Tuesday, December 29, 2009

एन.एस.ई.बनाम बी.एस.ई.

नॅशनल स्टाक एक्सचेंज कारोबारी समय बढ़ाने के नाम पर बाज़ार के कारोबारियों और नियामकों को भ्रम के जाल में फंसा रहा हैं। एन.एस.ई.और बी.एस.ई। में कारोबारी समय बढ़ाने की होड़ नहीं हैं। होड़ अपने वर्चस्व और एकाधिकार को साबित करने की हैं।

दरअसल एन.एस.ई। ने बी.एस.ई को कई मामले में पीछे छोड़ दिया हैं। और उसके बाज़ार हिस्से को हड़प लिया हैं। इसलिए बी.एस.ई इससे पहले की कुछ नया कर पाये एन.एस.ई पूरी तरह से हावी होना चाहता हैं। इस कोशिश में भले ही देश का नुकसान हो। बाज़ार के जानकारों के अनुसार एन.एस.ई ने एक बड़ी रणनीति और अपने एकाधिकार के बल पर दूसरे सभी एक्सचेंजों, निवेशकों, बाज़ार के सहभागियों आदि के अलावा पूँजी बाज़ारके नियामकों को भी ताकपर रख दिया हैं। कारोबारी समय बढ़ाने के पीछे एन.एस.ई एस.जी.एक्स। के साथ तालमेल बिठाने का तर्क दे रहा हैं। ताकि एन.एस.ई एस.जी.एक्स में होने वाले निफ्टी के कारोबार को खींच सके। गौरतलब हैं की सिंगापुर एक्सचेंज (एस.जी.एक्स ) में निफ्टी के वायदा सौदे हो रहे हैं। जबकि इन सौदों के लिए एन.एस.ई ने ही एस.जी.एक्स को लाइसेंस दिया हैं। साफ़ हैं किएन.एस.ई को इससे लाइसेंस फीस और ट्रांजैक्शन फीस के रूप में आमदनी हो रही हैं। सिंगापुर एक्सचेंज सुबह साढ़े सात बजे खुलता हैं । और जब tak भारत के एक्सचेंज खुलते हैं, एस.जी.एक्स में निफ्टी के अच्छे खासे वायदा सौदे हो जाते हैं। अब एन.एस.ई चाहता हैं कि ये सौदे उसके एक्सचेंज पर हों,इसलिए उसने भारतीय एक्सचेंज सुबह नौ बजे खुलने का राग अलापने लगा हैं। और सेबी और ब्रोकरों के सामने आवाज़ उठाना शुरू कर दिया हैं। कि भारत के सौदे एस जी एक्स में जा रहे हैं। एन.एस.ई चाहता तो एस.जी.एक्स के साथ मिलकर निफ्टी के अनुबंधों को संशोधित करके भारतीय समय के अनुकूल बना सकता था। और यदि एस.जी.एक्स को इसमें कोई एतराज होता तो एन.एस.ई उक्त अनुबंध को रद्द भी कर सकता था। लेकिन वह ऐसा नहीं कर रहा हैं।
एन.एस.ई ने अपने हित में सेबी को सुबह नौ बजे एक्सचेंज खोलने का प्रस्ताव किया हैं। जबकि एस.जी.एक्स भारतीय समय से ढाई घंटे पहले खुलता हैं। सिंगापूर एक्सचेंज में नौ बजे खुलने के समय भारत में सुबह साढ़े सात बजे होते हैं। सपष्ट हैं भारत के एक्सचेंजों के ९ बजे खुलने पर भी सिंगापुर के ढाई घंटे के सौदे को एन.एस.ई कवर नहीं कर पायेगा।
यदि कवर हो भी जाए तो इससे देश को क्या हाशिल होगा? सिवाय सट्टेबाजी के वर्चस्व की इस लड़ाई का खामियाजा आम निवेशकों, छोटे कारोबारियों और कर्मचारियों को ही भुगतना हैं। ट्रेडिंग बढ़ने से फ़ायदा केवल विदेशी निवेशकों और एक्सचेंजों को ही होगा। इसलिए शेयर बाजारों में कारोबारी समय बढ़ाना कतई उचित नहीं होगा।





Tuesday, December 15, 2009

तेलंगाना जैसी पाइप लाइनों में भड़की आग

देश में २९ वें राज्य के रूप में तेलंगाना के उदय होने से तेलंगाना जैसी पाइप लाइनेगरम होना शुरू हो चुकी हैं। जिस पाइप लाइन से पहले धुंआ निकलता था। और पृथक राज्य बनाए जाने की मांग शैनः शैनः हो रही थी। अब वहाँ चिंगारी निकालनी शुरू हो गयी हैं। एक ओर जहाँ महाराष्ट्र में विदर्भ को अलग कराने के लिए बीजेपी ने आन्दोलन को राशन पानी देना शुरू कर दिया हैं। तो उत्तर-प्रदेश में मायावती ने भी हरित प्रदेश और बुंदेलखंड को पृथक राज्य बनाये जाने की मांग को हवा पानी देना शुरू कर दिया हैं। मायावती ने तो प्रधानमन्त्री को पत्र लिखकर अलग राज्य बनाये जाने की मांग भी कर डाली हैं।
दरअसल तेलंगाना को अलग राज्य बनाए जाने की हरी झंडी मिलना जनाकांक्षाओं की जीत हैं। चंद्र शेखर राव के तेजस्वी और जोशीले नेतृतवमें केवल आठ वर्षों में तेलंगाना नेतृत्व अपनी लक्ष्य प्राप्ति तक जा पहुचा। और विदर्भ, बुंदेलखंड और हरित प्रदेश को बनाए जाने के आन्दोलन में नयी जान आ गयी। अगर तेंगाना के बारे में जाने तो तेलंगाना का तात्पर्य हैं - तेलगू की भूमि। महाभारत में तेलंगाना के लिए तेलिंगा राज्य का जिक्र किया गया हैं। और यहाँ के निवासियों को तेल्वाना से संबोधित किया गया हैं। माहाभारत और रामायण दोनों में तेलंगाना का उल्लेख मिलता हैं।
वैसे पृथकका आन्दोलन १९६९ में शुरू हुआ था। लेकिन इसे दबा दिया गया। १९९८ के विधान सभा चुनाव में भाजपा ने एक वोट दो राज्य का नारा देकर आन्दोलन को तेल देना शुरू कर दिया। २००१ में केचंद्रशेखर राव के नेतृत्व में तेलंगाना राष्ट्र समिति का गठन हुआ। आन्ध्र प्रदेश विधान सभा की २९४ सीटों में से ११९ सीटें तेलंगाना की हैं। इसी तरह आंध्र प्रदेश की ४२ लोकसभा सीटों में से १७ तेलंगाना की हैं। राव के आमरण अनशन ने केन्द्र सरकार की हवा निकल दी। राव के दृढ विश्वाश और फौलादी इरादों की बदौलत मनमोहन सरकार को अलग राज्य बनाये जाने का सिगनल देना पड़ा॥
जाहिर हैं दिल्ली दरबार के सिग्नल देते ही नागपुर में चल रहे शीतकालीन सत्र में रोशनी की आस जाग गयी। और मायावती ने भी केन्द्र सरकार के पाले में यार्कर गेंद फेंक दी। क्योंकि राहुल बाबा बुंदेलखंड का गुणगान करते की मायावती भंजाने के फिराक में जुट गयी।

अब एक नजर डालते हैं की पाइप लाइन में कितने हैं तेलंगाना-
बुंदेलखंड - पिछले ५० साल से अलग बुंदेलखंड बनाये जाने को लेकर आन्दोलन चल रहा हैं। इलाके की आबादी तकरीबन ६ करोड़ से ऊपर हैं इसका कुछ हिस्सा उत्तर परदेश का हैं तो कुछ मध्य प्रदेश का हैं। अपार खनिज संपदा होने के बावजूद यह इलका काफ़ी पिछड़ा हुआ हैं और गरीब हैं। यहाँ किसानों के नाम पर अलग राज्य की मांग उठती रही हैं।
पूर्वांचल - उत्तर मध्य भारत का यह हिस्सा यूंपी के पूर्वी छोर पर बसा हैं। यह उत्तर में नेपाल पूर्व में बिहार दक्षिण में मध्य प्रदेश बुंदेलखंड क्षेत्र और पश्चिम में यूपी के अवध क्षेत्र से लगा हुआ हैं। पूराव्चल के तीन भाग हैं पश्चिम में अवधी क्षेत्र, पूर्व में भोजपुरी और दक्षिण में बुंदेलखंड क्षेत्र।
विदर्भ - पूर्वी महाराष्ट्र का यह इलाका अमरावती और नागपुर डिवीजन से मिलकर बना हैं। यहाँ अलग राज्य की मांग के पीछे राज्य सरकार द्वारा क्षेत्र की उपेक्षा बड़ा कारन हैं। एन.के.पी साल्वे और वसंत साथे अलग राज्य की मांग के हक़ में हैं। लेकिन राजनीतिक हलकों ने इसकी खास रुचि नहीं दिखाई। हालाँकि युति में बीजेपी ने अलग राज्य बनाये जाने की मांग को जोर दिया हैं। लेकिन शिवसेना संयुक्त महाराष्ट चाहती हैं।

