Wednesday, October 14, 2009

नोबेल नहीं, दूसरा बुश न पैदा हो

जिस पुरस्कार से महात्मा गाँधी या पंडित जवाहर लाल नेहरू को नहीं नवाजा गया । वह अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को सिर्फ़ नौ माह के कार्यकाल में ही मिल गया। जबकि फ़िल्म अभी पूरी बांकी है।
अगर नोबेल के बारे में बात की जाए तो विभिन्न क्षेत्रों में नोबेल पुरस्कार प्रतिवर्ष स्वीडिश रसायन शास्त्री अल्फ्रेड बर्नार्ड नोबेल (१८३३-९६) की स्मृति में उनकी पुण्यतिथि (१० दिसम्बर)के अवसर पर स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम और नार्वे की राजधानी ओस्लो में दिए जाते हैं। नोबेल ने एक कोष बनाया था। जिसके धन के ब्याज से पुरस्कार की राशि आती है। यह पुरस्कार उन लोगों को दिया जाता है जिन्होंने मानवता के हित के लिए भौतिक शास्त्र ,रसायन शास्त्र,शारीरिक क्रिया विज्ञान ,चिकत्सा विज्ञान और विश्व शान्ति में योगदान किया हो.ऐ.बी.नोबेल ने नाइट्रोग्लिसरीन की खोज की। और इसका उपयोग विस्फोटक बनाने में किया गया।

आर्थिक विज्ञान के लिए नोबेल पुरस्कार सन १९६७ में ' रिक्स्वांड दी सेन्ट्रल बैंक ऑफ़ स्वीडन द्वारा इसकी ३०० वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में स्थापित किया गया। सभी पुरस्कार १९०१ ईसवी से प्रारम्भ हुए। परन्तु अर्थशाश्त्र के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार सर्वप्रथम १९६९ में दिया गया।
भौतिक शास्त्र और रसायन शास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार स्वीडिश एकेडमी ऑफ़ साइंस द्वारा दिया जाता है। जबकि चिकत्सा और शारीरिक क्रिया विज्ञान के लिए पुरस्कार 'स्टाक होम फैकल्टी ऑफ़ मेडीसिन ' द्वारा दिया जाता है।
साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए चयन स्वीडिश एकेडमी ऑफ़ लिटरेचर द्वारा किया जाता है।
शान्ति के क्षेत्र में इस पुरस्कार हेतु निर्णय नार्वे की संसद के पाँच निर्वाचित प्रतिनिधि करते है। कोष का प्रबंध बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स द्वारा किया जाता है। जिसका अध्यक्ष स्वीडन सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है। साल २००१ से १०० वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में प्रत्येक वर्ग में विजेताओं को पुरस्कार स्वरुप एक -एक करोड़ स्वीडिश क्रोनर (लगभग ४.७५ करोड़) रुपये की राशि दी जाती है।

ओबामा को पुरस्कार मिलने पर वे ख़ुद आश्चर्य चकित हैं ओबामा ने कहा है कि - मुझे नहीं लगता कि इस पुरस्कार से सम्मानित अनेक युगांतकारी हस्तियों की कतार में मैं कहीं स्वयं को पाता हूँ। ओबामा के इस कथन से उनकी ईमानदारी झलकती है। क्यों कि बहुत से अमेरिकी मानते होंगे कि उन्हें ये पुरस्कार समय से कुछ पहले ही मिल गया है।ओबामा अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके पहले वुडरो विल्सन और फ्रेंकलिन रूजवेल्ट को नोबेल मिल चुका है।

