की एक समानांतर सूची भी बनती चली गई है। पर क्या कोई इन समस्याओं से लड़ पाएगा? बिगड़ता पर्यावरण संवारने के भारी भरकम दावों के बीच क्या हम एक छोटा-सा संकल्प ले सकते हैं कि इसे अब और नहीं बिगड़ने देंगे? ऐसा संकल्प पर्यावरण के भोग विलास वाले चौबीस घंटे की चिंता को चौबीसों घंटे की संस्कारित सजगता में बदल देगी। क्या पर्यावरण दिवस पर हम ऐसा संकल्प करने के लिए तैयार होंगे?


 

Sunday, July 9, 2017

क्या IPC का दूसरा रूप GST है ?

       क्या IPC का दूसरा रूप GST है ?


  अदालत एक ऐसी जगह है जहां हर कोई जाने से डरता है। एक बार आप अदालत के फंदे में फंस गए तो फिर गणेश परिक्रमा करते करते शायद ज़िंदगी गुजर जाये। जीएसटी के मामले में भी कुछ ऐसा ही नज़र आ रहा है। अदालत के दांव- पेंच में माहिर अरुण जेटली की पोटली से जैसे जैसे जीएसटी लिहाफ से बाहर निकल रहा है तो इसे समझने के बाद ऐसा लगता है कि इसे आईपीसी की लाठी से हांक दिया है। अंतर इतना है कि आईपीसी की व्याख्या करने के लिए काले कोट वाले मिल जायेंगे, लोकिन जीएसटी को समझने के लिए अभी तो सीए भी नहीं समझ पा रहे। तो फिर क्या जीएसटी भी आईपीसी की तर्ज पर नुकीले पेंच से फंसा हुआ है ?  जिस आईपीसी को जज और वकील अपने अनुसार उसको निचोड़ कर फैसला सुनाते हैं, कुछ ऐसा ही जीएसटी को निचोड़ने पर एक देश एक टैक्स के बजाय एक देश में अनगिनत टैक्स धरातल पर उतर रहे हैं। यानी कि 13 साल की घनघोर तपस्या के बाद जीएसटी का जो खाका मोदी सरकार ने खींचा है वो किसी इंडियन पीनल कोड की धारा से कम नहीं है। तो फिर क्या जीएसटी को समझने के लिए आईपीसी पढ़ना जरूरी है। क्योंकि प्रथम दृष्ट्या तो यही मालूम पड़ रहा है कि जीएसटी के निर्माता आईपीसी के माहिर खिलाड़ी है। ऐसे में अगर जीएसटी भी आईपीसी की छौंक-बघार से बना है तो फिर यह केवल चुनिंदा लोगों के हाथ में रह जायेगा। जीएसटी अन्य देशों की अपेक्षा भारत का जीएसटी किसी जलेबी से कम नहीं है। जिन देशों से जीएसटी की परिभाषा उधार ली गई है, इतना उलझा हुआ तो उन देशों ने भी नहीं बनाया तो फिर सवाल ये उठता है कि भारत के नौकरशाहों ने सफेदपोश के चक्कर में फंसकर घुंघराला जीएसटी किस आधार पर पैदा कर दिया। जिन देशों में जीएसटी लागू है, उनमें रूस में सबसे अधिक 18 फीसदी फिर चीन में 17 फीसदी है।  मैक्सिको में 16 फीसदी, न्यूजीलैंड, मॉरिसस और कनाड़ा में 15 फीसदी,  दक्षिण अफ्रीका में 14 फिलीपींस में 12 फीसदी है। जबकि सिंगापुर जहां से जीएसटी को उधार लिया गया है वहां सात फीसदी है। वहीं कुवैत, यूएई, बहरीन, में सबसे कम 5 फीसदी है।   

