Wednesday, September 12, 2012

सरोगेट मदर्स : किराए की कोख का पनपता धंधा

विज्ञान आज भगवान का रुप ले चुका है. पहले तो इसने सिर्फ मारने के साधन बनाए थे लेकिन अब उसने जन्म देने की कला भी सिखा दी. विज्ञान ने हमारी जीवनशैली को एक नई ऊंचाई दी है और यह सही भी है क्योंकि प्रगति और विकास के माध्यम से स्थापित होने वाली जीवन-शैली ही आधुनिकता कहलाती है, जिसके प्रभाव से समय-समय पर मानवीय जीवन-मूल्यों में कभी थोड़े-बहुत तो कभी ज्यादा परिवर्तन आते ही हैं. अब इसी विज्ञान का नया कमाल है कि जो दपंत्ति संतान के सुख से विहीन थे उनके लिए सरोगेसी की सुविधा.
सरोगेसी यानी वास्तविक मां की जगह एक दूसरी महिला बच्चे को जन्म देने के लिए अपनी कोख का इस्तेमाल करे. सरोगेसी को वह महिलाएं अपनाती हैं, जो बच्चे को जन्म देने में असमर्थ होती हैं.
आज जहां सब बिकता है हमने मां और ममता को भी बेच दिया. कितना आगे निकल गया ना मानव ? भगवान की भी जरुरत नहीं. ममता जिस शब्द पर भगवान भी नतमस्तक हो जाते है आज बिकने लगी. लेकिन आज भारत जैसे गरीब और विकासशील देश में यह प्रकिया एक धंधे की भांति हो गयी है. जरा इन आंकड़ों पर नजर डालिए कि संपूर्ण दुनिया में प्रतिवर्ष 500 बच्चे सरोगेसी के जरिए पैदा होते हैं और उनमें से 200 बच्चों का जन्म भारत में होता है. इसकी कुछ विशेष वजहें भी हैं जैसे कानूनी मान्यता, कम खर्च आदि.
तो आइए जानते हैं कि क्यों और कैसे भारत में ममता बिकाऊ हो गई और क्या सरोगेसी ने हमें नई उपलब्धि दी है:

सरोगेसी है क्या
सरोगेसी का शाब्दिक अर्थ होता है किसी और को अपने काम के लिए नियुक्ता करना.इस प्रकिया में वास्तविक मां की जगह एक दूसरी महिला बच्चे को जन्म देने के लिए अपनी कोख देती है. सरोगेसी को वह महिलाएं अपनाती हैं, जो बच्चे को जन्म देने में असमर्थ होती हैं. शुक्राणु और अंडाणु को निषेचित करा कर भ्रूण को उस महिला की कोख में डाल दिया जाता है.
इसमें एक प्रतिशत अंश भी सरोगेट मदर का नहीं होता है. इस प्रक्रिया से बच्चों के साथ उनका जेनेटिक संबंध बरकरार रहता है. इस प्रक्रिया से जन्मे बच्चे का रंग, लंबाई, बालों का रंग और प्रकृति, आनुवांशिक गुण आदि सभी जेनरिक मां-बाप के होते हैं.

सरोगेसी के प्रकार
ट्रेडिशनल सरोगेसी: इस प्रकिया में दंपत्ति में से पिता के शुक्राणुओं को एक स्वास्थब महिला के अंडाणु के साथ प्राकृतिक रूप से निषेचित किया जाता है. शुक्राणुओं को सरोगेट मदर के नेचुरल ओव्युुलेशन के समय डाला जाता है. इसमें जेनेटिक संबंध सिर्फ पिता से होता है.
गेस्टे शनल सरोगेसी: इस पद्धति में माता-पिता के अंडाणु व शुक्राणुओं का मेल परखनली विधि से करवा कर भ्रूण को सरोगेट मदर की बच्चेददानी में प्रत्यातरोपित कर दिया जाता है. इसमें बच्चेस का जेनेटिक संबंध मां और पिता दोनों से होता है. इस पद्धति में सरोगेट मदर को ओरल पिल्सह खिलाकर अंडाणु विहीन चक्र में रखना पड़ता है जिससे बच्चाइ होने तक उसके अपने अंडाणु न बन सकें.