अब दिमाग में ये सवाल कौंध रहा है कि ओबामा ने ऐसा कौन सा शांतिकुंज स्थापित कर दिया है जिससे नोबेल देने की घोषणा कर दी गयी है। अलकायदा और तालिबान के ख़िलाफ़ अमेरिका को अब तक सफलता नहीं मिली हैं। अगर ओबामा विश्व शान्ति के प्रति इतने गंभीर और ईमानदार हैं तो पाकिस्तान को दी जाने वाली सहायता राशि तिगुनी नहीं होती। जबकि ओबामा भली भांति जानते हैं कि पाकिस्तान इस राशि का उपयोग भारत के ख़िलाफ़ आतंक की फसल उगाने में करता है। पश्चिम एशिया में शान्ति स्थापना का अर्थ है इजरायल को मजबूत करना। तो क्या नोबेल पुरस्कार समिति पर कोई दबाव था कि इस साल नोबेल पुरस्कार ओबामा कि दिया जाए। ओबामा दुनिया के किस हिस्से में शान्ति स्थापित कर पायें हैं इसका अभी तक कोई ठोस उदाहरण नही हैं। ईराक और अफगानिस्तान के घाव जल्दी भरने वाले नहीं है। अमेरिका ने जिस फावडे का इस्तेमाल ईराक और अफगानिस्तान के ऊपर किया है पाकिस्तान में भी आतंक की फसल लहलहा रही है । अमेरिका पाकिस्तान के ऊपर इराकी फावडा इस्तेमाल करने के बजाय मरहम दे रहा है। क्या इस लिए शान्ति का पुरस्कार देने के लिए ओबामा को चुना गया है ?

ऐसे में निशित रूप से नोबेल शान्ति पुरस्कार ने ओबामा की नैतिक जिम्मेदारी और प्रतिबध्दता को बढ़ा दिया है। जिससे ओबामा बुश के समान कोई युध्द नहीं छेड़े। अब तो अमेरिका को दूसरे देशों से एन.पी.टी यानी परमाणु अप्रसार संधि में हस्ताक्षर करने के लिए कहने से पहले ओबामा को ख़ुद हस्ताक्षर कर देना चाहिए। क्योंकि वे तो अब शान्ति के मिसाल बन गए हैं।

Wednesday, October 7, 2009

सादा जीवन उच्च विचार हो गए मालामाल

इन दिनों लोकतंत्र के पुजारी (जन-प्रतिनिधि)सादगी पर उतर आए हैं। इनकी सादगी पर कौन मरेगा ,किसका भला होगा, सादगी पर कितना सादापन है । ये एक अलग मुद्दा है। लेकिन राजनीतिक घरानों को कारपोरेट घराने की चमक-दमक शान-शौकत, उच्च वेतन से भौंहें तनी हुयी हैं। कंपनी मामलो के मंत्री सलमान खुर्शीद को सी.ई.ओ। का वेतन कचोट रहा है। साथ ही योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया भी खुर्शीद से इत्तेफाक रखते हैं.मोंटेंक सिंह का कहना है कि सी.ई.ओ को उलूल जुलूल वेतन(indecent salaries) नहीं मिलना चाहिए।
ऐसे में जिम्मेदार पदों पर बैठे इन लोगों से ऐसी बयानबाजी की उम्मीद नहीं की जा सकती है। निजी क्षेत्र की कम्पनियों के उच्च अधिकारयों को काबिलियत ,मेहनत और कंपनी को सफल बनाने में मिलता है। जबकि फाइलों का ढेर ,हाथ में तमंचा, अगल-बगल गुंडे रखने वाले बाहुबली नेता पर लाखों रुपये उड़ते है।
एक नज़र डालते हैं की देश के मंत्री जी को क्या मिलता है ?
- टाइप ८ बँगला,राज्य मंत्रियों को टाइप ७ बंगला
- कोई किराया नहीं, बिजली के बिल पर कोई लगाम नहीं।
-बेसिक सैलरी १६ हज़ार ,डेली भत्ता एक हज़ार
-संसदीय क्षेत्र भत्ता २० हज़ार रुपये।
-- टेलीफोन - दो फ़ोन, एक लाख ७५ हज़ार फ्री कॉल,हर साल ढाई हज़ार रुपये मोबाइल भत्ता,मोबाइल हैंडसेट फ्री, इन्टरनेट ,ख़ुद के लिए जितना चाहे उतना एयर टिकट ।
- परिवार के लिए साल में ४८ यात्राएं
- जितना चाहें उतनी एसी कोच में जर्नी परिवार के साथ।
--- स्टाफ- पर्सनल स्टाफ में १५ लोगों को नियुक्त किया जा सकता है। एक प्राइवेट सेक्रेटरी ,एक एडिशनल पर्सनल सेक्रेटरी दो पर्सनल अस्सिटेंट ,एक हिन्दी स्टेनो ,एक ड्राईवर, एक क्लर्क एक जमादार और एक चपरासी।
(यह केवल मंत्री जी का स्टाफ है मंत्रालय से अलग से स्टाफ मिलता है)
ये हैं देश के जनसेवक जिन्हें देश की सेवा कराने में कितने सेवकों की जरूरत पड़ती है।
अब इनके द्वारा कामो की घोंघा चाल को भी देख लेते हैं
दस साल में-