हरित प्रदेश - पश्चिम यूपी के जिलों को मिलाकर अलग हरित प्रदेश या पश्चिमांचल बनने की मांग उठती रही हैं। हालाँकि १९५५ में बी आर अमेडकर ने तीन हिस्सों में बांटने की वकालत की थी। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। पर अलग-अलग राज्य बनाये जाने की मांग आज भी जिन्दा हैं। और इसे अजीत सिंह की पार्टी राष्ट्रीय लोक दल पुरजोर तरीके से तेल पानी दे रही हैं।
बोडोलैंड - असममें अलग राज्य बोडोलैंड के गठन की मांग ६० के दशक से चली आ रही हैं। बोडोलैंड की सीमायें ब्रम्हपुत्र नदी के उत्तरी छोर से लेकर भूटान और अरुणाचल प्रदेश से लगे तराई वाले इलाके तक हैं। इलाके की ज्यादातर आबादी बोडो भाषी हैं।
रायलसीमा- आन्ध्र प्रदेश के इस इलाके में कुरनूल, कडपा,अंतपुर,चित्तूर,नेल्लोर और प्रकाशम् जिले का कुछ क्षेत्र आता हैं। इस इलाके से राज्य के कई सी एम् रहे चुके हैं। इनमें वाई.एस आर रेद्द्दी और चंद्र बाबू का नाम भी शामिल हैं।

सौराष्ट्र- गुजरात के इस अंदरूनी हिस्से की अलग राज्य के गठन की मांग ज्यद्फातर बुलंद नहीं रही। इसकी वजह लोगों की एक्जुता और लोगों की सम्पन्नता भी रही हैं। साथ ही सौराष्ट्र में आम गुजराती बोली बोली जाती हैं। और संस्कृति और परम्परा भी आम गुजरती की तरह ही हैं।
मिथिलांचल- नेपाल से सटे कुछ इलाकों के अलावा बिहार का आधे से ज्यादा इलाका मिथिलांचल क्षेत्र में आता हैं। इसके बड़े शहरों में जनकपुर, दरभंगा,मधुबनी,समस्तीपुर,मधेपुरा,बेगुसराय,सीतामढी,वैशाली,मुंगेर शामिल हैं। मिथिलांचल मूल रूप से मिथिली भाषी इलाका हैं। अलग पारम्परिक लिपि होने के कारण मैथिली बोलने वालों की तादाद ४.५ करोड़ हैं।
गोरखालैंड- हालांकि दार्जिलिंग गोरखा हिल कौंसिल के तहत गोरखा लैंड को कुछ स्वायत्ता मिली हुयी हैं। पर दार्जलिंग और आसपास के क्षेत्र के लोगों की आक्शान्यें पूरी नहीं हो सकी हैं। यही वजह हैं की एक अलग राज्य मांग यहाँ जोर पकड़ रही हैं। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा इस मान का झंडा बुलद किए हुए हैं।
कुर्ग- कर्नाटक में कुर्ग राज्य बनाने की मान मूलतः इस प्रदेश की संस्कृति विशिष्टता के कारन हैं.बांकी जगह की तरह यहान्न अलग राज्य की मांग के लिए भेदभाव नहीं हैं। हालाँकि ५० के दसक में इसके गठन की मांग उठाती रही हैं। पर इसने कभी मुखर रूप नहीं लिया। शायद इसकी वजह इस क्षेत्र का अधिक संपन्न होना भी रहा।
तुलुनादू-यह कर्नाटक और केरल का वह इअलाका हैं जो अपनी अलग संस्कृति और भाषाई पहचान रखता हैं। तुलु भाषी लोगों की संस्कृति कर्नाटक से काफी भिन्न हैं। क्षेत्र के वासियों की पहचान को बचाने और उपेक्षा की भावना को ख़त्म करने के लिए कर्णाटक और केरल सरकार ने तुलु साहित्य अकादमी भी बनाई हैं।

Wednesday, October 14, 2009

नोबेल नहीं, दूसरा बुश न पैदा हो

जिस पुरस्कार से महात्मा गाँधी या पंडित जवाहर लाल नेहरू को नहीं नवाजा गया । वह अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा को सिर्फ़ नौ माह के कार्यकाल में ही मिल गया। जबकि फ़िल्म अभी पूरी बांकी है।
अगर नोबेल के बारे में बात की जाए तो विभिन्न क्षेत्रों में नोबेल पुरस्कार प्रतिवर्ष स्वीडिश रसायन शास्त्री अल्फ्रेड बर्नार्ड नोबेल (१८३३-९६) की स्मृति में उनकी पुण्यतिथि (१० दिसम्बर)के अवसर पर स्वीडन की राजधानी स्टाकहोम और नार्वे की राजधानी ओस्लो में दिए जाते हैं। नोबेल ने एक कोष बनाया था। जिसके धन के ब्याज से पुरस्कार की राशि आती है। यह पुरस्कार उन लोगों को दिया जाता है जिन्होंने मानवता के हित के लिए भौतिक शास्त्र ,रसायन शास्त्र,शारीरिक क्रिया विज्ञान ,चिकत्सा विज्ञान और विश्व शान्ति में योगदान किया हो.ऐ.बी.नोबेल ने नाइट्रोग्लिसरीन की खोज की। और इसका उपयोग विस्फोटक बनाने में किया गया।

आर्थिक विज्ञान के लिए नोबेल पुरस्कार सन १९६७ में ' रिक्स्वांड दी सेन्ट्रल बैंक ऑफ़ स्वीडन द्वारा इसकी ३०० वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में स्थापित किया गया। सभी पुरस्कार १९०१ ईसवी से प्रारम्भ हुए। परन्तु अर्थशाश्त्र के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार सर्वप्रथम १९६९ में दिया गया।
भौतिक शास्त्र और रसायन शास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार स्वीडिश एकेडमी ऑफ़ साइंस द्वारा दिया जाता है। जबकि चिकत्सा और शारीरिक क्रिया विज्ञान के लिए पुरस्कार 'स्टाक होम फैकल्टी ऑफ़ मेडीसिन ' द्वारा दिया जाता है।
साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिए चयन स्वीडिश एकेडमी ऑफ़ लिटरेचर द्वारा किया जाता है।
शान्ति के क्षेत्र में इस पुरस्कार हेतु निर्णय नार्वे की संसद के पाँच निर्वाचित प्रतिनिधि करते है। कोष का प्रबंध बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स द्वारा किया जाता है। जिसका अध्यक्ष स्वीडन सरकार द्वारा नियुक्त किया जाता है। साल २००१ से १०० वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में प्रत्येक वर्ग में विजेताओं को पुरस्कार स्वरुप एक -एक करोड़ स्वीडिश क्रोनर (लगभग ४.७५ करोड़) रुपये की राशि दी जाती है।

ओबामा को पुरस्कार मिलने पर वे ख़ुद आश्चर्य चकित हैं ओबामा ने कहा है कि - मुझे नहीं लगता कि इस पुरस्कार से सम्मानित अनेक युगांतकारी हस्तियों की कतार में मैं कहीं स्वयं को पाता हूँ। ओबामा के इस कथन से उनकी ईमानदारी झलकती है। क्यों कि बहुत से अमेरिकी मानते होंगे कि उन्हें ये पुरस्कार समय से कुछ पहले ही मिल गया है।ओबामा अमेरिका के तीसरे राष्ट्रपति हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके पहले वुडरो विल्सन और फ्रेंकलिन रूजवेल्ट को नोबेल मिल चुका है।

अब दिमाग में ये सवाल कौंध रहा है कि ओबामा ने ऐसा कौन सा शांतिकुंज स्थापित कर दिया है जिससे नोबेल देने की घोषणा कर दी गयी है। अलकायदा और तालिबान के ख़िलाफ़ अमेरिका को अब तक सफलता नहीं मिली हैं। अगर ओबामा विश्व शान्ति के प्रति इतने गंभीर और ईमानदार हैं तो पाकिस्तान को दी जाने वाली सहायता राशि तिगुनी नहीं होती। जबकि ओबामा भली भांति जानते हैं कि पाकिस्तान इस राशि का उपयोग भारत के ख़िलाफ़ आतंक की फसल उगाने में करता है। पश्चिम एशिया में शान्ति स्थापना का अर्थ है इजरायल को मजबूत करना। तो क्या नोबेल पुरस्कार समिति पर कोई दबाव था कि इस साल नोबेल पुरस्कार ओबामा कि दिया जाए। ओबामा दुनिया के किस हिस्से में शान्ति स्थापित कर पायें हैं इसका अभी तक कोई ठोस उदाहरण नही हैं। ईराक और अफगानिस्तान के घाव जल्दी भरने वाले नहीं है। अमेरिका ने जिस फावडे का इस्तेमाल ईराक और अफगानिस्तान के ऊपर किया है पाकिस्तान में भी आतंक की फसल लहलहा रही है । अमेरिका पाकिस्तान के ऊपर इराकी फावडा इस्तेमाल करने के बजाय मरहम दे रहा है। क्या इस लिए शान्ति का पुरस्कार देने के लिए ओबामा को चुना गया है ?