आखिर क्यों बिकती और खरीदी जाती है कोख
सरोगेसी की सबसे बड़ी वजह है गरीबी. गरीब महिलाओं की पैसों की चाहत उन्हें इस काम के लिए राजी करवा देती है. जब पुरुष गरीबी की वजह से अपना खून और किडनी बेचने को तैयार हो जाता है ताकि उनके घर में चूल्हा जल सके तो ठीक वैसे ही महिलाएं भी गरीबी के कारण अपनी कोख में दूसरे के बच्चे को पाल लेती हैं.
बांझपन भी सरोगेसी की एक बड़ी वजह मानी जाती है. बांझपन के कारण महिलाएं भी अपने पति का इस कृत्य कदम में साथ देने को तैयार हो जाती हैं. विश्व की तो बात ही नहीं सिर्फ भारत में ही हर वर्ष जितनी शादियां होती है उसमें से 10 % महिलाएं बांझपन से ग्रस्त होती हैं.

कौन बनती है सेरोगेट मदर
सेरोगेट मदर की खोज के लिए पहले डॉक्टर की सलाह ली जाती है फिर विभिन्न अखबारों में और आज-कल तो इंटरनेट पर भी सरोगेट मां की खोज की जा रही है. उसके बाद महिला की पूरी मेडिकल जांच की जाती है कि कहीं उसे कोई रोग तो नहीं. सरोगेट मां की उम्र अमूमन 18 साल से 35 साल के बीच होती है.

एक कोख की कीमत
सरोगेट मां का सारा खर्च वही लोग उठाते हैं जिन्हें बच्चा चाहिए. किराए पर कोख लेने का खर्च भारत में जहां तीन-चार लाख तक होता है वहीं दूसरे देशों में कम से कम 35-40 लाख रुपए तक खर्च आता है. खर्च ज्यादा होने के कारण अब विदेश से भी लोग भारत की तरफ रुख करने लगे हैं और देखते ही देखते यह कारोबार पूरे हिंदुस्तान में फैल चुका है खासकर दक्षिण भारत में.

भारत में इसका फैलाव
सेरोगेसी भारत के कुछ खास स्थानों में सबसे ज्यादा फैला है जैसे उड़ीसा, भोपाल, केरल, तमिलनाडु, मुंबई आदि. एक चीज जो ध्यान देने योग्य है वह है सेरोगेसी ऐसे राज्यों में ज्यादा देखने को मिली जहां पर्यटक ज्यादा आते हैं यानी भारत विदेशियों के लिए एक ऐसी जगह बन चुका है जहां सेरोगेट मदर्स आसानी से मिल जाती हैं. और अब तो सरोगेसी ने पर्यटन का रुप ले लिया है. इच्छुक पैरेंट्स को टूर ऑपरेटर पूरा पैकेज ऑफर करते हैं. भारत के नर्सिंग होम्स से उनका संपर्क रहता है.
भारत में सरोगेसी इसलिए भी आसान है क्योंकि हमारे यहां अधिक कानून नहीं हैं और जो हैं उनकी नजर में यह मान्यता प्राप्त है. इसके कुछ नियम निम्न हैं:
1. सरोगेसी से पैदा हुए बच्चे पर जेनेटिक माता-पिता का हक होगा. गोद लेने वाले मामलों की तरह इसमें किसी घोषणा की जरूरत नहीं होती.
2. बच्चे के जन्म-प्रमाण पत्र में केवल जेनेटिक माता-पिता का ही नाम होना चाहिए.
3. सरोगेसी कांट्रेक्ट में सरोगेट मां के जीवन बीमा का उल्लेख निश्चित रूप से किया जाना चाहिए.
4. यदि सरोगेट बच्चे की डिलीवरी से पहले जेनेटिक माता-पिता की मृत्यु हो जाती है, उनके बीच तलाक हो जाता है या उनमें से कोई भी बच्चे को लेने से मना कर दे, तो बच्चे के लिए आर्थिक सहयोग की व्यवस्था की जाए.