१९९८- में पी.सी.जैन कमीशन ने वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को रिपोर्ट सौंपी गयी। इसमें १०९ ऐसे कानूनों को चिन्हित किया गया.जिनमें बड़े पैमाने पर बदलाव की जरूरत है.इसी तरह एक समिति ने २५सौ कानूनों का अध्ययन किया १४०० kaanoono को गैर जरूरी बताया।
१९९९ में प्रशासन सुधार विभाग ने ९९ से २००१ के बीच दस मंत्रालयों का अध्ययन किया इसमें आठ हज़ार पद ख़त्म करने १३संगठनो को ख़त्म करने और २४ को नए सिरे से व्यवस्थित करने का सुझाव दिया।
२००३ में सुरेन्द्र नाथ कमिटी ने सरकारी कर्मचारियों की वेतन वृद्धि की प्रक्रिया में सुधार का सुझाव दिया ताकि कर्मचारियों का स्किल मुआयना किया जा सके।
२००५ में कानून मंत्री वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में प्रशासनिक सुधार आयोग बना। आयोग ने चार रिपोर्ट फाइल की। जिसमें आर.टी.आई.क्राइसेस,मैनेजमेंट के साथ गवर्नेस के एथिक्स पर भी एक रिपोर्ट थी। रिपोर्ट पर अभी तक कोई कारवाई नहीं हुई।
आजादी के बाद से अब तक तकरीबन ३० कमिटी और कमीशन बन चुके हैं लेकिन किसी की भी आधी सिफारिशों पर भी अमल नहीं किया गया है। ये हैं हमारे देश केमंत्रियों के कारनामे।
आज कोई भी सांसद या विधायक पद की उम्मेदवारी के समय कितनी संपत्ति है । इसके बाद जब वह जीत जाता है । और फ़िर से जब उम्मेदवार बनता है तो पाँच साल में करोड़ों का मालिक बन बैठता है। हाल ही में नॅशनल इलेक्शन वॉच और एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रेफोर्म्स संगठन ने खुलासा किया कि हरियाणा में उम्मीदवारों की संपत्ति पिछले पाँच साल में पाँच हज़ार फीसदी से अधिक का इजाफा हुआ है। ओमप्रकाश चौटाला की अगुवाई वाले आई.एन.एल.डी.के ५६ प्रत्याशी करोड़पति है। इसी तरह हरियाणा जनहित kaangresh के ४४ और बी.जे.पी .के ४१ करोड़पति उम्मीदवार हैं। इधर महारष्ट्र में भी मुंबई और ठाणे की ६० विधान सभा सीटों पर १२२ करोड़पति उम्मीदवार मैदान मारने की फिराक में हैं। महाराष्ट्र राज्य के सबसे धनी उम्मीदवार अबू आसिम आज़मी हैं जिनकी संपत्ति १२६ करोड़ है। ये संपत्ति देश के भावी विधायकों की हैं।
इधर मंत्री जी फाइव स्टार होटलों में रुके हुए थे। एक दिन में लाखों रुपये का बिल आता था। और सीना तानकर कहते थे कि बिल हम अपनी जेब से भर रहे है। लेकिन जब छीछालेदर होने लगी तो सादगी के पैमाने पर उतर आए। संसद को चलाने में करोड़ों रुपये स्वाहा हो जाते है। आम आदमी तक रुपये में दस पैसे भी पहुँचने पर दस बार आई.सी.यूं.से होकर गुजरता है। जनता के टैक्स के पैसों से ही नेता जी फ्री में उड़ना, फ्री में ठहरने की आदत पड़ गयी है।
अब आते हैं असली मुद्दे पर तो सलमान खुर्शीद ने लोकसभा चुनाव के हलफनामे पर २.६१ करोड़ की संपत्ति दिखाई है। खुर्शीद साहब ख़ुद एक बेहद कामयाब वकील हैं.इसका मतलब मोटी फीस भी जरूर लेते रहे होंगे। क्या वे जनसेवक के नाते फ्री में केस लडेंगे।
आज देश को आज़ाद हुए ६० साल से ज्यादा का समय हो गया है। मुझे अभी तक समझ में नहीं आ रहा है कि देश को ६० साल का बूढा देश कहूं या फ़िर ६० साल का जवान देश। जवान शब्द इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूँ कि हम विकासशील बने हुए हैं यानी की जवानी की दहलीज पर पहुँच रहे हैं। बूढा इस लिए कह रहा हूँ कि सरकार की जो भी योजनायें निकलती हैं वो बूढी हो जाती हैं और फ़िर उस बूढी नब्ज में खून दौडाना मुश्किल हो जाता है। नरेगा नरक बन गया है ये किसी से छिपा नहीं है। नरेगा के जरिये अरबों रूपये वारा-न्यारा हो गए है। सरकारी आंकडे बताते हैं कि देश की पाँच karod जनता को नरेगा का लाभ मिला है। लेकिन सरकारी आंकडे ये नहीं बताते कि कितने लोग नरेगा को छोड़ गाव से शहर की और कूच कर गए हैं। विधायक ,संसद निधि का कमीशन किसी से छिपा नहीं है। सादगी से जीवन व्यतीत कर रहे हैं। और मालामाल हो रहे हैं। कोई हाड़तोड़ मेहनत करता है । रोजगार के अवसर पैदा करता है। पैसा कमाता है तो तो इन घरानों को बर्दाश्त नही होता।