      तो फिर अब सवाल यह उठता है कि आखिर किस वर्ग को खुश करने के लिए इतना घुमावदार जीएसटी बनाया गया है? इस लच्छेदार जीएसटी से एक बात तो तय है कि छोटे और मझोले व्यापारियों के लिए व्यापार करना अब आसान नहीं रह जायेगा। जीएसटी का स्लैब भी किसी गगनचुंबी इमारत की स्लैब से कम नहीं है। जीएसटी का स्लैब ज़ीरो फीसदी, 3, 5, 12, 18 और 28 फीसदी का है। इस स्लैब के अलावा भूल चूक लेन-देन भी माफ नहीं है। यानी सावधानी हटी, कारावास की दीवार से कब सट गए पता ही नहीं चलेगा। छोटे स्तर के व्यापारी और मझोले किस्म के उद्योग धंधों पर खतरों के बादल मंडराने लगे हैं। आम व्यापारी जब तक इस मकजड़जाल को समझेगा। तब तक उद्योग जगत को बहुत हानि हो चुकी होगी। जीरो फीसदी नाम का एक अलग से स्लैब तैयार किया गया है। यही ज़ीरो फीसदी 2019 के बाद काल के गाल में जाने के लिए तैयार करेगा। दरअसल रोजमर्रा की चीजों को जीरो फीसदी टैक्स पर रखा गया है, यानी कि अभी तो उसमें टैक्स नहीं लगेगा, लेकिन भविष्य में चुपके से कब जीरो से कुछ पर्सेंट बढ़ा दिया जायेगा, ये किसी को भी पता नहीं चलेगा। यहां एक देश एक टैक्स के नाम पर कई तरह के टैक्स, सेस लगाए गए हैं, जिसमें व्यापारी वर्ग को हर प्रदेश के अनुसार रिटर्न फाइल करना होगा। छोटे और मझोले व्यापारी स्थाई रूप से सीए या एकाउंटेंट नहीं रखते, लेकिन अब उन्हें इन दोनों पदों पर हमेशा के लिए नियुक्त करना पड़ेगा। तो फिर क्या मोदी सरकार ने जो करोड़ों जॉब देने का वादा किया था, वो जीएसटी के जरिए पूरा किया जायेगा। यदि जीएसटी के जरिए रोजगार की खोज की जा रही हो, तो फिर सवाल ये उठता है कि कितने व्यापारी बचेंगे जो जीएसटी को देने लायक बचेंगे। ऐसे में यदि जीएसटी ही व्यापारी वर्ग को तबाह करने का औजार बन रहा हो तो फिर मोदी सरकार का कहना है कि उसके रगों में व्यापारी का खून बहता है, तो फिर यह कौन सा खून है जिससे व्यापारी सहमें हुए हैं। क्या विश्व व्यापार संगठन के आंतरिक दबाव की वजह से इतना पेचीदा जीएसटी बनाया गया है या फिर नौकरशाह ही खुद न समझ पा रहे हों कि जीएसटी की स्लैब की इमारत कैसे खड़ी की जाती है ?  अभी जीएसटी के सिस्टम को समझने के लिए बैंकिग सेक्टर पूरी तरीके से तैयार नहीं है। इस नए जीएसटी से बैंकिंग सेक्टर के ऊपर जो दबाव बढ़ेगा, वो अलग है। कुल मिलाकर जीएसटी को जितना जलेबी की तरह मीठा बताया जा रहा है, वैसा है नहीं, बल्कि टेढ़ा जरूर है। यह जीएसटी किसी आईपीसी की धारा से कम नहीं है। यानी भारतीय दंड संविदा और वस्तु एवं सेवा दर क्या एक समान हो गए। भारतीय दंड संविदा को तो सभी जानते है, लेकिन नतीजे क्या होगें ये किसी को पता नहीं रहता। तो फिर नतीजों का इस्तेमाल करने लिए क्या जीएसटी ही दूसरा आईपीसी बनकर साबित होगा। 

Monday, June 12, 2017

पाक बर्बादी की कगार पर....


पाक बर्बादी की कगार पर....

काश्मीर को पाने की "लालसा" पाकिस्तान का कहीं "अस्तित्व" ही ना खत्म कर दे। और यह काम भारत नहीं करेगा , बल्कि उसका परम हितैषी "मित्र" चीन करेगा। अब आपके मन में सवाल पैदा होगा.....................

आखिर क्यों? कैसे? और कब करेगा

तो पहले "क्यों" का जवाब है , ये "वजह" ...पाकिस्तान का भारत के प्रति जुनून के हद तक "नफरत" और काश्मीर नाम का "रक्त" जो उसकी शिराओं में बह रहा है ।
 मैंने अपनी पिछली पोस्ट में लिखा था कि पाकिस्तान अपने अस्तित्व के रहने तक वह काश्मीर को नहीं भूलेगा ...तो इसे पाने के लिए वह चीन की मदद ले रहा है जो भारत का भी शत्रु है। 
 चीन भी पाकिस्तान के इस "बीमार" मानसिकता को भलीभाँति समझ चुका है ,... यानी उसकी कमजोर नब्ज को पकड़ लिया है। आप जानते हैं कि चीन एक महाशक्ति बन चुका है । चीन की विस्तार वादी नीति अपने देश की सीमा को हर वक्त बढ़ते हुए देखना चाहती है। चीन जहाँ एक तरफ भारत के पूर्वोत्तर इलाकों पर गीद्ध की तरह निगाहें रखता है .. वहीं वो सालों पहले काश्मीर का हिस्सा (अक्साइचीन) हड़प लिया ....जबकि पाकिस्तान ने भी अपने कब्जे वाले हिस्से का कुछ भाग चीन को दान कर दिया। 

