Friday, June 26, 2015

बोतलबंद पानी से कमा रहे हैं अरबों डॉलर...

बोतलबंद पानी से कमा रहे हैं अरबों डॉलर...
 
प्रकृति ने मनुष्य को मिट्टी, हवा, पानी, रोशनी जैसी जीवनदायी सुविधाएं मुफ्त में दी थी लेकिन बढ़ती जनसंख्या, औद्योगीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा हर बुनियादी वस्तु को उत्पाद बनाकर बेचने की प्रवृत्ति के चलते समूचे जीव जंतुओं की यह सम्पदा कारोबारियों और कंपनियों की तिजोरियां भरने का जरिए बन गई है।

इससे जुड़े बहुत सारे तथ्य ऐसे हैं जिन्हें जानकार आपको हैरानी होगी कि बोतलों में ‍बंद कर बेचे जाने वाला पानी कितने बड़े कारोबार का हिस्सा है। यह कारोबार अंतरराष्ट्रीय स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक पहुंच गया है। 

आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि पिछले दशक से कुछ अधिक समय के अंतराल में बोतलबंद पानी की बिक्री नाटकीय तरीके से बढ़ी है और यह कारोबार 100 अरब अमेरिकी डॉलर से भी अधिक राशि का हो गया है। 

वर्ष 1999 से लेकर 2004 तक सारी दुनिया में बिकने वाले बोतलबंद पानी की खपत करीब 118 अरब लीटर से बढ़कर 182 अरब लीटर से अधिक तक हो गई है। 

विकासशील विश्व के बहुत से शहरों में बोतलबंद पानी की खपत बढ़ती जा रही है क्योंकि शहरों का स्थानीय प्रशासन पर्याप्त मात्रा में पानी होने के बावजूद लोगों को समुचित मात्रा में शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने में असफल रहा है। इसके परिणाम स्वरूप विकासशील देशों में बोतलबंद पानी का उत्पादन करने वाली कंपनियां बड़े पैमाने पर पैसा कमा रही हैं।

वर्ष 2004 में अमेरिका में बोतलबंद पानी की बिक्री अन्य किसी देश से ज्यादा थी। 30.8 अरब लीटर पानी के लिए 9 अरब अमेरिकी डॉलर से अधिक की राशि चुकाई गई। यह मात्रा इतनी अधिक है कि इससे कंबोडिया की समूची जनसंख्या की पानी की सालाना जरूरतें पूरी हो सकती हैं। 

बोतलबंद पानी की सबसे ज्यादा खपत वाले दस शीर्ष देशों में अमेरिका, मेक्सिको, चीन, ब्राजील, इटली, जर्मनी, फ्रांस, इंडोनेशिया, स्पेन और भारत हैं। 

बोतलबंद पानी का उपयोग करने वालों से जब पूछा जाता है कि वे पानी पर इतना अधिक पैसा क्यों खर्च करते हैं जबकि उन्हें नल का पानी आसानी से मुफ्त में मिल सकता है? उनका कहना है कि वे बोतलबंद पानी को इसलिए वरीयता देते हैं क्योंकि वह अधिक शुद्ध और स्वास्थ्यकर होता है। 

ज्यादातर कंपनियां अपने उत्पाद को यह कहकर बेचती हैं कि वह नल के पानी से ज्यादा सुरक्षित है लेकिन इस मामले में विभिन्न अध्ययनों का कहना है कि बोतलबंद पानी से जुड़े नियम वास्तव में इत‍ने अपर्याप्त हैं कि वे शुद्धता या सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकते हैं। इस मामले में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का कहना है कि वास्तव में बोतलबंद पानी में म्युनिसिपल कॉरपोरेशन के नल के पानी की तुलना में अधिक बेक्टेरिया हो सकते हैं। 

अमेरिका में जिन मानकों के आधार पर पानी को मापा जाता है उसे अमेरिका के फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन के द्वारा नियमित किया जाता है़, ये मानक वास्तव में नल के पानी से भी नीचे हैं जिन्हें पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी द्वारा तय किया जाता है। 

पानी भरने के काम में आने वाली ज्यादातर बोतलों को रिसाइकल, फिर से नया बनाया जाता है। इन बोतलों को बनाने में जो पोलीएथलीन टेरेप्थलेट (पीईटी) इस्तेमाल किया जाता है, उसका केवल 20 प्रतिशत हिस्सा ही रिसाइकल किया जा सकता है। इसके अलावा पी‍ईटी उत्पादन प्रक्रिया से हानिकारक रसायन निकलते हैं जिससे वायु की गुणवत्ता पर बुरा असर पड़ता है। 

अनुमानित तौर पर ऐसा माना जाता है कि यूनान में पानी पीने की 1 अरब प्लास्टिक बोतलें प्रति‍वर्ष फेंक दी जाती हैं जोकि वातावरण में प्रतिकूल असर छोड़ती हैं। 

चीन की कम से कम 70 फीसदी नदियां और झीलें प्रदूषित हैं और बोतलबंद पानी की माँग करने वाले ज्यादातर ‍शहरों के निवासी होते हैं क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में लोग इतने गरीब हैं कि वे इतना महंगा पानी खरीद कर नहीं पी सकते हैं।