ऐसे में निशित रूप से नोबेल शान्ति पुरस्कार ने ओबामा की नैतिक जिम्मेदारी और प्रतिबध्दता को बढ़ा दिया है। जिससे ओबामा बुश के समान कोई युध्द नहीं छेड़े। अब तो अमेरिका को दूसरे देशों से एन.पी.टी यानी परमाणु अप्रसार संधि में हस्ताक्षर करने के लिए कहने से पहले ओबामा को ख़ुद हस्ताक्षर कर देना चाहिए। क्योंकि वे तो अब शान्ति के मिसाल बन गए हैं।

Wednesday, October 7, 2009

सादा जीवन उच्च विचार हो गए मालामाल

इन दिनों लोकतंत्र के पुजारी (जन-प्रतिनिधि)सादगी पर उतर आए हैं। इनकी सादगी पर कौन मरेगा ,किसका भला होगा, सादगी पर कितना सादापन है । ये एक अलग मुद्दा है। लेकिन राजनीतिक घरानों को कारपोरेट घराने की चमक-दमक शान-शौकत, उच्च वेतन से भौंहें तनी हुयी हैं। कंपनी मामलो के मंत्री सलमान खुर्शीद को सी.ई.ओ। का वेतन कचोट रहा है। साथ ही योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया भी खुर्शीद से इत्तेफाक रखते हैं.मोंटेंक सिंह का कहना है कि सी.ई.ओ को उलूल जुलूल वेतन(indecent salaries) नहीं मिलना चाहिए।
ऐसे में जिम्मेदार पदों पर बैठे इन लोगों से ऐसी बयानबाजी की उम्मीद नहीं की जा सकती है। निजी क्षेत्र की कम्पनियों के उच्च अधिकारयों को काबिलियत ,मेहनत और कंपनी को सफल बनाने में मिलता है। जबकि फाइलों का ढेर ,हाथ में तमंचा, अगल-बगल गुंडे रखने वाले बाहुबली नेता पर लाखों रुपये उड़ते है।
एक नज़र डालते हैं की देश के मंत्री जी को क्या मिलता है ?
- टाइप ८ बँगला,राज्य मंत्रियों को टाइप ७ बंगला
- कोई किराया नहीं, बिजली के बिल पर कोई लगाम नहीं।
-बेसिक सैलरी १६ हज़ार ,डेली भत्ता एक हज़ार
-संसदीय क्षेत्र भत्ता २० हज़ार रुपये।
-- टेलीफोन - दो फ़ोन, एक लाख ७५ हज़ार फ्री कॉल,हर साल ढाई हज़ार रुपये मोबाइल भत्ता,मोबाइल हैंडसेट फ्री, इन्टरनेट ,ख़ुद के लिए जितना चाहे उतना एयर टिकट ।
- परिवार के लिए साल में ४८ यात्राएं
- जितना चाहें उतनी एसी कोच में जर्नी परिवार के साथ।
--- स्टाफ- पर्सनल स्टाफ में १५ लोगों को नियुक्त किया जा सकता है। एक प्राइवेट सेक्रेटरी ,एक एडिशनल पर्सनल सेक्रेटरी दो पर्सनल अस्सिटेंट ,एक हिन्दी स्टेनो ,एक ड्राईवर, एक क्लर्क एक जमादार और एक चपरासी।
(यह केवल मंत्री जी का स्टाफ है मंत्रालय से अलग से स्टाफ मिलता है)
ये हैं देश के जनसेवक जिन्हें देश की सेवा कराने में कितने सेवकों की जरूरत पड़ती है।
अब इनके द्वारा कामो की घोंघा चाल को भी देख लेते हैं
दस साल में-

१९९८- में पी.सी.जैन कमीशन ने वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा को रिपोर्ट सौंपी गयी। इसमें १०९ ऐसे कानूनों को चिन्हित किया गया.जिनमें बड़े पैमाने पर बदलाव की जरूरत है.इसी तरह एक समिति ने २५सौ कानूनों का अध्ययन किया १४०० kaanoono को गैर जरूरी बताया।
१९९९ में प्रशासन सुधार विभाग ने ९९ से २००१ के बीच दस मंत्रालयों का अध्ययन किया इसमें आठ हज़ार पद ख़त्म करने १३संगठनो को ख़त्म करने और २४ को नए सिरे से व्यवस्थित करने का सुझाव दिया।
२००३ में सुरेन्द्र नाथ कमिटी ने सरकारी कर्मचारियों की वेतन वृद्धि की प्रक्रिया में सुधार का सुझाव दिया ताकि कर्मचारियों का स्किल मुआयना किया जा सके।
२००५ में कानून मंत्री वीरप्पा मोइली के नेतृत्व में प्रशासनिक सुधार आयोग बना। आयोग ने चार रिपोर्ट फाइल की। जिसमें आर.टी.आई.क्राइसेस,मैनेजमेंट के साथ गवर्नेस के एथिक्स पर भी एक रिपोर्ट थी। रिपोर्ट पर अभी तक कोई कारवाई नहीं हुई।
आजादी के बाद से अब तक तकरीबन ३० कमिटी और कमीशन बन चुके हैं लेकिन किसी की भी आधी सिफारिशों पर भी अमल नहीं किया गया है। ये हैं हमारे देश केमंत्रियों के कारनामे।
आज कोई भी सांसद या विधायक पद की उम्मेदवारी के समय कितनी संपत्ति है । इसके बाद जब वह जीत जाता है । और फ़िर से जब उम्मेदवार बनता है तो पाँच साल में करोड़ों का मालिक बन बैठता है। हाल ही में नॅशनल इलेक्शन वॉच और एसोसियेशन फॉर डेमोक्रेटिक रेफोर्म्स संगठन ने खुलासा किया कि हरियाणा में उम्मीदवारों की संपत्ति पिछले पाँच साल में पाँच हज़ार फीसदी से अधिक का इजाफा हुआ है। ओमप्रकाश चौटाला की अगुवाई वाले आई.एन.एल.डी.के ५६ प्रत्याशी करोड़पति है। इसी तरह हरियाणा जनहित kaangresh के ४४ और बी.जे.पी .के ४१ करोड़पति उम्मीदवार हैं। इधर महारष्ट्र में भी मुंबई और ठाणे की ६० विधान सभा सीटों पर १२२ करोड़पति उम्मीदवार मैदान मारने की फिराक में हैं। महाराष्ट्र राज्य के सबसे धनी उम्मीदवार अबू आसिम आज़मी हैं जिनकी संपत्ति १२६ करोड़ है। ये संपत्ति देश के भावी विधायकों की हैं।
इधर मंत्री जी फाइव स्टार होटलों में रुके हुए थे। एक दिन में लाखों रुपये का बिल आता था। और सीना तानकर कहते थे कि बिल हम अपनी जेब से भर रहे है। लेकिन जब छीछालेदर होने लगी तो सादगी के पैमाने पर उतर आए। संसद को चलाने में करोड़ों रुपये स्वाहा हो जाते है। आम आदमी तक रुपये में दस पैसे भी पहुँचने पर दस बार आई.सी.यूं.से होकर गुजरता है। जनता के टैक्स के पैसों से ही नेता जी फ्री में उड़ना, फ्री में ठहरने की आदत पड़ गयी है।
अब आते हैं असली मुद्दे पर तो सलमान खुर्शीद ने लोकसभा चुनाव के हलफनामे पर २.६१ करोड़ की संपत्ति दिखाई है। खुर्शीद साहब ख़ुद एक बेहद कामयाब वकील हैं.इसका मतलब मोटी फीस भी जरूर लेते रहे होंगे। क्या वे जनसेवक के नाते फ्री में केस लडेंगे।
आज देश को आज़ाद हुए ६० साल से ज्यादा का समय हो गया है। मुझे अभी तक समझ में नहीं आ रहा है कि देश को ६० साल का बूढा देश कहूं या फ़िर ६० साल का जवान देश। जवान शब्द इसलिए इस्तेमाल कर रहा हूँ कि हम विकासशील बने हुए हैं यानी की जवानी की दहलीज पर पहुँच रहे हैं। बूढा इस लिए कह रहा हूँ कि सरकार की जो भी योजनायें निकलती हैं वो बूढी हो जाती हैं और फ़िर उस बूढी नब्ज में खून दौडाना मुश्किल हो जाता है। नरेगा नरक बन गया है ये किसी से छिपा नहीं है। नरेगा के जरिये अरबों रूपये वारा-न्यारा हो गए है। सरकारी आंकडे बताते हैं कि देश की पाँच karod जनता को नरेगा का लाभ मिला है। लेकिन सरकारी आंकडे ये नहीं बताते कि कितने लोग नरेगा को छोड़ गाव से शहर की और कूच कर गए हैं। विधायक ,संसद निधि का कमीशन किसी से छिपा नहीं है। सादगी से जीवन व्यतीत कर रहे हैं। और मालामाल हो रहे हैं। कोई हाड़तोड़ मेहनत करता है । रोजगार के अवसर पैदा करता है। पैसा कमाता है तो तो इन घरानों को बर्दाश्त नही होता।