 अब उसकी निगाह पूरे पाकिस्तान को "हड़पने" पर लगी हुई है।............अब देखिए कि चीन कर क्या रहा है?....
यह तो सर्वविदित है कि पाकिस्तान के उपर आतंकवादी देश होने का "लेबल" चिपक गया है। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय उसे शक की निगाह से देखता है । वहाँ के शासन का बागडोर किसके हाथ में है कुछ पता नहीं चलता। चुनी हुई सरकार , सेना एवं आई एस आई ये तीनों ही अपने-अपने हिसाब से देश को चला रही हैं। अर्थव्यवस्था चौपट है...विदेशी खैरात पर इकोनोमी टीकी हुई है....रक्षा बजट पर खर्च भी भारत से ज्यादा खर्च करना है , तो...ऐसे में वो चीन का दामन थाम चुका है । चीन का विदेशी मुद्रा भंडार भरा पड़ा है..वहीं पाकिस्तान का खाली है। तो अब चीन अपने ड्रेगन के पेट में यूआन और डालर भर भर कर पाकिस्तान के उपर अपने विशाल मुँह से बारिश कर रहा है। 

ठीक यही काम उसने सालों पहले उत्तर कोरिया के साथ भी किया था। क्या हुआ उसका हाल ??....बरबाद कर दिया चीन ने उसे । जरा सोचें....जब कोरिया दो हिस्से में बँटा था साउथ एवं नार्थ कोरिया में ......तो दोनों नवनिर्मित देश क्षेत्रफल एवं संसाधनों की दृष्टि से एक समान थे। आज साउथ कोरिया का जीडीपी 46000 अरब रुपए का है वहीं नार्थ कोरिया का मात्र 1650 अरब रुपए का । ये चीन की दोस्ती का नतीजा है। बाकी का कसर किम जोंग के बाप ने एवं अब वो खुद पूरा कर रहा है। ....एक दिन यही चीन का ड्रेगन पूरे पाकिस्तान को निगल जाएगा।

 अब देखिए चीन एक ऐसी महाशक्ति बन चुका है कि वो अमेरिका को भी आँखें दिखा सकता है। साउथ चाइना सी में अपनी धमक दिखा चुका है......अब वो अरब सागर एवं हिन्द महासागर में भी दिखाना चाहता है। पाकिस्तान के बलुचीस्तान के ग्वादर में एक पोर्ट बना रहा है। अपने देश के शिनजियांग से ग्वादर पोर्ट तक वह एक इकोनोमिक कारीडोर बना रहा है। इसकी सुरक्षा के लिए वो एक विशेष सुरक्षा बल तैनात किया है। पीओके में इकोनोमीक जोन बना रहा है अपनी इंडस्ट्रीज लगा रहा है , ..वहाँ भी अपने तीन हजार सैनिकों की तैनाती किया है। .........फिर, गिलगीट-बल्तिस्तान में भी कई प्रोजेक्ट चल रहे हैं जिनमें बाँध , बिजली परियोजनाएँ शामिल हैं...उनकी सुरक्षा में भी अपने हजारों सैनिकों की तैनाती किया है। कराँची मे दो परमाणु रिएक्टर लगा रहा है , जो कितना सुरक्षित या असुरक्षित है अभी उसे भी नहीं पता है ...तो उसकी सुरक्षा के लिए भी सैकड़ों सैनिकों को लगाया है।
 अपनी सारी योजनाओं को निर्बाध रूप से पूरा करने के लिए वो वहाँ के धार्मिक उन्मादी ग्रूपों से गठजोड़ कर लिया है। इसका नजारा अभी हाल में ही दिखा जब मुंबई हमले के मास्टर माइंड अजहर मसूद को क्लीन चीट देकर अपनी मंशा जता दिया है , जिसका विरोध भी भारत कर चुका है ।

पाकिस्तान अपने आप को "सरेंडर" कर चुका है। चीन धीरे धीरे उसके परमाणु प्रतिष्ठान को अपने कब्जे में ले लेगा। बाद में वहाँ की राजनीति को भी हैंडल करने लगेगा....उसे पंगु बना देगा , पाकिस्तान उसके इशारे पर नाचेगा । पाकिस्तान की अपनी ताकत कुछ भी नहीं बचेगी क्योंकि तबतक चीन अपनी पूरी पैठ बना चुका होगा। ग्वादर पोर्ट में नौ सैनिक अड्डा बनाने की भी तैयारी कर दिया है । अमेरिका, चीन की किसी भी गतिविधियों का विरोध नहीं कर सकता क्योंकि चीन चाहे तो उसकी इकोनोमी को हिला सकता है। अतः अमेरिका उसके रास्ते से हट जाएगा। 
 कुछ सालों तक पाकिस्तान , चीन का एक "उपनिवेश" बना रहेगा ...बाद में चीन का नक्शा बदला जाएगा और पाकिस्तान विश्व के नक्शे से खत्म हो जाएगा । अब तक चीन का ड्रेगन पाकिस्तान को अपने पेट में निगल चुका होगा। आपके सामने उदाहरण ईस्ट इंडिया कंपनी का है। 

