तेल की सुस्ती से ओपेक चिन्तित
कच्चे तेल की गिरती क़ीमतें अब नहीं थम रही हैं. इस
वजह से तेल उत्पादक देशों के समूह आर्गेनाईजेशन ऑफ़ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग
कंट्रीज(ओपेक) में खलबली मची है और सरकारों की कमाई पर असर पड़ रहा है। कच्चे तेल
की गिरती क़ीमतों ने अब दुनिया भर के बाज़ारों में भूचाल पैदा कर दिया है. जो लोग
कच्चे तेल पर पैनी नज़र रखते हैं उनका मानना है कि गिरती क़ीमत दुनियाभर की कमज़ोर
अर्थव्यवस्था के बारे में बता रही है। पिछले हफ़्ते कच्चा तेल 40 डॉलर प्रति
बैरल के नीचे चला गया। नाइमेक्स और ब्रेंट की क़ीमतों के आधार पर ये 11 साल में सबसे
कम क़ीमत है। गिरती हुई कच्चे तेल की क़ीमतों से ओपेक के 12 देश भी हिल से
गए हैं।
अगर क़ीमतें फ़रवरी तक बढ़ती नहीं हैं तो ओपेक ने एक
इमरजेंसी मीटिंग बुलाने का सोचा है ताकि वह ऐसे क़दमों पर विचार कर सके जिससे
क़ीमतों में गिरावट को रोक जा सकता है। कच्चे तेल की उत्पादन में कटौती इनमें एक
तरीक़ा हो सकता है।ओपेक देश कच्चे तेल के बाज़ार में काफ़ी अहमियत रखते हैं.
दुनिया की एक तिहाई कच्चे तेल के उत्पादन करने के कारण वो क़ीमतें बढ़ाने या घटाने
की स्थिति में होते हैं। ओपेक में क़तर, लीबिया, सऊदी अरब, अल्जीरिया, नाइजीरिया, ईरान, इराक़, कुवैत जैसे देश
इसके सदस्य हैं। इंडोनेशिया दोबारा ओपेक में अगले साल शामिल हो जाएगा। वह उसका
तेरहवां सदस्य होगा।
ओपेक देशों के अलावा अर्थव्यवस्था पर नज़र रखने वाले
कच्चे तेल की खपत पर ख़ास ध्यान देते हैं। दुनिया भर की फैक्ट्रियों में जो भी
उत्पादन हो रहा है उसकी मांग को देखते हुए पेट्रोल, डीज़ल की खपत
और जहाज़ों की बुकिंग के आंकड़ों को देख कर इस बात का अंदाज़ा लग जाता है कि
अर्थव्यवस्था की हालत कैसी है। कच्चे तेल की ख़रीद और पेट्रोल, डीज़ल की खपत
देखते ही अर्थशास्त्री ये कह सकते हैं कि मंदी का दौर ख़त्म हो सकता है। लेकिन
फ़िलहाल अर्थशास्त्री मांग में बढ़ोतरी की उम्मीद नहीं कर रहे हैं।
इस कमज़ोर अर्थव्यवस्था का असर रूस जैसे देशों पर भी
हो रहा है, जिसकी क़रीब 60 फीसदी सालाना
विदेशी मुद्रा की कमाई कच्चे तेल की बिक्री से होती है। क़ीमतें घटने से रूस और
उसके जैसे देशों की कमाई भी मारी जाती है। ओपेक देशों में से अल्जीरिया, अंगोला, नाइजीरिया और
वेनेज़ुएला जैसे देश अक्सर ये मांग करते हैं कि उत्पादन में कटौती होनी चाहिए
क्योंकि उससे गिरती क़ीमतों पर रोक लग सकती है। इन देशों की अर्थव्यवस्था और सरकारी
राजस्व कच्चे तेल से होने वाली कमाई पर बहुत ज़्यादा निर्भर है।
ओपेक देशों का लालच भी एक वजह
जैसे-जैसे चीन और भारत की अर्थव्यवस्थाएं अहम होती जा
रही हैं, इनकी खपत तेज़ी से बढ़ रही है। कच्चे तेल की क़ीमतों
पर खाड़ी और उसके आसपास के देशों में हो रही लड़ाई का भी असर होता है। जब
अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों में क़ीमतें गिरने लगती हैं तो ओपेक देशों में थोड़ा लालच
भी होता है। ओपेक देश हर साल कम से कम दो बार मिलते हैं। हर मीटिंग में उत्पादन की
सीमा पर विचार किया जाता है। लेकिन कुछ देश उससे ज़्यादा कच्चे तेल का भी उत्पादन
करते हैं। उन्हें लगता है कि क़ीमतें और भी नीचे जाएंगी तो ऐसे में उन्हें आज ही
अपने उत्पाद की बढ़िया क़ीमत मिल जाएंगी।
लगता है कुछ ऐसी ही स्थिति अभी बनी हुई है। ओपेक के
मुताबिक़, नवंबर 2015 में उसने 3 करोड़ 17 लाख बैरल का
रोज़ाना उत्पादन किया। ये उसके उत्पादन स्तर के मुताबिक़ तीन साल में सबसे ज़्यादा
है। कमज़ोर मांग वाले बाज़ार में ओपेक सदस्यों के लालच के कारण शायद गिरती क़ीमतें
थम नहीं रही हैं। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में कच्चे तेल की क़ीमतें पिछले दशक की
शुरुआत में 10 डॉलर प्रति
बैरल के आसपास हुआ करती थीं। लेकिन खाड़ी देशों के बदलते हालात और बढ़ती मांग के
कारण पहली बार कच्चे तेल ने 100 डॉलर प्रति
बैरल की क़ीमत जनवरी 2008 में पार कर
लिया था। और उस साल जुलाई आते-आते क़ीमतें 147 डॉलर प्रति
बैरल के अब तक के रिकॉर्ड के ऊपर पहुंच गई थीं।