धन्य है ऐसी सादगी।







Thursday, October 1, 2009

कम खर्च का चोला

कम खर्च और भ्रष्टाचार एक बार फ़िर से बहस का मुद्दा बन गया है। बोफोर्स काण्ड में सी.बी.आई. की तोप ही फिस्स हो गयी।और कई दशक से चला आ रहा कांड अब अपने अन्तिम संस्कार पर पहुँच रहा है। सवाल ये है की मंत्री जी फाइव स्टार होटल में हैं और दलील दे रहे हैं कि यहाँ का खर्चा वे अपनी जेब से भर रहे हैं। एक दिन का लाखों में खर्च और करोड़ों का बिल बन चुका था। ऐसे में क्या मंत्री जी की आमदनी इतनी ज्यादा है कि वे इतना व्यय सहन कर सकते हैं। या फ़िर इसका भुगतान कोई अज्ञात व्यक्ति कर रहा हैं।
खैर कम खर्चे में सोनिया गाँधी से लेकर सभी मंत्री सोनिया जी की राह पर निकल पड़े। राहुल बाबा ने तो उड़नखटोला को ही बाय बोल दिया। और रेल से ही निकल पड़े। लेकिन इससे सरकार ने कितने रुपये बचाए। किसका फायदा हुआ। ये भी एक सवाल है। ये वही पार्टी जिसमें महात्मा गाँधी जी ने एक धोती पहनकर पूरा देश घूमा है। ऐसे में आखिरकार इस पार्टी के नेता कैसे पंचसितारा होटल के आदि हो गए कि गांधीजी के सिद्धांत को तिलांजलि दे दी। ख़बर ये भी है कि दो अक्टूबर को कांग्रेसी स्लम में जायेंगे । और बांकी दिन कहाँ रहेंगे। क्या आदिवासी के घर जाकर वहाँ का खाना खाकर खर्चा कम होगा। तो फ़िर सबसे पहले अपने सुरक्षा रक्षक हटा दो। जिस जनता ने चुनकर भेजा है उसी जनता से डर है और सुरक्षा भारी होना चाहिए,ये भी नेताओं की मांग है ।