चीन का पूरे एशिया पर दबदबा होगा। 
 पर भारत पर उसका आंशिक असर ही पड़ेगा। उसकी वजह है भारत की तेज गति से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था । चीन की अर्थव्यवस्था अब गिरने लगी है और भारत की बढ़ने लगी है। चीन को रोकने के लिए अमेरिका हर हाल में भारत को मजबूत बनाएगा। अभी हाल के दिनों में आपने देखा ही होगा कि कैसे भारत के प्रधानमंत्री विदेशों का दौरा करके अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को अपने पक्ष में करने लगे हैं ...एवं अमेरिकी संसद में बजने वाली तालियाँ इस बात की गवाही दे रही है। 

एशिया में चीन के टक्कर का देश सिर्फ भारत होगा। 

पाकिस्तान तो "गायब" हो ही चुका होगा। 

पर ऐसा क्यों हुआ?? तो वजह है काश्मीर ....वजह है भारत के प्रति पाकिस्तान का नफरत । 
 तो देखा आपने...पाकिस्तान का ये हश्र कराने वाला यही काश्मीर ही होगा। 
 पर क्या ये बातें पाकिस्तान नहीं जानता है ?
तो उत्तर है ...वो भी जानता है पर उसकी रगों में "काश्मीर" नाम का खून दौड़ रहा है। हाफ़िज़ सईद ने भी कहा है कि हम अपनी बर्बादी तक काश्मीर का पीछा नहीं छोड़ेंगे....

तो बहुत अच्छी बात है...वो बर्बादी अब ज्यादा दूर नहीं है...........।


Thursday, April 27, 2017

राम, रावण बनाम मोदी की राजनीतिक चाल


राम और रावण भी अपने समय के प्रबुद्ध राजनीतिकार थे। उन्होंने भी अपनी राजनीति की बदौलत ही वंश, या प्रजा की रक्षा हेतु काम किये। यानी रामायण में वो सभी आयाम हैं, जो एक स्वस्थ्य समाज के लिए शासन करना, समाज का निर्धारण करना, असुर शक्तियों से निपटना यह सब कुछ निहित है। अब इस  आलेख में राम, रावण और मोदी की राजनीतिक चाल का विश्लेषण करके यह बताने का प्रयास करुंगा कि राजनीति होती क्या है ? क्या है नीति! और क्या है राज ?  
तो सबसे पहले भगवान श्री राम के राजनीतिक जीवन पर चर्चा ---