मतलब कहा जा सकता है कि कभी सभी को उपलब्ध साफ पानी अब सर्वसाधारण की संपत्ति नहीं रहा। कैपिटलिज्म के इस जमाने में कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता।

Monday, June 8, 2015

स्टार्ट-अप कम्पनी

स्टार्ट-अप कम्पनी 

यह नई संस्कृति का शब्द है। नयापन, अभिनव, नवोन्मेष और नवाचार से मिलता-जुलता शब्द है स्टार्ट-अप। अंग्रेजी में इसके माने हैं नवोदय या अचानक उदय होना, उगना, आगे बढ़ना वगैरह। इसके कारोबारी माने हैं नए और अनजाने बिजनेस मॉडल की खोज। यानी नए किस्म के कारोबार में जुड़ी नई कम्पनियों को स्टार्ट-अप कम्पनी कहते हैं। भारत में ई-रिटेल और इंटरनेट से जुड़ी ज्यादातर नई कम्पनियाँ स्टार्ट-अप हैं। इनकी तकनीक नई है और मालिक और प्रबंधक भी नए किस्म के हैं। उनका काम करने का तरीका नया है। यह शब्द बीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में डॉट-कॉम ‘बूम’ और ‘बबल’ के वक्त ज्यादा लोकप्रिय हुआ। 

सामाजिक दृष्टि से भारत में यह नया चलन है। अमेरिका में बिजनेस प्लान करना, नयी कम्पनी बनाना, उसके मार्फत भारी सफलता पाने का चलन पहले से है। अमेरिका के बिजनेस और इंजीनियरी संस्थानों से निकल कर छात्र कारोबार शुरू करने के बारे में सोचता है। इस चलन के समानांतर एक नई संस्कृति का जन्म हो रहा है, जिसे स्टार्ट-अप कल्चर नाम मिला है। 

भारत में अभी तक नौजवान नौकरी को वरीयता देते हैं। अब स्थितियाँ बदल रहीं हैं। अब तक की समझ है कि कारोबार में जोखिम है। कम उम्र में जोखिम उठाया जा सकता है, यही इस संस्कृति का मूल मंत्र है। माना जा रहा है कि संपन्नता उन्हीं के पास आती है, जो जोखिम उठाते हैं। परम्परागत व्यवसाय की जगह नए कारोबार के आविष्कार में फायदे की गुंजाइश भी ज्यादा है। परम्परागत तरीके से 10 से 15 फीसदी फायदा मिलता है, जबकि नवोन्मेष से 85 फीसदी या उससे भी ज्यादा फायदा मिलता है। 

Friday, June 5, 2015

मैट यानी मिनिमम अल्टरनेटिव टैक्स और उससे जुड़ा विवाद


         इन दिनों मैट को लेकर काफी चर्चा है। यह पिछली बार 1997 में शुरू हुआ था, तब भी
कंपनियों ने इसका खासा विरोध किया था। तब उदारीकरण  केंद्र में संयुक्त मोर्चा सरकार थी। वित्तमंत्री रहते हुए पी. चिदंबरम ने इसे फिर शुरू किया था। जब इसकी घोषणा हुई, तब इसे कोई समझ नहीं पाया था, जबकि यह हमारे देश में 1988 में प्रयोग में लाया जा चुका है। लेकिन लागू होने पर  काफी विरोध हुआ और शेयर बाजार में भी खासी गिरावट आई थी। हालांकि अभी भी एक कमेटी इस पर  विचार के लिए बनाई गई है।

मैट क्या है?
भारत में कंपनी दो प्रकार से आय की गणना करती हैं। कंपनी एक्ट के अनुसार, जिसे ‘बुक प्रॉफिट’ कहा जाता है और इनकम टैक्स एक्ट के अनुसार जिसे ‘टैक्सेबल प्रॉफिट’ कहा जाता है। - कई कंपनियां हजारों करोड़ रु. का बुक प्रॉफिट बताती थीं, और शेयरधारकों को डिविडेन्ड देती थीं। लेकिन इनकम टैक्स में मिली छूटों, कटौतियों एवं भत्तों के कारण अपना टैक्सेबल प्रॅफिट शून्य बता कर टैक्स का भुगतान नहीं करती थीं। इन्हें जीरो टैक्स कंपनी कहा जाता था। जिसका श्रेय ये अपने प्रभावी टैक्स मैनेजमेंट को देती थीं।
   इन कंपनियों को कर भरने के लिए बाध्य करने के लिए सरकार ने वर्ष 1988-89 से मैट लागू कर दिया।