धन्य है ऐसी सादगी।







Thursday, October 1, 2009

कम खर्च का चोला

कम खर्च और भ्रष्टाचार एक बार फ़िर से बहस का मुद्दा बन गया है। बोफोर्स काण्ड में सी.बी.आई. की तोप ही फिस्स हो गयी।और कई दशक से चला आ रहा कांड अब अपने अन्तिम संस्कार पर पहुँच रहा है। सवाल ये है की मंत्री जी फाइव स्टार होटल में हैं और दलील दे रहे हैं कि यहाँ का खर्चा वे अपनी जेब से भर रहे हैं। एक दिन का लाखों में खर्च और करोड़ों का बिल बन चुका था। ऐसे में क्या मंत्री जी की आमदनी इतनी ज्यादा है कि वे इतना व्यय सहन कर सकते हैं। या फ़िर इसका भुगतान कोई अज्ञात व्यक्ति कर रहा हैं।
खैर कम खर्चे में सोनिया गाँधी से लेकर सभी मंत्री सोनिया जी की राह पर निकल पड़े। राहुल बाबा ने तो उड़नखटोला को ही बाय बोल दिया। और रेल से ही निकल पड़े। लेकिन इससे सरकार ने कितने रुपये बचाए। किसका फायदा हुआ। ये भी एक सवाल है। ये वही पार्टी जिसमें महात्मा गाँधी जी ने एक धोती पहनकर पूरा देश घूमा है। ऐसे में आखिरकार इस पार्टी के नेता कैसे पंचसितारा होटल के आदि हो गए कि गांधीजी के सिद्धांत को तिलांजलि दे दी। ख़बर ये भी है कि दो अक्टूबर को कांग्रेसी स्लम में जायेंगे । और बांकी दिन कहाँ रहेंगे। क्या आदिवासी के घर जाकर वहाँ का खाना खाकर खर्चा कम होगा। तो फ़िर सबसे पहले अपने सुरक्षा रक्षक हटा दो। जिस जनता ने चुनकर भेजा है उसी जनता से डर है और सुरक्षा भारी होना चाहिए,ये भी नेताओं की मांग है ।

एक सर्वेक्षण में दावा किया गया है कि सबसे ज्यादा खर्च सरकार, उसके मंत्री और अफसर करते हैं। लगभग ७५ फीसदी राशि तो यही लोग उड़ा देते है। २००७-०८ में केन्द्रीय मंत्रियों द्वारा १८२ करोड़ रुपया खर्च किया गया। यह खर्च २००६ -०७ में १२१ करोड़ और २००५-०६ में ९८ करोड़ का हुआ। यात्रा व्यय पर २००७-०८ में १३८ करोड़ खर्च हुए। २००६-०७ में ८२ करोड़ और २००६-०५ में ६१ करोड़ खर्च हुए। राज्य मंत्रयों के वेतन पर १.७५ करोड़, १.54 करोड़ और १.२० करोड़ खर्च हुए। एक अनुमान के मुताबिक यदि प्रधानमन्त्री पर दस फीसदी की कटौती की जाए तो लगभग १८ से २० करोड़ रुपये की बचत हो सकती है।
ये सारे आंकड़े सीधे खर्च के हैं। इन पर परोक्ष रूप से आंकड़े पाना कठिन है। सुरक्षा और यात्राओं के के दौरान विभिन्न मंत्रालयों द्वारा किए गए खर्च का आंकडा मिलना मुश्किल है। क्योंकि वे विभिन्न मदों में दर्ज होते हैं। एक समय आदर्श स्थिति रहती थी कि प्रसासनिक खर्च ३० फीसदी से ज्यादा मंजूर नहीं होता था। आज लगभग ७० फीसदी प्रसासनिक खर्च हो रहा है। कम खर्च का चोला ओढ़ने वाले विधायक,सांसद क्या संकल्प लेंगे कि वे अपना वेतन और सुविधाएं नहीं बढायेंगे।

Wednesday, September 23, 2009

घर नहीं तो शादी नहीं.

मुंबई की भागदौड़ ज़िन्दगी में आराम फरमाने के लिए किसे एक बेहतरीन आशियाने की जरूरत नहीं होती। लेकिन आप अगर कुवांरे हैं और आप शादी करना चाहते है। तो आपके पास भले ही अच्छी नौकरी हो। लेकिन अगर घर नहीं है तो सकता है की आपकी शादी टूट जायेगी। क्योंकि मुंबई में घर बनाना एक टेढी खीर है। लिहाजा मुंबई जैसे शहर में शादी करने के लिए आवश्यक शैक्षिक योग्यता अब घर हो गया है।ऐसे में अब मुंबई जैसे शहर में वो दिन दूर नहीं रह जायेंगें जब एक शैक्षिक योग्यता और जुड़ जायेगी क्या क्या वो पानी पिला सकता है?
खैर यहाँ बात करना चाहता हूँ यूनिटेक प्रोजेक्ट पर। यूनिटेक ने मुंबई के वरली इलाके में बाज़ार के दाम से ४० फीसदी की सस्ती परियोजना की बुकिंग की शुरुआत की है। कंपनी ने सम्पत्ति के दाम में कटौती नहीं कराने के बजे परियोजना को ही कम कीमत पर पेश किया है। इस कटौती पर बिल्डरों ने कुछ शर्त भी राखी है जिसमें ग्राह्नकों को बुकिंग के समय ही 75 फीसदी रकम अदा करनी होगी। अगर वरली में सम्पत्ति के दाम की चर्चा की जाए तो औसतन १७,००० से २०,००० रुपये प्रति वर्गफुट के बीच है। हालांकि यूनिटेक ने इसके दाम १२ हज़ार से १४ हज़ार रखने का फैसला किया हैं। लेकिन किसी भी निवेशक को इसका फायदे नहीं दिया जायेगा। कंपनी का कहना है की निवेशकों को इस दायरे से अलग रखा जायेगा।
अब कीमत भले ही आपको आकर्षक लग रहीं हो लेकिन लेकिन इस परियोजना को पूरा होने में आपको लंबा इंतज़ार करना पड़ सकता हैं। क्यों की इसकी अनौपचारिक बुकिंग सितम्बर २०१० में शुरू होगी और इसके ४ से ५ साल बाद बनकर तैयार होगा।

ऐसे में अगर आप अपनी ज़िन्दगी में सपनों की रानी लाना चाहते हैं तो मुंबई जैसे शहर में रहकर आप अपनी शैक्षिक योग्यता पूरी कर सकने के लिए आपके पास बेहतर मौका है।