मर्यादा पुरुषोत्तम राम ---  भगवार राम को कई नामों से पुकारा गया है, वो भगवान तो थे ही, लेकिन एक कुशल राजनीतिक भी थे। राम के राजनीतिक जीवन को समझने के लिए सीता परित्याग और अश्वमेध यज्ञ नामक दो घटनाएं राजनीतिक जीवन को समझने के लिए पर्याप्त हैं। कहते हैं लंका जीतकर जब राम वापस अयोध्या आये तो कुछ समय बाद राम ने लक्ष्मण को आदेश दिया कि माता सीता को वापस वन में भेज दो। लक्ष्मण ने मना कर दिया, तो भगवान राम ने लक्ष्मण को राज धर्म का आदेश याद दिलाया और इसे अनिवार्य बताया। सवाल यह है कि आखिर राम ने सीता को वन में क्यों भेजा, अब यहां पर समझने की बारी है। माता सीता जब वन में गई और लक्ष्मण ने कहा कि अब हम तुमको यहीं पर छोड़कर जा रहे हैं तो माता सीता रोने लगी और नदी में अपनी जीवन लीला समाप्त करने के बारे में सोच-विचार कर रही थी, तभी उनकी नजर महर्षि बाल्मीकि पर पड़ गई और बाल्मीकि के आश्रम में सीता रहने लगी। जहां पहले से ही कई देवियां वास करती थी। बाल्मीकि पशोपेश में फंस गए कि रामायण में अभी और क्या लिखना शेष है ? सीता को वापस वन भेजने में राम का क्या उद्देश्य है ? वो इस गुत्थी को सुलझाने में लगे हुए थे कि तभी पता चला कि सीता ने दो पुत्रों को जन्म दिया । बाल्मीकि प्रसन्न हुए और बच्चों का नामकरण लव और कुश में किया। वो लगे बच्चों को शिक्षा-दीक्षा देने में। बच्चों को शस्त्रभ्यास करते हुए 11 साल गुजर गये थे। दोनो लड़के शिक्षा-दीक्षा में निपुण हो गये थे । उसी समय भगवान राम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा बाल्मीकि के आश्रम में आया। लड़कों ने देखा कि अश्व के गले में एक संदेश लिखा है, पढ़ने पर ज्ञात हुआ कि इस अश्व को जो पकड़ेगा या बांधेगा उसे युद्ध करना पड़ेगा। लव और कुश इसी फिराक में थे, कि इतने साल से सीख रहे हैं, आखिर विद्या कब काम आयेगी। शत्रुघ्न ने युद्ध न करने के लिए लड़कों को समझाया, लेकिन आखिर लड़के कहां मानने वाले थे  युद्ध शुरु हुआ, लक्ष्मण मूर्छित हो गए। क्रमश: सुग्रीव, विभीषण भी लव कुश से पराजित हो गये। आयोध्या से लक्ष्मण आये युद्ध के लिए। लक्ष्मण भी पराजित हो गये। यह दृश्य हनुमान भी देख रहे थे, तभी हनुमान ने ध्यान किया। ध्यान में उन्हें पता चला कि भगवान राम के ये दोनो लड़के हैं। आखिर में भगवान राम स्वयं आये और लड़कों से अश्व को छोड़ने के लिए कहा। लड़कों ने कह दिया युद्ध करो। भगवान राम अपने धनुष बाण चढ़ाये ही थे कि महर्षि बाल्मिकी प्रकट हो गये और राम को कहा कि रामबच्चों से मचलना आपको शोभा नहीं देता। माना कि राज हठ होता है, किंतु उससे बाल हठ टकराये तो राज हठ को पीछे हट जाना चाहिए। राम ने बाल्मीकि की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए अपने कदम वापस खीच लिये। महर्षि के कहने पर बालकों ने अश्व को मुक्त कर दिया। तब लव ने भगवान राम से एक प्रश्न पूछने की आज्ञा मांगी। राम ने कहा पूछो। लव ने कहा – जिस सीता ने स्वर्णिम लंका को तिनके के समान समझा, चक्रवर्ती सम्राट राजसी ऐश्वर्य को तिलांजलि दी। कांटों के पथ पर नंगे पांव छाया की तरह आपकी अनुगामिनी रही, अग्नि परीक्षता सीता का परित्याग क्यों किया ?   उनका अपराध क्या था ?
राम ने समझाया – बच्चों! वह थी राजनीति!  राजनीति के सूत्र अत्यंत सूक्ष्म होते हैं। जिन्हें बड़े होने पर तुम समझोगे। सीता परित्याग के माध्यम से उन्होंने महर्षि के दिव्यास्त्रों को प्राप्त कर लिया। चक्रवर्ती सम्राट उन शस्त्रों की भिक्षा तो मांग नहीं सकता था। वो दिव्य शास्त्र ऋषि के लिए भार स्वरूप हो चुके थे। अनावश्यक रूप से भजन छोड़कर उधर ही ध्यान दिया करते थे कि कोई उनका दुरुपयोग न कर दे। वे सारे दिव्य शास्त्र उन्हें मिल गये। बच्चों के पालन-पोषण के लिए मां से श्रेष्ठ संरक्षिका विधाता की सृष्टि में कोई आज तक है ही नहीं। उन्होंने सोचा, सिंहासन की अपेक्षा वन में बच्चों की देख-रेख करना सीता के लिए अधिक श्रेयस्कर है। देखरेख सीता से हो रही थी और विद्या अध्ययन गुरुदेव से। यह थी राम की सूक्ष्म राजनीति। परित्याग तो उन्होंने सीता का किया ही नहीं।