एक सर्वेक्षण में दावा किया गया है कि सबसे ज्यादा खर्च सरकार, उसके मंत्री और अफसर करते हैं। लगभग ७५ फीसदी राशि तो यही लोग उड़ा देते है। २००७-०८ में केन्द्रीय मंत्रियों द्वारा १८२ करोड़ रुपया खर्च किया गया। यह खर्च २००६ -०७ में १२१ करोड़ और २००५-०६ में ९८ करोड़ का हुआ। यात्रा व्यय पर २००७-०८ में १३८ करोड़ खर्च हुए। २००६-०७ में ८२ करोड़ और २००६-०५ में ६१ करोड़ खर्च हुए। राज्य मंत्रयों के वेतन पर १.७५ करोड़, १.54 करोड़ और १.२० करोड़ खर्च हुए। एक अनुमान के मुताबिक यदि प्रधानमन्त्री पर दस फीसदी की कटौती की जाए तो लगभग १८ से २० करोड़ रुपये की बचत हो सकती है।
ये सारे आंकड़े सीधे खर्च के हैं। इन पर परोक्ष रूप से आंकड़े पाना कठिन है। सुरक्षा और यात्राओं के के दौरान विभिन्न मंत्रालयों द्वारा किए गए खर्च का आंकडा मिलना मुश्किल है। क्योंकि वे विभिन्न मदों में दर्ज होते हैं। एक समय आदर्श स्थिति रहती थी कि प्रसासनिक खर्च ३० फीसदी से ज्यादा मंजूर नहीं होता था। आज लगभग ७० फीसदी प्रसासनिक खर्च हो रहा है। कम खर्च का चोला ओढ़ने वाले विधायक,सांसद क्या संकल्प लेंगे कि वे अपना वेतन और सुविधाएं नहीं बढायेंगे।

Wednesday, September 23, 2009

घर नहीं तो शादी नहीं.

मुंबई की भागदौड़ ज़िन्दगी में आराम फरमाने के लिए किसे एक बेहतरीन आशियाने की जरूरत नहीं होती। लेकिन आप अगर कुवांरे हैं और आप शादी करना चाहते है। तो आपके पास भले ही अच्छी नौकरी हो। लेकिन अगर घर नहीं है तो सकता है की आपकी शादी टूट जायेगी। क्योंकि मुंबई में घर बनाना एक टेढी खीर है। लिहाजा मुंबई जैसे शहर में शादी करने के लिए आवश्यक शैक्षिक योग्यता अब घर हो गया है।ऐसे में अब मुंबई जैसे शहर में वो दिन दूर नहीं रह जायेंगें जब एक शैक्षिक योग्यता और जुड़ जायेगी क्या क्या वो पानी पिला सकता है?
खैर यहाँ बात करना चाहता हूँ यूनिटेक प्रोजेक्ट पर। यूनिटेक ने मुंबई के वरली इलाके में बाज़ार के दाम से ४० फीसदी की सस्ती परियोजना की बुकिंग की शुरुआत की है। कंपनी ने सम्पत्ति के दाम में कटौती नहीं कराने के बजे परियोजना को ही कम कीमत पर पेश किया है। इस कटौती पर बिल्डरों ने कुछ शर्त भी राखी है जिसमें ग्राह्नकों को बुकिंग के समय ही 75 फीसदी रकम अदा करनी होगी। अगर वरली में सम्पत्ति के दाम की चर्चा की जाए तो औसतन १७,००० से २०,००० रुपये प्रति वर्गफुट के बीच है। हालांकि यूनिटेक ने इसके दाम १२ हज़ार से १४ हज़ार रखने का फैसला किया हैं। लेकिन किसी भी निवेशक को इसका फायदे नहीं दिया जायेगा। कंपनी का कहना है की निवेशकों को इस दायरे से अलग रखा जायेगा।
अब कीमत भले ही आपको आकर्षक लग रहीं हो लेकिन लेकिन इस परियोजना को पूरा होने में आपको लंबा इंतज़ार करना पड़ सकता हैं। क्यों की इसकी अनौपचारिक बुकिंग सितम्बर २०१० में शुरू होगी और इसके ४ से ५ साल बाद बनकर तैयार होगा।