Thursday, August 13, 2009

२० रुपये में स्वाइन फ्लू भगाओ

देश में स्वाइन फ्लू के पाँव पसारते ही देश से साँय-साँय की आवाज़ निकल रही है। इस महामारी से लोग बचने के लिए उपाय ढूढ़ रहे हैं लेकिन महामारी में भी कालाबाजारी का दानव घुस गया है। हालत ये हो गए हैं कि एक तरफ़ स्वाइन फ्लू का कहर जारी है दूसरी तरफ़ कुछ लोग इस फ्लू में ही मजे काट रहे हैं। वैसे तो मुंबई में बरसात के मौसम में आमतौर पर स्टेशन के बाहर मोबाइल के कवर बेंचने का धंधा निकल पड़ता है। लेकिन इस बार मोबाइल कवर बेंचने वाला भी ३-४ रुपये के मास्क को २० रुपये में चिल्ला-चिल्ला कर बेंच रहा है और कह रहा है कि २० रुपये में स्वाइन फ्लू भगाओ। अब इसी को कहतें हैं कि विपत्ति में दुश्मन भी दोस्त बन जाता है लेकिन यहाँ तो मानवाता को तार -तार कराने वाले कालाबाजारियों को क्या कहें जो एक ख़ुद फ्लू के रूप में पैदा हो गए हैं।
दरअसल मास्क की अचानक मांग के चलते बाज़ार में मास्क तीन की जगह तेरह रुपये में बेंचे जा रहे हैं। और लोगों को अपनी जान बचाने के लिए खरीदना पड़ रहा है। बाज़ार में सबसे अच्छी किस्म के मास्क एन -९५ हैं जिनकी कीमत २५० रुपये हैं लेकिन लोगों से ४०० से ६०० रुपये वसूला जा रहा है। और ५ से १० रुपये में बिकने वाले डिस्पोजल मास्क भी दोगुने चुगने दाम पर बिक रहे हैं।
मास्क तीन प्रकार के होते हैं - --- १- पेपर मास्क २- सर्जिकल मास्क ३- एन - ९५ मास्क १० से बारह घटे के इस्तेमाल के बाद बदल देना चाहिए । कीमत २५० से ३०० रुपये।
अब अगर बात की जाए एन - ९५ मास्क की तो एन-95 मास्क बनाने वाली कंपनी किंबर्ली-क्लार्क ने तो मौजूदा मांग पूरी करने में अपनी असमर्थता जता दी है। ये कंपनी हर महीने २००० मास्क बेंच पाती है । और अचानक लाखों में मांग बढ़ने के चलते फिलहाल कंपनी को मांग के अनुरूप मास्क बनाने में वक्त लगेगा। सामान्य स्थितियों में सर्जिकल मास्क का ही इस्तेमाल होता है। एन-95 प्रोटेक्टिव मास्क है। अमेरिका की किंबर्ली-क्लार्क और 3एम एन-95 मास्क के मुख्य उत्पादक हैं। किंबर्ली-क्लार्क के मास्क 70 रुपये में तो 3एम के 150 रुपये में मिलते हैं।
लेकिन मुंबई में तो २० रुपये में स्वाइन फ्लू भगाने का डंका अस्पतालों में बजने के बजाय रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों में बज रहा है.


Friday, July 24, 2009

पानी की बूँद में हड़ताल की फुहार

मुंबई में इन दिनों इन्द्र देवता मेहरबान हैं। सागर उफान मार रहा है। साथ में हड़ताल राज्य सरकार के ऊपर ज्वार भाटा की तरह आ रही है। पहले तो मानसून ने महाराष्ट्र में बहुत देर से दस्तक दी। इसके बाद दस्तक का जो सिलसिला शुरू हुआ वो अभी तक राज्य सरकार के ऊपर मुसीबत बनाकर आता जा रहा है। पहले रेसिडेंट डॉक्टरों ने हड़ताल की। अपनी मांगों पर अड़ गए। और न राज्य सरकार झुकी, न ही डॉक्टर । अंततः सरकार को झुकाना पड़ा और फ़िर तो इसके बाद महाराष्ट्र के सरकारी कर्मचारियों का मिजाज़ ही बदल गया। और अब डाक्टर , शिक्षक हड़ताल पर चले गए है।

वैसे अगर देखा जाए तो सर्वोच्च न्यायालय ने बंद और हड़ताल पर पाबंदी लगा रखा है। बावजूद इसके अपनी मांगों को लेकर विभिन्न संगठन गाहे- बगाहे हड़ताल करने से बाज नहीं आ रहे हैं। वे मानकर चलते हैं किअपनी मांगें मनवाने का यही एक रास्ता है। घी कभी सीधी उंगली से नहीं निकलता है। कई श्रम संगठन आज भी हड़ताल को अपना अधिकार मानते हैं। हड़ताल करने वाले कभी ये नहीं सोचते कि हड़ताल करने से आम जनता में क्या असर पड़ेगा। और जनजीवन कितना प्रभावित होगा। जब समझौता और समाधान के सभी रस्ते बंद हो जाए तो हड़ताल करना उनका अन्तिम अस्त्र बनता है।

अगर अतीत में जाएँ तो मुंबई में दत्ता सावंत हड़ताल कराने में अग्रणी थे। उन्होंने कपडा मिल मालिकों की लम्बी हड़ताल कराई थी। इससे फायदा नहीं बल्कि बहुत बड़ा नुकसान हुआ था। मिल मालिक झुके नहीं और मजदूरों पर भुखमरी और बेकारी की नौबत आ गयी। मिल मालिकों ने मिलों की जमीन को बेंचकर अपनी रकम खड़ी कर ली। और मजदूरों के परिवारों पर तबाही टूट पड़ी। हड़ताल जब लम्बी खिचती है तो मालिक या नियोक्ता नहीं बल्कि सीमित साधनों वाला श्रम जीवी वर्ग इससे सबसे ज्यादा प्रभावित होता है। यानी कि चाकू खरबूजे पर गिरे या फ़िर खरबूजा चाकू पर गिरे। नुकसान खरबूजे का ही होना है।

अभी रेसिडेंट डॉक्टरों का इलाज हुआ ही था कि वैद्यकीय अधिकारी और प्राध्यापक बीमार हो गए हैं। वो भी इन दिनों सरकार से मांगे मनवाने में अडे हुए हैं। ज़ाहिर है इस हड़ताल से मरीजों का इलाज और छात्रों की शिक्षा पर विपरीत असर पडेगा।लेकिन जब सरकार की नीतियां ही ग़लत हो तो असंतोष के बादल फटना लाज़मी है।

ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये उठता है कि जब सरकार हड़तालियों की मांगें मान लेती है तो फ़िर आखिरकार सरकार इतना देर क्यों लगाती है। जिससे अव्यवस्था फैलती है। देश का विकास रुक जाता है। और देश आगे बढ़ने के बजाय पीछे की ओर जाता है। अब क्या ये माना जाए कि आज नेताओं में वो क्षमता नहीं है जो विवेक का इस्तेमाल करके किसी समस्या के उत्पन्न होने से पहले उसका समाधान ढूंढ सकें। जब सब कुछ नुकसान हो जाता है तब सरकार के दिमाग की नसें काम करना शुरू करती है। साल भर का लेखा - जोखा लिया जाए तो डॉक्टरों, शिक्षकों,बैंक कर्मियों, एयर लाइंस कर्मचारियों , उद्योग में कार्यरत श्रमिकों की हड़ताल होती ही रहती है। हड़ताल तो विदेशों में भी होती रहती है। लेकिन वहाँ का तरीका अलग है। जापान में एक जूता फैक्ट्री में हड़ताल हुयी तो कर्मचारियों ने अपना विरोध प्रकट कराने के लिए इस दौरान एक ही पैर का जूता बनाया। उन्होंने काम करते हुए अपना विरोध जारी रखा। अंततः प्रबन्धन झुका और मांगें पूरी हो गयी।


अब तो मुंबई में बारिश के मौसम में जहाँ हाई टाइड की धमकी मिलती है तो वही सरकारी कर्मचारी भी पानी की बूँद में हड़ताल की फुहार मार रहे हैं।

Thursday, July 23, 2009

पवार का पावर गुल

भारत एक कृषि प्रधान देश है। यह बात अब केवल किताबों में ही सीमित रह गयी है। कृषि प्रधान देश का झुनझुना बजता रहता है। किसान आत्महत्या करते रहते हैं। खाद्य पदार्थों के दाम आसमान छू रहे हैं। देश वासियों की थाली से आज दाल की कटोरी गायब होती जा रही है। और देश के कृषि मंत्री जी के पास अभी तक कृषि से सम्बंधित कोई नीति नहीं बनी है।