रावण की राजनीतिक चाल – राम रावण के युद्ध के बाद जब राम ने लक्ष्मण को रावण के पास राजनीति के गुर सीखने के लिए भेजा तो पहली बार लक्ष्ण को कुछ नहीं मिला, क्योंकि राम लक्ष्मण रावण के सिर के पास खड़े थे, वापस आ गये। राम ने रावण के चरणों के पास खड़े होने के लिए कहा – जब लक्ष्मण मरणासन्न अवस्था में रावण के चरणों के पास खड़े हुए तो रावण के शरीर में अचानक बिजली दौड़ गई और लक्ष्मण पर झपटकर कहा कि तुम अगर राम के अनुज न होते तो मैं तुम्हें मार देता। इसलिए  राजनीति की पहली शिक्षा यह है कि शत्रु चाहे मरणासन्न हो या मर ही क्यों न गया हो जब भी जाओ तो सावधान मुद्रा में ही जाओ। लक्ष्मण ने व्यंग्य करते हुए कहा – उपदेश तो बहुत अच्छा कर लेते हो, किंतु नीति का पालन आपसे नहीं हो सका। एक स्त्री के व्यामोह में अपने वंश का नाश करवा डाला। रावण ने समाधान करते हुए कहा – नहीं लक्ष्मण ! यह तुम्हारी भूल है। वंश की रक्षा के लिए ही मैने विभीषण को राम की शरण में जाने के लिए विवश कर दिया था। लक्ष्मण ने कहा – क्या लातों से मारकर भेजने का अच्छा तरीका था ? रावण ने कहा – नहीं लक्ष्मण ! यदि मैं प्रेम से भेजता तब यह रहस्य कुछ लोग जान जाते। मेरा अभीष्ट पूर्ण न होता। राजनीति का नियम है कि योजना किसी पर भी प्रकट न हो। वह न समझ में आये और उसके द्वारा जो सिद्ध होने वाला कार्य है वह सामने दिखाई पड़े। इसलिए मैंने विभीषण को प्रताड़ित कर निष्कासित किया। मैं उसे बंदी गृह में भी तो डाल सकता था। लक्ष्मण ने कहा- चलिए मान भी लेते हैं कि वंश की सुरक्षा के लिए आपने अपनी योजना के अनुसार ही भेजा था। तो कल विभीषण पर मरणान्तक शक्ति का प्रहार क्यों किया ? रावण ने कहा – लक्ष्मण ! मुझे संदेह था कि राम मेरे वंश की रक्षा कर पायेंगे या नहीं, इसी की परीक्षा के लिए मैंने शक्ति का प्रहार किया। राम जी ने अपने वक्षस्थल पर उस शक्ति को झेल लिया। इससे मैं आश्वस्त हो गया कि अब मेरा वंश सुरक्षित है। लक्ष्मण ! मेरे द्वारा पहले किये गये युद्ध शक्ति प्रहार के पश्चात किये गये युद्ध कौशल में अंतर तो तुमने देखा ही होगा। लक्ष्मण ने कहा – हां राजन! शक्ति प्रहार के पश्चात का संग्राम देखकर संदेह होने लगा था कि कभी भी आप मरेंगे ही नहीं। रावण ने कहा – यही उसका कारण था कि मेरा वंश सुरक्षित हो गया। इसलिए जितने भी दिव्य शास्त्र मैने छिपा रखे थे, सभी मैने उड़ेल दिये। मैं जानता था कि रामजी का तो कुछ बिगड़ने वाला है नहीं है। व्यर्थ ही इतने अस्त्र-शस्त्र का संग्रह क्या करना है ? कम से कम लोग यह भी तो देख लें कि रावण कितना पराक्रमी है। दिव्यास्त्रों का ज्ञाता है। राम से युद्ध का निर्णय तो मैंने शूर्पणखा की सूचना से ही कर लिया था। रावण राम को भगवान न मानने का अभिनय करता था। रावण आगे कहता है कि – हे लक्ष्मण ! लंका के सभी निवासी मेरा अनुसरण करते थे। हमने पाप किया और सबसे कराया। मैंने सोचा – क्यों न प्रभु के धाम का मार्ग सबको सुलभ करा दूं। इसलिए पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, इत्यादि सभी को मैंने राम के बाणों के समक्ष धकेल दिया। मैं ज्योतिष का भी आचार्य हूं। मुझे ज्ञात था कि आयु के कितने दिन शेष है ? जाना तो पड़ेगा ही। स्वर्णिम लंका कब तक हमारी रहेगी ? इसको तो छूटना ही था। प्रश्न था कि भगवान के धाम जाऊं या नरक में ? धाम के लिए हमने मार्ग प्रशस्त कर लिया। लक्ष्मण ! तुम धाम जाओगे तो वहां मैं तुमसे मिलूंगा। यह राजनीति थी लक्ष्मण। न हमने विभीषण का अपमान किया न माता जी का अपहरण, हमें तो अपने लक्ष्य की सिद्धी करनी थी। लक्ष्मण ने लौटकर राम को वृतांत सुनाया और कहा भैया ! वह तो महान राजनीतिज्ञ है। उसने तो माता सीता का हरण किया ही नहीं। उसने तो अपना लक्ष्य पूर्ण कर लिया। भगवान इस रहस्य को जानते थे। उन्हें संदेहयुक्त अपने ऐसे सेवकों का भी उद्धार करना ही था।