ऐसे में अगर आप अपनी ज़िन्दगी में सपनों की रानी लाना चाहते हैं तो मुंबई जैसे शहर में रहकर आप अपनी शैक्षिक योग्यता पूरी कर सकने के लिए आपके पास बेहतर मौका है।

Thursday, August 13, 2009

२० रुपये में स्वाइन फ्लू भगाओ

देश में स्वाइन फ्लू के पाँव पसारते ही देश से साँय-साँय की आवाज़ निकल रही है। इस महामारी से लोग बचने के लिए उपाय ढूढ़ रहे हैं लेकिन महामारी में भी कालाबाजारी का दानव घुस गया है। हालत ये हो गए हैं कि एक तरफ़ स्वाइन फ्लू का कहर जारी है दूसरी तरफ़ कुछ लोग इस फ्लू में ही मजे काट रहे हैं। वैसे तो मुंबई में बरसात के मौसम में आमतौर पर स्टेशन के बाहर मोबाइल के कवर बेंचने का धंधा निकल पड़ता है। लेकिन इस बार मोबाइल कवर बेंचने वाला भी ३-४ रुपये के मास्क को २० रुपये में चिल्ला-चिल्ला कर बेंच रहा है और कह रहा है कि २० रुपये में स्वाइन फ्लू भगाओ। अब इसी को कहतें हैं कि विपत्ति में दुश्मन भी दोस्त बन जाता है लेकिन यहाँ तो मानवाता को तार -तार कराने वाले कालाबाजारियों को क्या कहें जो एक ख़ुद फ्लू के रूप में पैदा हो गए हैं।
दरअसल मास्क की अचानक मांग के चलते बाज़ार में मास्क तीन की जगह तेरह रुपये में बेंचे जा रहे हैं। और लोगों को अपनी जान बचाने के लिए खरीदना पड़ रहा है। बाज़ार में सबसे अच्छी किस्म के मास्क एन -९५ हैं जिनकी कीमत २५० रुपये हैं लेकिन लोगों से ४०० से ६०० रुपये वसूला जा रहा है। और ५ से १० रुपये में बिकने वाले डिस्पोजल मास्क भी दोगुने चुगने दाम पर बिक रहे हैं।
मास्क तीन प्रकार के होते हैं - --- १- पेपर मास्क २- सर्जिकल मास्क ३- एन - ९५ मास्क १० से बारह घटे के इस्तेमाल के बाद बदल देना चाहिए । कीमत २५० से ३०० रुपये।
अब अगर बात की जाए एन - ९५ मास्क की तो एन-95 मास्क बनाने वाली कंपनी किंबर्ली-क्लार्क ने तो मौजूदा मांग पूरी करने में अपनी असमर्थता जता दी है। ये कंपनी हर महीने २००० मास्क बेंच पाती है । और अचानक लाखों में मांग बढ़ने के चलते फिलहाल कंपनी को मांग के अनुरूप मास्क बनाने में वक्त लगेगा। सामान्य स्थितियों में सर्जिकल मास्क का ही इस्तेमाल होता है। एन-95 प्रोटेक्टिव मास्क है। अमेरिका की किंबर्ली-क्लार्क और 3एम एन-95 मास्क के मुख्य उत्पादक हैं। किंबर्ली-क्लार्क के मास्क 70 रुपये में तो 3एम के 150 रुपये में मिलते हैं।
लेकिन मुंबई में तो २० रुपये में स्वाइन फ्लू भगाने का डंका अस्पतालों में बजने के बजाय रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों में बज रहा है.