दरअसल किसी नेता की पहचान उसके कार्य कलापों से होती है। केन्द्रीय कृषि मंत्री शरद पवार भी इसके अपवाद नहीं हैं। महाराष्ट्र की राजनीति के चतुर खिलाड़ी , राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार का मतलब क्रिकेट, शक्कर कारखाने और जमीन तक सीमित रह गया है। और इसी में उनकी रुचि है। यही वजह है की कृषि और किसान उनके चछु से ओझल हैं। अगर वाकई पवार अपना पावर (ताकत) कृषि विभाग पर लगाते तो आज किसान आत्म ह्त्या नहीं करते। जिस तरह रोम जलाता रहा और सम्राट नीग्रो बेफिक्र बासुरी बजाते रहे। वैसे ही शरद पवार भी गेंद-बल्ला और राजनीति में इतने उलझे हुए हैं कि किसानो के प्रति हितैषी नीति बनाने के लिए उनके पास फुरसत ही नहीं मिलती महाराष्ट्र के अलावा अन्य राज्यों में भी किसानो ने आत्म हत्या की है। बुंदेलखंड में तो सूखा पीड़ित किसानो को २५-३० रुपये के चेक देकर उनकी असहायता का माखौला उड़ाया गया है। महाराष्ट्र के कपास ,संतरा उत्पादक किसानो की अत्यन्त दुर्दशा हुई है। कर्ज के बोझ और अपमान जनक तकाजों से तंग आकर हजारों किसानो ने मौत को गले लगाना बेहतर समझा । जबकि पवार को यह देखने का मौका ही नहीं मिला कि किसानो के घर में चूल्हा जला या नहीं। जब ज्यादा मुसीबत आयी तो विदेश से घटिया गेहूं मंगा लिया । जिसे जानवर भी खाए तो मर जाए और इंसानों को परोस दिया। इतने सालों से पवार ने अभी तक ऐसी कोई कृषि नीति नहीं बनायी है जिससे दलहन और तिलहन का उत्पादन बढाया जा सके। आज लोगों की थाली से दाल की कटोरी गायब होती जा रही है। शक्कर के दाम अनाप शनाप हैं। यह गोरख धंधा पवार भी जानते हैं। कृषि मंत्री जी को केवल गन्ना और अंगूर उत्पादक किसान ही नजर आते हैं। कपास उत्पादक किसानो की और वो नहीं देखते।और विदर्भ के किसानो की ओर देखना पसंद ही नहीं करते। अगर अंगूर से बनने वाली शराब को बढ़ावा दिया जा सकता है तो क्या पवार साहब विदर्भ के आदिवासी क्षेत्रों में महुए से मदिरा को बढावा देना क्या ग़लत है? पवार जी को केवल बारामती जिले में ही पूरा देश नज़र आता है।
अब यक्ष सवाल ये उठाता है की आख़िर किसानो को राहत कब मिलेगी। क्या जनता ने गलती कर दिया जो चुनकर भेज दिया ? या फ़िर पवार साहब जानते ही न हों की कृषि क्या बला है?

Thursday, June 18, 2009

स्विस को स्विच करो. ..

एक कविता सुना था खाए जाओ घूस दनादन कौन पकड़ने वाला। लेकिन यहाँ पर घूस खा रहे हैं साथ ही स्विट्जर्लैंड को भारत का देसी घी भी पिला रहे हो। अब यहाँ भले सूखी रोटी खा रहे हों। लेकिन देश के मलाईदार लोग ख़ुद मलाई खाने के आलावा विदेश को भी मलाई खिला रहे हैं जैसे उनका कोई क़र्ज़ खाया हो।
चुनाव के पहले स्विस बैंक ने खूब सुर्खियाँ बटोरी लेकिन नतीजे आते ही सबके दिमाग से स्विस का स्विच ऑफ़ हो गया। स्विस बैंक में जमा काला धन जग जाहिर हैं । अगर बैंक में जमा राशि के बारे में बात किया जाए तो सबसे पहले दुनिया के सामने २००६ में रिपोर्ट आयी थी। उस रिपोर्टके मुताबिक १४५६ बिलियन डॉलरयानी करीब ७४ लाख ९८ करोड़ रूपया भारत का स्विस बैंक में जमा है। और यह राशि दुनिया के सभी देशों की जमा राशि से ज्यादा है।
एक मोटे अनुमान के मुताबिक पूर्व राष्ट्रपति डॉ। शर्मा के जमाने में इस राशि का अनुमान एक लाख करोड़ रुपया था। इसके बाद श्री के.आर.नारायण के ज़माने में अनुमान दो लाख करोड़ रूपया का था। और साल २००६ में ये राशि बढ़कर तकरीब ७५ लाख रुपये में पहुँच गयी थी। और २००९ में मार्च माह के अंत में २३ लाख करोड़ रुपये की बढोत्तरी की संभावनाएं मिली हैं। यानी भारत की लगभग ९७ लाख करोड़ रुपये स्विट्जर्लैंड मैं जमा है।
अब यक्ष सवाल ये उठता है की इतनी भारी भरकम राशि वहाँ पडी हुयी है इधर देश के प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने वर्ल्ड बैंक से बड़ी रकम क़र्ज़ के रूप में उठाने का फैसला किया है। बताया जा रहा है कि यह रकम लगभग ४.२ अरब अमेरिकी डॉलर होगी। आर्थिक मंदी से जूझ रहे बैंक व्यवसाय को राहत पहुचाने के लिए ये कदम उठाया जा रहा है। अब ऐसे में यही लगता है हम कर्ज में मरेंगे क्योंकि मनमोहन सरकार कर्ज की धार से मारेगी। वैसे भी भारत वर्ल्ड बैंक का ही घी पीता रहा है । आज भी हम मानसिक गुलामी का दंश ६० साल बाद भी झेल रहे है। और देश बहाली के बजाय बदहाली की ओर जा रहा है ऐसे में जरूरत है कि हम अपने पैसों को ही लाने की करवाई क्यों न करें जिससे कर्ज के मर्ज से बचा जा सके साथ ही काला धन भी देश में आ जाएगा इसी लिए भारत सरकार को जरूरत है कि स्विस बैंक की स्विच को ऑन करें।



Thursday, June 11, 2009

सीनातान कर बोलता नस्लवाद

जिस जगह को भारतीयों ने विद्या का घर बनाया। जहाँ क्रिकेट के मैदान पर चौके छक्के लगते थे। वो जगह अब नस्लवाद का ऑपरेशन थियेटर बन गया है। अब कितने आश्चर्य की बात है किजिस रंगभेद के ख़िलाफ़ अथक संघर्ष कर नेल्सन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका में उसका नामोनिशान मिटा डाला। और अमेरिका में अहिंसक आन्दोलन कर मार्टिन लूथर किंग ने जिसे दफ़न कर दिया। वही वर्णभेद आज आस्ट्रेलिया में अपना घिनौना सर उठाकर समूची मानवता को कलंकित कर रहा है। यह केवल भारत की ही नहीं समूचे विश्व के लिए चिंता का विषय होना चाहिए कि आस्ट्रेलिया में रंगभेद का कोढ़ पनप रहा है। और वहाँ भारतीय छात्रों पर लगातार हमले हो रहे हैं। इतना होने के बावजूद भी वहां की सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी है। और उल्टे भारतीय छात्रों से अपनी सुरक्षा का ख़ुद ध्यान रखने की सलाह दे रही है। ये बेहद गैरजिम्मेदारना रवैया है। आस्ट्रेलिया सरकार को हर हाल में अपने यहाँ मौजूद सभी भारतीयों की सुरक्षा का जिम्मा लेना चाहिए। पहले तो इस मामले पर आस्ट्रेलिया सरकार ने लीपापोती करने की कोशिश की। लेकिन जब मामला उजागर हुआ। तो स्वीकार कर लिया कि हमारे यहाँ रंगभेद के मामले होते रहते हैं। भारतीय छात्रों पर हमला होना ये कोई पहली बार नहीं है। इसकेपहले भी भारतीयों पर हमले होते रहे है। लेकिन तब छिटपुट की घटनाएँ थी। तब भारतीय ज्यादा शिकायत भी नहीं करते थे। क्योंकि उनके अन्दर ऐसी भावना घर कर गयी थी शिकायत करने से कोई कार्रवाई होती नहीं है।जो कोई भी मामले सामने आते थे उस पर कोई ध्यान नहीं देता था। भारत सरकार ने भी कभी ध्यान नहीं दिया। इसी के आज नतीजे हैं कि भारतीय वहां काल के गाल में समा रहे हैं।