मोदी की राजनीति --- मोदी की राजनीति हो या किसी की भी, सभी अपने अभीष्ट को प्राप्त करने के लिए ही राजनीति करते हैं। राजनीति के लिए कम से कम 20 साल पहले योजना बनाकर चलना पड़ता है। मोदी भी इस फार्मूले को अपनाने में पीछे नहीं है। वर्तमान में मोदी के राजनीतिक कदम कब आगे-पीछे किस दिशा में बढ़ जाते हैं किसी को कानों कान खबर तक नहीं पहुंचती। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले मोदी लव लेटर लिखना बंद करो की आवाज़ बुलंद कर रहे थे, लेकिन शपथ ग्रहण समारोह में लव लेटर वालों को न्योता दे दिया। इतना ही नहीं गोपनीय तरीके से पाकिस्तान जाकर उपहार भी दे आये। इसके बाद जो फैसले हुए वो कभी किसी को पता ही नहीं चला। नोटबंदी हो, विदेश यात्रा, योगी को मुख्यमंत्री बनाना, ये सभी फैसले सुनते ही लोग चौंक गये। लेकिन मोदी अपनी रफ्तार से ही आगे बढ़ रहे हैं। उनकी आगे की क्या रणनीति है, ये किसी को नहीं पता। गोवा में अल्पमत में होते हुए भी भाजपा ने सरकार बना ली, और उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत में होते हुए भी मुख्यमंत्री ढूंढ़ने में इतने दिन लग गये। ये सभी राजनीति के अंग हैं। इससे भी बड़ी बात ये है कि विधायकों ने अपने दल का जो नेता चुना वो भी विधायक दल से बाहर का। यानी मुख्यमंत्री और दोनो उपमुख्यमंत्री भी विधायक श्रेणी से बाहर के। तो फिर क्या मोदी को राजनीति का चाणक्य कहा जाये या फिर मोदी ही दूसरे चाणक्य है। अगर वर्तमान परिदृश्य को ही राजनीतिक चश्मे से विश्लेषण करें तो उत्तर प्रदेश विधान सभा में सभी राजनीतिक दलों ने चुनाव के पहले ही एक तरीके से सरेंडर कर दिया । यानी सभी दलों ने मिलकर भाजपा को जिताने में सहायता की। सपा ने अपने घर में गृह युद्ध किया। सुना है कि इस गृह युद्ध के लिए सात समंदर पार से किसी पॉलिटिकल पॉलिसी के प्रणेता को बतौर फीस देकर युद्ध कराया गया। यानी सपा ने चुनाव के पहले ही साइकिल को पंचर कर दिया। बहन जी ने हाथी पर ऐसे महावत बैठा दिये जो हाथी को आगे बढ़ाने में असक्षम थे। तो फिर क्या घूम फिर कर सवाल यही नाच रहा है कि आखिर मोदी की ऐसी कौन सी राजनीतिक चाल रही जो माया, मुलायम, अखिलेश जान बूझकर सरेंडर करते नजर आये। परिणाम आने के पहले ही अखिलेश सिंह ने साइकिल पर हाथी की सवारी का इशारा कर दिया।