वर्तमान में मैट 20 फीसदी

वर्तमान में प्रत्येक कंपनी को कम से कम अपने बुक प्रॉफिट का 18.5 फीसदी (जो कि अब शिक्षा उपकर और सरचार्ज मिलाकर 20 फीसदी है) मैट का भुगतान करना होगा। यदि किसी कंपनी का बुक प्रॉफिट 1000 करोड़ रु. है और टैक्सेबल प्रॉफिट शून्य है, तो भी कंपनी को 200 करोड़ रु. मैट का भुगतान करना होगा।
- 1990 में मैट खत्म कर दिया गया था, जिसे 1 अप्रैल 1997 से पुन: लागू किया गया। भारत में कई कंपनियां जैसे डाबर, गोदरेज कंज्यूमर, एनटीपीसी, जेएसडब्ल्यू एनर्जी आदि मैट का भुगतान
करती हैं।

ऐसे शुरू हुआ मैट:-
अमेरिका में सरकार ने 1969 में पाया कि उच्च आय वाले 155 परिवार आयकर के रूप में कुछ भी नहीं
देते हैं। इन परिवारों ने आयकर कटौतियों का भरपूर लाभ उठाया, जबकि कई मध्यम व निम्न आय परिवार आयकर का भुगतान कर रहे थे। जिन व्यक्तियों व कॉर्पोरेट करदाताओं की आय पूंजी लाभ पर आधारित थी, वे आयकर की कई कटौतियों का लाभ उठा पाए। जबकि उत्पादन व सेवा क्षेत्र से लगभग उतनी ही आय कमाने वाले व्यक्ति व कॉर्पोरेट करदाताओं को ये टैक्स कटौतियां उपलब्ध नहीं थी, जिसके कारण उन्हें कर का भुगतान करना पड़ा। इन्हीं विसंगतियों को दूर करने के लिए अमेरिकी सरकार ने 1970 से मिनिमम टैक्स लागू किया। केवल 155 परिवारों को 1970 में टैक्स भरने को बाध्य करने के लिए इसे शुरू किया गया। वर्तमान में अमेरिका में 40 लाख करदाता मिनिमम टैक्स देते हैं।

मैट की मांग 
अभी तक मैट उन घरेलू कंपनियों पर लगाया जाता था, जिनका स्थायी कामकाज भारत में है और साथ
ही जो भारतीय कंपनी कानून के अनुसार बहीखाते बनाकर रखती हैं। मैट लागू करने के इतने वर्षों बाद आयकर विभाग ने अचानक मार्च 2015 में एफपीआई को मैट की मांग का नोटिस भेजना शुरू कर दिया। जबकि एफपीआई का न तो भारत में स्थायी कामकाज है, न ही ये कंपनियां भारतीय कंपनी कानून के अनुसार बहीखाते या बुक्स ऑफ अकाउंट्स मैंटेन करती हैं। नोटिस मिलने पर कई एफपीआई ने इस मामले में बॉम्बे हाईकोर्ट का रुख किया है।

मामला अदालत में

आयकर विभाग द्वारा नोटिस भेजने का कारण था अथॉरिटी फॉर एडवांस रूलिंग्स द्वारा केसलटन इंवेस्टमेंट्स के बारे में वर्ष 2012 में दिया गया आदेश, जिसमें कहा गया था कि केसलटन इंवेस्टमेंट्स को मैट का भुगतान करना चाहिए। यह प्रकरण अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है।

अथॉरिटी फॉर एडवांस रूलिंग्स की स्थापना
नॉन रेसीडेंट्स के आयकर निर्धारण एवं लंबित मामलों के त्वरित निराकरण के लिए की गई है। वर्ष 2013 में महालेखा परीक्षक ने इस मुद्दे को अपनी रिपोर्ट में उठाया। तब आयकर विभाग ने एफपीआई को मैट मांग का नोटिस भेजना शुरू कर दिया। हालांकि सरकार ने स्पष्ट किया है कि एफपीआई पर 1 अप्रैल 2015 से मैट आरोपित नहीं किया जाएगा। लेकिन आयकर विभाग एफपीआई से पिछले सात साल, यानी 2008-09 से मैट की मांग कर सकता है, जो कि लगभग 40 हजार करोड़ रु. है।

सरकार द्वारा उठाए कदम
 सरकार ने स्पष्ट किया है कि मैट उन देशों के एफपीआई पर लागू नहीं होगा, जिनकी भारत के साथ कर संधि है। इनमें सिंगापुर व मॉरिशस शामिल हैं। भारत में 30 फीसदी विदेशी पोर्टफोलियो निवेश कर संधि वाले देशों से आता है। पिछले सप्ताह सरकार ने निर्देश दिया है कि अब राजस्व विभाग नए मैट की मांग नहीं करेगा। साथ ही अभी तक जारी मैट नोटिस पर कोई कार्यवाही नहीं करेगा, जब तक
कि एपी शाह कमेटी विदेशी निवेशकों पर मैट लागू करने के संबंध में अपनी रिपोर्ट सरकार को पेश नहीं कर देती।
- फैक्ट - भारत में एफपीआई पर अल्पावधि इक्विटी लाभ पर 15 फीसदी, बॉण्ड लाभ पर 5 फीसदी कर लागू है, जबकि लंबी अवधि के पूंजीगत लाभ पर कोई कर नहीं देना होता है। मेट लगने पर इन सभी लाभों पर एफपीआई को 20% कर देना होगा।