इधर अभिनेता अमिताभ बच्चन ने आस्ट्रेलिया के एक विश्वविद्यालय से मिलाने वाली मानद उपाधि को ठुकरा दी है। और कहा है कि जब तक मेरे देश के नागरिकों के साथ अमानवीयता हो रही है तो मेरी आत्मा मुझे उस देश से सम्मान लेने की अनुमति नहीं दे रही है। अब ऐसे में आस्ट्रेलिया सरकार को होश आना चाहिए कि उसकी छवि कितनी मटियामेट हो रही है। दुनिया नस्लवाद को नकार चुकी है। ओबामा जैसे अश्वेत नेता अमेरिका के राष्ट्रपति बन चुके है। इसके बाद अगर आस्ट्रेलिया में रंगभेद पनप रहा है तो समूची दुनिया को धिक्कार करना चाहिए।

Tuesday, June 9, 2009

सागर की छाती पर बन गया पुल

कानूनी दावं पेंच सियासी अखाडे की जंग और स्थानीय लोगों की नाराजगी झेलकर मुंबई करों के स्वागत के लिए सागर की छाती पर बांद्रावरली सी लिंक बनाकर तैयार हो गया है। २००१ में पुल बनाने की नींव शुरू हुई थी। और २००४ में बनाकर तैयार होना था। लेकिन इस योजना को नज़र लग गयी और काम धीरे धीरे खटाई में पड़ता चला गया। चार सौ करोड़ रुपये में बनकरतैयार होने वाला ये पुल १६०० करोड़ रुपये बनकरतैयार हुआ। प्रोजेक्ट पर काम जैसे ही काम शुरू हुआ। तो सागर की अथाह गहराई की तरह अड़चने आने शुरू हों गयी। कभी मछिमारों की मार तो कभी पर्यावरण विदों ने अड़ंगा डालते रहे। रही सही कसर सियासत भी होती रही । और नतीजे ये निकलते रहे की प्रोजेक्ट ख़ुद सागर में गोताखाने लगा। लेकिन पुल को बनाने वाली कंपनी हिन्दुस्तान कन्स्ट्रशन ने हार नहीं मानी । और सागर की अथाह गहराईको नापने के लिए आतुर रही।
लगभग ५० मंजिल की ईमारत की ऊंचाई पर बनाये गए इस पुल को केबल से बांधा गया है। और इसके केबल चीन से मंगाए गए हैं। एक केबल तकरीबन ८०० टन का वजन सहन कर सकता है।सात किलोमीटर के लंबे इस पुल ५.१ किलोमीटर का समुद्री मार्ग है। इस पुल से हर दिन करीबन सवा लाख गाड़िया गुजरेंगी।
मुसाफिरों को जो रास्ता तय करने में 40 मिनट का समय खर्च करना पड़ता था, अब यह दूरी महज 6-7 मिनट में तय की जा सकेगी। करीबन साढ़े सात किलोमीटर लम्बे इस अजूबे में ट्रैफिक का दबाव न पड़े इसके लिए इस पुल को आठ लेन का बनाया गया है। इस पुल की ऊंचाई समुद्रीय सतह से 126 मीटर से भी ज्यादा है। आम लोगों की भाषा में कहे तो मुंबई की 50 माले वाली बिल्डिंग से भी ज्यादा ऊंचा है।
पुल की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह पूरा पुल केबल्स की मदद से बांधकर खड़ा किया गया है। पुल में लगे केबल्स चीन से मंगवाए गए हैं। करीबन 432 केबल्स द्वारा बांधे गए इस पुल को जंग से बचाने के लिए खास पेस्ट और पोलिथीन से कवर किया गया है। इसके अलावा पुल में कंक्रीट और स्टील का ही ज्यादातर इस्तेमाल किया गया है।
इस सुहाने सफर के लिए लोगों को अपनी जेब भी ढीली करनी पड़ेगी और सरकार की कमाई भी खूब होगी। इस पुल से एक दिन में लगभग 80 लाख रुपये बतौर टोल टैक्स के रूप में मिलेंगे।एक अनुमान के मुताबिक पुल से हर दिन करीबन एक लाख तीस हजार गाड़ियां गुजरेंगी। लेकिन मोटरसाइकिल प्रेमियों के लिए निराशा भरी बात यह है कि इस पुल पर मोटरसाइकिल चलाने की अनुमति नहीं दी गई है।क्योंकि लम्बा समुद्री पुल होने की वजह से मोटरसाइकिल चालकों के लिए यह पुल खतरनाक साबित हो सकता है जो की तेज हवाएं और गाड़ियों की रफ्तार के चलते मोटरसाइकिल चालक का संतुलन कभी भी बिगाड़ सकती है।इस पुल से करीबन 1।30 लाख गाड़िया गुजरेंगी। एक गाड़ी से औसत टोल टैक्स 60 रुपये भी मान लिया जाए तो 78 लाख रुपये होता है इसको देखते हुए माना जा रहा है कि एक दिन में इस पुल से करीबन 80 लाख रुपये टोल टैक्स के रुप में वसूला जाएगा।
पुल की खासियत को देखकर आई आई बी ई ने ब्रिज को देश का सर्वश्रेष्ठ ब्रिज का एवार्ड दिया है। अब इस ब्रिज को जल्द ही आम जनता के हाथों में आ जाएगा जिससे सभी लोग ऊंचाई से सागर का नज़ारा ले सकते है। और भारत की आधुनिक तकनीक और बुलंद इरादों के बल पर देश का पहला समुद्री पुल बनकर तैयार हो गया है। जो सागर की गहराई और आसमान की ऊंचाई नाप रहा है। सागर की छाती पर बनकर पूरे देशवासियों का तहे दिल से स्वागत कर रहा है।

Friday, June 5, 2009

आंकडें बाजी का खेल

आम जनता के दुखदर्द और उसकी माली हालत में आला अधिकारी कितने अवगत हैं , जो एयर कंडीशन कमरों में बैठकर कागजों पर आंकडों की फसल उगते हैं। उनमें से कितने अधिकारी ऐसे हैं जिन्होंने देश के धूल भरे देहातों या मलिन बस्तियों की ख़ाक छानी है। और महसूस किया है की गरीब लोग किस हालत में रहते हैं। महंगाई की चक्की में पिसते , दुर्दशा और अभाव में जैसे तैसे रोते झींकते जीवन बिताते गरीब को सिर पर छप्पर और दो वक्त का भोजन भी मुश्किल से नसीब होता है। गरीबी रेखा के नीचे जीवन बिताने वालों की आबादी करोड़ों में है। लेकिन हमारे यहाँ के नौकरशाहों की इसकी कोई चिंता नहीं है। अब तो सर्वे भी कहता है भारत के नौकरशाह सबसे आलसी हैं। ऐसे कई सरकारी संगठन हैं जिनका काम है सरकार को आंकडे उपलब्ध कराना जिससे सरकार अग्रिम योजनाओं को क्रियान्वित कर सके। लेकिन ये आंकडे कितने सही है या वास्तविकता के करीब हैं इसपर भी बहस हो सकती है। और सरकार है की इन आंकडों को भी सही मान लेती है । आंकडों का खेल करने वाले बड़े - बड़े विशेषज्ञों का आंकलन कितना सटीक होता है इसे लेकर संदेह हो सकता है। केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन यानी सी एस ओ ने देश के प्रति व्यक्ति की मासिक आय तीन हाजार रुपये से भी अधिक बताई है। लेकिन सच्चाई ये है की साल १९९९-२००० के स्थिर मूल्य पर २००० रुपये से कुछ ही अधिक है। अब यह कितनी अजीब बात है कि सभी वास्तविक गणनाओं का आंकलन साल १९९९-२००० के स्थिर मूल्य के आधार पर किया जाता है। वरतमान मूल्यों के आधार पर नहीं। अब आप भी आंकलन कीजिये कि एक दशक पहले के आधार पर किया गया आंकलन कितना सटीक हो सकता है। वर्त्तमान मूल्यों के आधार पर तो सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वृधि १४.२ बैठती फीसदी है। इसी तरह प्रति व्यक्ति आय वर्तमान मूल्यों के आधार पर ३७४९० रुपये वार्षिक हो गयी। स्थिर मूल्यों पर यह अभी भी २५४९४ रुपये वार्षिक यानी २१२४ रुपये मासिक चल रही है। आंकडों का यह मायाजाल उस वर्ग के लिए ठीक है जिन्हें वेतन भत्ता वृद्धि और बदलते वेतनमान का लाभ मिलता है।वेतन आयोग की सिफारिशें आम गरीब के लिए कोई मायने नहीं रखती हैं। इसके विपरीत इसके फलस्वरूप बाज़ार में अधिक पैसा पहुँचने से महंगाई बढ़ जाती है। जिससे गरीब दुखी और बेबस हो जाता है। और आज आज़ादी के ६१ साल बीत जाने के बाद भी गरीब जस के तस हैं हाँ चुनाव जब भी आते है तो गरीबों को मोहरा बनाकर मुद्दे तय होते है। नतीजा ये निकालता है कि उन्हें सस्ते दाम पर गेहूं चावल देने का भरोसा दिया जाता है और नौकरशाह और राजनेता मलाई खाते है। आखिर क्या आंकड़े सरकार इसी लिए मंगाती है कि गेहूं चावल ही देते रहें। और मलाई मिलाती रहे धन्य हैं ये आंकडे। और धन्य है आंकडों का खेल।