Friday, July 24, 2009

पानी की बूँद में हड़ताल की फुहार

मुंबई में इन दिनों इन्द्र देवता मेहरबान हैं। सागर उफान मार रहा है। साथ में हड़ताल राज्य सरकार के ऊपर ज्वार भाटा की तरह आ रही है। पहले तो मानसून ने महाराष्ट्र में बहुत देर से दस्तक दी। इसके बाद दस्तक का जो सिलसिला शुरू हुआ वो अभी तक राज्य सरकार के ऊपर मुसीबत बनाकर आता जा रहा है। पहले रेसिडेंट डॉक्टरों ने हड़ताल की। अपनी मांगों पर अड़ गए। और न राज्य सरकार झुकी, न ही डॉक्टर । अंततः सरकार को झुकाना पड़ा और फ़िर तो इसके बाद महाराष्ट्र के सरकारी कर्मचारियों का मिजाज़ ही बदल गया। और अब डाक्टर , शिक्षक हड़ताल पर चले गए है।

वैसे अगर देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय ने बंद और हड़ताल पर पाबंदी लगा रखा है। बावजूद इसके अपनी मांगों को लेकर विभिन्न संगठन गाहे- बगाहे हड़ताल करने से बाज नहीं आ रहे हैं। वे मानकर चलते हैं किअपनी मांगें मनवाने का यही एक रास्ता है। घी कभी सीधी उंगली से नहीं निकलता है। कई श्रम संगठन आज भी हड़ताल को अपना अधिकार मानते हैं। हड़ताल करने वाले कभी ये नहीं सोचते कि हड़ताल करने से आम जनता में क्या असर पड़ेगा। और जनजीवन कितना प्रभावित होगा। जब समझौता और समाधान के सभी रस्ते बंद हो जाए तो हड़ताल करना उनका अन्तिम अस्त्र बनता है।

अगर अतीत में जाएँ तो मुंबई में दत्ता सावंत हड़ताल कराने में अग्रणी थे। उन्होंने कपडा मिल मालिकों की लम्बी हड़ताल कराई थी। इससे फायदा नहीं बल्कि बहुत बड़ा नुकसान हुआ था। मिल मालिक झुके नहीं और मजदूरों पर भुखमरी और बेकारी की नौबत आ गयी। मिल मालिकों ने मिलों की जमीन को बेंचकर अपनी रकम खड़ी कर ली। और मजदूरों के परिवारों पर तबाही टूट पड़ी। हड़ताल जब लम्बी खिचती है तो मालिक या नियोक्ता नहीं बल्कि सीमित साधनों वाला श्रम जीवी वर्ग इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। यानी कि चाकू खरबूजे पर गिरे या फ़िर खरबूजा चाकू पर गिरे। नुकसान खरबूजे का ही होना है।

अभी रेसिडेंट डॉक्टरों का इलाज हुआ ही था कि वैद्यकीय अधिकारी और प्राध्यापक बीमार हो गए हैं। वो भी इन दिनों सरकार से मांगे मनवाने में अडे हुए हैं। ज़ाहिर है इस हड़ताल से मरीजों का इलाज और छात्रों की शिक्षा पर विपरीत असर पडेगा।लेकिन जब सरकार की नीतियां ही ग़लत हो तो असंतोष के बादल फटना लाज़मी है।

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि जब सरकार हड़तालियों की मांगें मान लेती है तो फ़िर आखिरकार सरकार इतना देर क्यों लगाती है। जिससे अव्यवस्था फैलती है। देश का विकास रुक जाता है। और देश आगे बढ़ने के बजाय पीछे की ओर जाता है। अब क्या ये माना जाए कि आज नेताओं में वो क्षमता नहीं है जो विवेक का इस्तेमाल करके किसी समस्या के उत्पन्न होने से पहले उसका समाधान ढूंढ सकें। जब सब कुछ नुकसान हो जाता है तब सरकार के दिमाग की नसें काम करना शुरू करती है। साल भर का लेखा - जोखा लिया जाए तो डॉक्टरों, शिक्षकों,बैंक कर्मियों, एयर लाइंस कर्मचारियों , उद्योग में कार्यरत श्रमिकों की हड़ताल होती ही रहती है। हड़ताल तो विदेशों में भी होती रहती है। लेकिन वहाँ का तरीका अलग है। जापान में एक जूता फैक्ट्री में हड़ताल हुयी तो कर्मचारियों ने अपना विरोध प्रकट कराने के लिए इस दौरान एक ही पैर का जूता बनाया। उन्होंने काम करते हुए अपना विरोध जारी रखा। अंततः प्रबन्धन झुका और मांगें पूरी हो गयी।