आखिर विवाद किस बात पर
आज सरोगेसी एक विवादास्पाद मुद्दा बनता जा रहा है. ऐसे कई मामले सामने आए हैं जिनमें सरोगेट मदर ने बच्चाा पैदा होने के बाद भावनाओं के आवेश में आकर बच्चेस को उसके कानूनी मां-पिता को देने से इंकार कर दिया.
ऐसे मामले तो सबसे ज्यादा गंभीर हैं जबकि बच्चाा विकलांग पैदा हो जाए या फिर करार एक बच्चेा का हो और जुड़वा बच्चेब हो जाएं तो जेनेटिक माता-पिता बच्चे को अपनाने से इंकार करने लगते हैं. भारत में एक बात और विवाद का विषय है वह है विदेशी ग़े-दंपतियों को बच्चा कैसे दिया जाए? सबसे ज्यादा दिमाग चकराने वाला विषय है यह.

क्या कोई कानून है जो सरोगेट मां को भी ध्यान में रखे
अब सवाल हम सब के लिए कि क्या नौ महीने तक पेट में रखने और जन्म देने वाली सरोगेट मदर का बच्चेए के प्रति भावनात्म क प्रेम क्या कानूनी कागजों में दस्तंखत कराने के बाद खत्मे किया जा सकता है? और क्या जन्म से पहले पता होता है कि बच्चा विकंलाग होगा या जुड़वा?
सरोगेट मां तो सिर्फ अपने कोख में दूसरे के भ्रूण को पालती है यह कुछ ऐसा होता है जैसे आपने सब्जी दूसरे के घर से ली और पकाया अपने ऑवन में. अब सब्जी कैसी होगी आप कैसे जान सकते हैं. अगर बच्चा विकलांग है या जुड़वा है तो इसमें दोष तो जेनेटिक मां-बाप का हुआ न. सेरोगेट मां तो पैसों के लालच में आकर अपनी कोख उधार देती है अब चाहे उसमें से कुछ भी जन्में. एक गरीब मां अपनी गरीबी में आकर नौ महीने तक अपनी, समाज और परिवार के नजरों के तीखे तीरे झेल कर एक बच्चे को जन्म देती है और अगर बच्चे में कुछ दोष होने पर लेने वाला मना कर दे तो ऐसे में उस गरीब मां पर क्या बीतेगी. आखिर कैसे कोई अपनी ही औलाद को लेने से मना कर सकता है. और एक और चीज गे-दंपति भी अगर जुड़वा बच्चे या विकलांग बच्चा होने पर उसे लेने से मना करें तो क्या हो? एक तो पहले वह उसका देखभाल कर नहीं सकते और अगर छोड़ देते है तो यह सरोगेट मां पर जुल्म होगा. आखिर क्या ममता की यही कीमत है. आज के युग में जहां सब बिकता है अब क्या ममता भी बिकेगी. यह विषय आज के समाज का सबसे बडा सवाल है क्योंकि हमारा आने वाला कल इससे प्रभावित होने वाला है जहां जीवन में सफलता और कैरियर की भाग-दौड में महिलाएं बच्चा पैदा करने से बचेंगी, तब ऐसे मामले भी बढ़ सकते हैं. अगर समय रहते इस विषय पर कानून नहीं बना तो भारत की अंतरराष्ट्रीय छवि पर भी इसका प्रभाव पड़ सकता है.