Thursday, May 28, 2009

मुंबई की सुरक्षा में छेद

भारत को मनमोहनी सरकार फ़िर से मिल गयी। लेकिन देश को अब अंतर्राष्ट्रीय स्तरपर एक नयी दिशा व दशा तय करनी होगी। आतंक से जूझ रहे देश को सबसे पहले श्रीलंका से सबक लेकर आतंक की लहलहाती फसल को जड़ से काटना होगा। सबसे ज्यादा आतंक का घिनौनी खेल मुंबई ने देखा है । अगर मुंबई की बात की जाए तो मुंबई न केवल अंतर्राष्ट्रीय स्तर का बड़ा शहर है।बल्कि देश की आर्थिक राजधानी भी है। लेकिन कानून व्यवस्था के ढीलेपन की वजह से हालत बिल्कुल लावारिश मालुम पड़ती है। आतंक, बमबारी, अपराधी गिरोह सभी ने इसका सुख चैन छीन लिया है। सहसा ऐसी वारदात हो जाती है की लोग सिहर उठाते हैं। और भगवान भरोसे मुंबई रहती है। कानून के रखवाले कुम्भकरण की नींद में सो रहे हैं या फ़िर अपराधियों से मिलीभगत है ? कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है की मुंबई के अंतर्राष्ट्रीय विमानतल के कार्गो टर्मिनल से दिनदहाडे चार नकाबपोश लुटेरे १०० किलो सोना चांदीभरे बॉक्स लूट ले जायेंगे। ऐसा द्रश्य अगर किसी फ़िल्म में दिखाई देता तो शायद स्क्रिप्ट राईटर की कल्पना की उड़ान मान लेते। लेकिन वास्तव में जब ऐसी दुस्साहसिक लूट होती है तो वाकईअचम्भा होता है। एअरपोर्ट की सुरक्षा को भेदकर लुटेरे लूट कर चंपत हो गए.आतंक के साए की वजह से एअरपोर्ट में भारी चौकसी रहती है। और वहाँ जांच पड़ताल के चलते पंछीभी पर नहीं मार सकता है। ऐसे में सवाल यह उठता है की ये लुटेरे वहाँ तक कैसे पहुँच गए। उनसे कोई पूछताछ कैसे नहीं हुई। एअरपोर्ट हाई सिक्योरिटी ज़ोन में आता हैं। कोई बस अड्डा नहीं की टहलते टहलते चाहे जो कोई पहुँच जाए। जिस तरह से लूटेरोंने लूट को अंजाम दिया है उससे यही लगता है की किसी के आंखों से काजल चुराने वाली बात है। क्योंके एक सामान्य यात्री को कई सुरक्षा घेरों से निकला होता है। मुंबई में सुरक्षा के नाम पर पहले भी कई छेद देखे गए है। और इसकी कीमत मुम्बई करों को जान देकर चुकानी पड़ी। अभी आतंक के छर्रे खाया घायल ताज कराह रहा है। की एक बार फ़िर सुरक्षा व्यवस्था तार तार हो गयी। आख़िर मुंबई की सुरक्षा पर कब बंद होगा छेद,अमनचैन के लुटेरों को कब तक मिलेगी छूट , और कब सागर की अथाह गहराई नापने वाले मुंबई को मिलेगी चैन।

Saturday, March 7, 2009

मुंबई का सियासी गलियारा

चुनाव का यानी निर्वाचन आयोग ने जैसे ही चुनाव का घंटा बजाया. सभी राज नेता घंटा सुनते ही गंभीर हो गए. मुंबई में तो धनुष बाण हमेशा कमल पर निशाना साध रहा था. लेकिन चुनावी बिगुल बजाते ही धनुष पर कमल खिल गया.. हालाँकि अभी भी दोनों के बीच घमासान जारी है. महाराष्ट्र राज्य के मुंबई में छः लोकसभा सीटें है. १. उत्तर मुंबई (दहिसर, बोरीवली , कांदिवली, मलाड) २. उत्तर पशिम मुंबई ( जोगेश्वरी, दिन्दोशी ,गोरेगावों,वर्शोवा,अँधेरी) ३. उत्तर पूर्व मुंबई (मुलुंड, विक्रोली,भांडुप, शिवाजी नगर,और घाटकोपर)४. दक्षिण मुंबई (वरली,शिवादी, भायखला,मालाबार हिल,कोलाबा मुम्बा देवी.)५. दक्षिण मध्य मुंबई ( अणुशक्ति नगर ,चेम्बूर, धारावी, कोलीवाडा, महिम, सायन) ६. उत्तर मध्य मुंबई ( कुर्ला, बंदर, कलिना, विलेपार्ले) इन सभी में से पांच सीटों पर हाथ का कब्जा था. लेकिन एस बार हाथ और घडी दोनों बराबरी के हक़ पर ताल ठोंक रहे हैं. कांग्रेस और एनसीपी , सपा ,बसपा के पास उत्तर भारतीय वोट हैं. जिसमे सपा और बसपा तो केवल उत्तर भारतीयों के भरोसे है. जबकि शिवसेना और भाजपा के उत्तर भारतीय वोट के मराठी वोट सबसे ज्यादा है. राज्य में नए परिसीमन के तहत चुनाव हो रहे हैं. लिहाजा सभी दिग्गज नेताओं का चुनावी अखाडा बदल गया है. मुंबई और उससे सटे ठाणे जिले में एक करोड़ ५८ लाख सात हजार ६५२ मतदाता हैं.राज्य में ठाणे लोकसभा सीट सबसे बड़ी है. जिसमे १७ लाख ८८ हजार ५०० मतदाता हैं. मुंबई की हर एक सीट पर दिग्गज ही दिग्गज ताल ठोंक रहे हैं. उत्तर पश्चिम मुंबई से सपा प्रदेश अध्यक्ष अबू आसिम आज़मी चुनाव लड़ने का एलन कर चुके हैं. जबकि पिचली बार इस सीट से प्रिया दत्त संसद रह चुकी थी. लेकिन एस बार एस सीट पर कांग्रेस अध्यक्ष कृपा शंकर सिंह भाग्य अजमाना चाहते हैं. इस सीट पर अभी से ही कांटे के सामान टक्कर होने की उम्मीद बढ़ गयी है. उधर चुनावी क्षेत्र के बंटवारे से सभी राजनेता अपने अपने समीकरण बैठने में जुटे हुए हैं. अगर नए गणित का आंकला करे तो भाजपा सबसे ज्यादा फायदे में दिख रही हैं. कई सीटों पर भाजपा की सीट मजबूत दिख रही है जैसे उत्तर मुंबई सीट इस सीट पर गोविंदा संसद थे. लेकिन जनता तो अपने संसद के कभी दर्शन नहीं कर पायी लिहाजा फिर से जनता अपने पुराने नेता राम नाईक को चुन सकते है, उधर उत्तर पूर्व मुंबई से भाजपा के संभावित उम्मेदवार किरीट सोम्या को बेहद फायदा पहुंचेगा. शिवसेना भाजपा का गठबंधन भी गठजोड़ के बजाय गठ्तोड़ नज़र आ रहा है. दक्षिण मुंबई सीट पर शिवसेना ने दावा ठोंका है लेकिन भाजपा दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की बेटी प्पोंं महाजन को मैदान में उतरना चाहती है. केंद्र में यू पीए को समर्थन करने वाली सपा के उम्मेदवार उतरने से कांटे की टक्कर मुंबई में पैदा हो जायेगी. इधर बसपा भी बाहुबली नेताओं के तलाश में जुट गयी है. बसपा प्रदेशध्यक्ष ने बसपा अरुण गवली के शामिल होने की खबर दी है. ऐसे में जिश तरह से बहन जी ने यूपी में बाहुबली को मैदान में उतर रही है वैसे ही महाराष्ट्र में भी हांथी पर बाहुबली सवार हो रहे हैं.