अब तो मुंबई में बारिश के मौसम में जहाँ हाई टाइड की धमकी मिलती है तो वही सरकारी कर्मचारी भी पानी की बूँद में हड़ताल की फुहार मार रहे हैं।

Thursday, July 23, 2009

पवार का पावर गुल

भारत एक कृषि प्रधान देश है। यह बात अब केवल किताबों में ही सीमित रह गयी है। कृषि प्रधान देश का झुनझुना बजता रहता है। किसान आत्महत्या करते रहते हैं। खाद्य पदार्थों के दाम आसमान छू रहे हैं। देश वासियों की थाली से आज दाल की कटोरी गायब होती जा रही है। और देश के कृषि मंत्री जी के पास अभी तक कृषि से सम्बंधित कोई नीति नहीं बनी है।

दरअसल किसी नेता की पहचान उसके कार्य कलापों से होती है। केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार भी इसके अपवाद नहीं हैं। महाराष्ट्र की राजनीति के चतुर खिलाड़ी , राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार का मतलब क्रिकेट, शक्कर कारखाने और जमीन तक सीमित रह गया है। और इसी में उनकी रुचि है। यही वजह है की कृषि और किसान उनके चछु से ओझल हैं। अगर वाकई पवार अपना पावर (ताकत) कृषि विभाग पर लगाते तो आज किसान आत्म ह्त्या नहीं करते। जिस तरह रोम जलाता रहा और सम्राट नीग्रो बेफिक्र बासुरी बजाते रहे। वैसे ही शरद पवार भी गेंद-बल्ला और राजनीति में इतने उलझे हुए हैं कि किसानो के प्रति हितैषी नीति बनाने के लिए उनके पास फुरसत ही नहीं मिलती महाराष्ट्र के अलावा अन्य राज्यों में भी किसानो ने आत्म हत्या की है। बुंदेलखंड में तो सूखा पीड़ित किसानो को २५-३० रुपये के चेक देकर उनकी असहायता का माखौला उड़ाया गया है। महाराष्ट्र के कपास ,संतरा उत्पादक किसानो की अत्यन्त दुर्दशा हुई है। कर्ज के बोझ और अपमान जनक तकाजों से तंग आकर हजारों किसानो ने मौत को गले लगाना बेहतर समझा । जबकि पवार को यह देखने का मौका ही नहीं मिला कि किसानो के घर में चूल्हा जला या नहीं। जब ज्यादा मुसीबत आयी तो विदेश से घटिया गेहूं मंगा लिया । जिसे जानवर भी खाए तो मर जाए और इंसानों को परोस दिया। इतने सालों से पवार ने अभी तक ऐसी कोई कृषि नीति नहीं बनायी है जिससे दलहन और तिलहन का उत्पादन बढाया जा सके। आज लोगों की थाली से दाल की कटोरी गायब होती जा रही है। शक्कर के दाम अनाप शनाप हैं। यह गोरख धंधा पवार भी जानते हैं। कृषि मंत्री जी को केवल गन्ना और अंगूर उत्पादक किसान ही नजर आते हैं। कपास उत्पादक किसानो की और वो नहीं देखते।और विदर्भ के किसानो की ओर देखना पसंद ही नहीं करते। अगर अंगूर से बनने वाली शराब को बढ़ावा दिया जा सकता है तो क्या पवार साहब विदर्भ के आदिवासी क्षेत्रों में महुए से मदिरा को बढावा देना क्या ग़लत है? पवार जी को केवल बारामती जिले में ही पूरा देश नज़र आता है।
अब यक्ष सवाल ये उठाता है की आख़िर किसानो को राहत कब मिलेगी। क्या जनता ने गलती कर दिया जो चुनकर भेज दिया ? या फ़िर पवार साहब जानते ही न हों की कृषि क्या बला है?