महिला के कोख की कीमत क्या हो सकती है
क्या दुनिया में कहीं भी किसी भी मां की कोख का व्यापारिक सौदा हो सकता है? या क्या दुनिया में किसी भी मां की कोख की कीमत महज 6 से 7 लाख रुपए हो सकती है? शायद नहीं, फिर क्यों भारतीय महिलाओं की कोख को व्यापार बना दिया गया है !!.
ब्रिटेन के मशहूर अख़बार ‘द डेली मेल’ की वेबसाइट पर ‘सरोगेसी’ (किराए की कोख) के मुद्दे पर प्रकाशित एक रिपोर्ट में भारत को ‘बेबी फॉर्म‘ और ‘बेबी फैक्ट्री‘ जैसे बेहद आपत्तिजनक नामों से पुकारा गया है. यही नहीं, अपनी कोख किराए पर दे रही भारतीय महिलाओं को बेहद गरीब भी बताया गया है. आंकड़ों के मुताबिक पिछले साल ही भारत में करीब 2000 बच्चों ने किराए की कोख से जन्म लिया. एक अनुमान के मुताबिक इनमें से आधे बच्चे ब्रिटिश नागरिकों के थे. हालांकि, किराए की कोख से बच्चे पैदा करने वालों में अधिकतर ‘समलैंगिक’ होते हैं और वे अपने बच्चे के लिए स्पर्म या फीमेल एग डोनर का इस्तेमाल करते हैं. लेकिन ऑक्टाविया के मामले में ‘एग’ उनका था और ‘स्पर्म’ उनके पति का. यानि इस मामले में मां ने सिर्फ अपनी कोख ही किराए पर दी है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भारतीय महिलाओं के प्रति अपमानजनक बातों और आपत्तिजनक टिप्पणियों के लिए हमारे देश का कानून नहीं जिम्मेदार है? भारत में साल 2002 में सरोगेसी को मान्यता दे दी गई थी. लेकिन अभी तक इसे लेकर कोई पुख्ता कानून नहीं है. सरोगेसी बिल अगले साल 2013 में संसद में पेश किया जा सकता है.

बेबी फैक्ट्री या कोख का व्यापार
एक महिला की कोख को बेबी फॉर्म या बेबी फैक्ट्री या कोख का व्यापार जैसे शब्द दिए जा रहे हैं. सवाल यह है कि गरीबी की मजबूरी क्या इस हद तक आ जाती है कि एक महिला अपनी कोख बेचने के लिए मजबूर हो जाती है. यदि एक महिला किसी मजबूरी के कारण कोख को बेचने जैसा कदम उठाती है तो समाज उसे कोख का व्यापार जैसे शब्द दे देता है. सच तो यह है कि यदि यह मान लिया जाए कि महिला ने अपनी कोख को कुछ पैसे के लिए बेचा है तो खरीदने वाला यह क्यों भूल जाता है कि उसने भी किसी महिला की कोख को खरीदा है. आखिरकार जिम्मेदार दोनों ही हैं फिर सिर्फ महिला के लिए कोख का व्यापार करने जैसे शब्द क्यों? “मैं अपने बच्चे की सरोगेट मां के बारे में न ज्यादा जानती हूं और न ही ज्यादा जानना चाहती हूं. यह एक व्यापारिक रिश्ता है जिसमें मैंने एक गरीब भारतीय महिला की कोख किराये पर ली है. मुझे अपने परिवार के लिए बच्चा मिल जाएगा और गरीब महिला को पैसा.”
यह शब्द उस ब्रिटिश महिला के हैं जिसके बच्चे को जन्म भारतीय महिला दे रही है. उस ब्रिटिश महिला के लिए कोख किराये पर लेना सिर्फ एक व्यापारिक रिश्ता है. यह कैसा व्यापारिक रिश्ता है जिसमें जन्म देने वाली मां अपने बच्चे को अपना बच्चा नहीं कह सकती है ना जन्म लेने वाला बच्चा अपनी जन्म देने वाली मां को मां कह सकता है. समाज पर भी हैरानी होती है कि वह हर चीज की कीमत लगा देता है और अब तो मां की कोख की भी कीमत लगा दी गई है.
यदि सेरोगेसी शब्द से भावनात्मक बातों को निकाल दिया जाए तो यह सच है कि यदि भारतीय महिलाओं को विदेशों में कोख के व्यापार के लिए जाना जाएगा तो वो दिन भी बहुत पास ही होगा जब भारतीय महिलाओं का अपहरण किया जाएगा वो भी कोख को किराये पर लेने के लिए या फिर जबरदस्ती भारतीय महिलाओं की कोख पर अपना हक जमा कर अपना बच्चा पैदा कराने के लिए.

आज के युग में जहां सब बिकता है अब क्या ममता भी बिकेगी?

2 comments:

Kamalesh said...

padha kar achchhi jankari mile dhanyvad jitendra ji.

Kamalesh said...

Jan Sandesh Times, Lucknow