   प्यार की गलियों में आई लव यू और सियासी गलियारे में सीबीआई। ये तीन शब्द मीडिया के लिए जादुई शब्द हैं। यही तीन शब्द राजनीतिक जीवन का भविष्य तय करते हैं। आईलवयू  (नेताओं के सेक्स कांड) और सीबीआई इन शब्दों के फंदे में कई बड़े नेता फंसे हुए हैं। सवाल यह उठता है कि क्या मुलायम सिंह ने स्वयं चुनाव के पहले व्यूह रचा। चाचा-भतीजे का झगड़ा, पिता-पुत्र का झगड़ा। किसी न किसी अभीष्ट फल की प्राप्ति दे रहा था। सियासी गलियारे में कुछ लोग इसे सकारात्मक पहल में ले रहे थे। कह रहे थे कि इस झगड़े से साइकिल मजबूत हई है तो फिर क्या झगड़ा भी किसी सीरियल की पटकथा की तरह लिखा गया था। साइकिल और हाथी मैदान में उतरना भी चाहते हों और कमल खिलने की दुआ भी करते हों । कुछ ऐसे ही चुनाव की शुरुआत हुई थी। सभी पार्टियों ने खूब प्रचार-प्रसार किया। लेकिन मोदी के आगे सब नतमस्तक हो गये। मोदी जिधर गये। लाइन वहीं से शुरु हो गई। यदि मोदी ने भोले बाबा की पूजा की तो साइकिल और पंजे वाले भी बम बम भोले बोलने लगे। यानी हिंदुत्व के चेहरे को मुखार बिंदु पर लाने के लिए मोदी ने बिल्कुल भी नहीं सोचा कि क्या प्रभाव पड़ेगा, उल्टे धर्मनिरपेक्ष विचार धारा वाले भी हर हर बम बम और हवन यज्ञ पर आ गये। तो क्या मोदी की रणनीति भी वही है जो भगवान श्री राम ने किया कि राजनीति में योजना प्रकट न हो, लेकिन परिणान सामने होना चाहिए। मोदी के प्रधानमंत्री बनने के पहले सियासी गलियारे में कुछ ऐसी सोच थी कि वर्तमान परिदृश्य में देश की राजनीति को अगर समझना है तो देश के नजरिए से अगर इस दौर में सरकार को परिभाषित किया जाये तो पहले देश बेचना फिर देश की फिक्र करना और अब फिक्र करते हुए देश को अंगुलियों पर नचाना सरकार का राजनीतिक हुनर है। यही हुनर था राजनेताओं का। शायद यही वजह है कि जो नेता पहली बार चुनाव के पहले शपथ पत्र देते थे, दूसरी बार के चुनाव में मूसलाधार बारिश की तरह संपत्ति बढ़ती देखी गई है। यानी अपना विकास करने के मकसद से अगर देश में कुछ विकास हो जाता है तो वही विकास की श्रेणी में गिना जायेगा। लेकिन अब तो विकास की परिभाषा ही बदल गई है। और विकास देश के अंतिम छोर में खड़े नागरिक तक पहुंचाने का प्रयास किया जा रहा है और पहुंच भी रही है। उज्ज्वला योजना और शौचालय जैसी योजनाएं गांवों तक पहुंच रही हैं।

  तो फिर क्या मोदी की चाल को भी अभी भी राजनीतिक पंडित नही समझ पा रहे हैं। मोदी की रणनीति के सूत्र अत्यंत सूक्ष्म हैं, जो मीडिया या राजनीतिक दल को नहीं पता चल पाता। यानी कि त्रेतायुग की राजनीतिक चाल से लेकर अब कलियुग तक की राजनीतिक चाल का अध्ययन करें तो पायेंगे कि राजनीतिक  सूत्र पता नहीं कब एक और एक को जोड़कर दो बना देते हैं और कब भौतिकी के गेट के सूत्र की तरह 1 और 1 को जोड़ने पर 11 बना देते हैं। 

Tuesday, August 2, 2016

आ रहा है मराठी भाषा में उपन्यास बगला

आ रहा है मराठी भाषा में उपन्यास बगला

जब से तकनीकी दुनिया में डिजटाइजेशन का युग शुरु हुआ है, तब से जिंदगी और समाज का डिजटलीकरण हो गया है। टैब और स्मार्ट फोन में अंगुलियों और अंगूठे के दम पर दुनिया को फिरंगी की तरह नचाने वाली इस पीढ़ी में अब कॉपी किताबों का प्रचलन डायनासोर की तरह विलुप्त होने के कगार पर पहुंच रहा है। भारतीय भाषाओं में लेखकों या पाठकों का हमेशा रोना रहता है कि अंग्रेजी के अलावा अन्य किसी भी भाषा में पठनीय सामग्री नहीं प्रकाशित हो रही है। यही काल्पनिक बयानबाजी सिर चढ़कर बोल रही है। ऐसे में इन तमाम बयान बाजी को दरकिनार करते हुए मराठी भाषा में उपन्यास बगला ने एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। अभी इस उपन्यास का विमोचन भी नहीं हुआ है, लेकिन पाठकों ने इसकी सैकड़ों प्रतिलिपियों को अभी से ही आरक्षित करा लिया है। अगस्त के अंतिम सप्ताह में बगला का विमोचन होना तय हुआ है। इस उपन्यास के लेखक जाने माने रंगमंच, एंटरटेमेंट की दुनिया में हिंदी, मराठी में धारदार लेखनी के धनी प्रसाद कुमठेकर जी हैं। इस उपन्यास के प्रकाशक महेशलीला पंडित और प्रकाशन पार पब्लिकेशन है। लेखक ने सोशल मीडिया का प्रयोग करते हुए अपने उपन्यास को प्रचारित प्रसारित किया। What's app के सभी ग्रुपों और फेसबुक का भरपूर इस्तेमाल करते हुए इस उपन्यास का प्रचार प्रसार हुआ। लेखक की निजी भागेदारी की बदौलत उपन्यास ने लांच होने के पहले ही एक नया कीर्तिमान स्थापित किया है। इस उपन्यास ने ये साबित कर दिया है कि यदि लेखन में है दम है तो पाठक भी नहीं हैं कम....
तो आइये हम सब पढ़े और जाने कि आखिर बगला में है क्या ?