Monday, December 22, 2008

हाय रे मनमोहन ये तूने क्या किया

यूं पी ऐ सरकार के गठन के बाद मनमोहन सरकार महंगाई के आंच से झुलस रही थी। इसके बाद मंदी का दीमक लग गया। अभी सरकार को दीमक खा रहा था कि बीच में आतंकी छर्रे भी खाने पड़े। इन ढेर साडी समस्याओं से पीड़ित होकर सरकार ने सोचा कि अब सत्ता का भोग दोबारा मिलाना मुश्किल है। लेकिन जैसे ही विधान सभा चुनाव में नतीजे अच्छे निकले। तो मनमोहन सरकार को आस जगी और आनन् फानन में लम्बी लम्बी घोशनाएँ करना शुरू कर दिया जैसे मंदी से निपटने के लिए बैंकों को रहत पॅकेज होम लोन में ब्याज डरघटाकर बहार लाना। नौकरी के दौरान निकले गए कर्मचारियों को ६ महीने का वेतन दिलाना।
सरकार ने घोषणाओं का अम्बर लगा दिया। लेकिन मेरे हिसाब से घाव कहीं और है और मरहम कहीं और लगाया जा रहा है। जैसे आवासीय पॅकेज में सरकार ने २० लाख लोन तक में ब्याज दर घटी हैं। लेकिन मुंबई ठाणे जैसे शहरों में तो २० लाख से ऊपर का माकन मिलाता नहीं है। बिल्डर बंधू दाम घटने के मूड में नहीं हैं। मकान बीके या नहीं। उल्टे ग्राहकों को लुभाने के लिए स्कीम और चला दी है वो भी दाम बढाकर । तब तो होम लोन का तो फायदा मिलाने से रहा। अब दूसरी बात मंदी से निपटने के लिए कर्मचारिओं की छंटनी पर ६ महीने का वेतन दिया जाए। उसमे भी शर्त रख दी गयी के कंम्पनी में पाँच साल तक काम कर चुका हो। अब मैं यहांं पर ये बताना चाहता हूँ कि पाँच साल का मतलब बाजपेयी की सरकर में नौकरी लगी और मनमोहन की सरकार में मरहम मिला रहा है जबकि असलियत ये है के जितना मनमोहन सरकार में प्राइवेट सेक्टर में उफान आया है उतना बाजपेयी सरकार में नहीं आया था॥ और लोग मनमोहन सरकार में ही ज्यादातर कम्पनियों में जों हुए हैं।
यानी कि आप्कावे ज़माने में जो भरती हुए हैं वो तो बेचारे नीबू नमक ही चटाकर रह जायेंगे। और जो बाजपेयी सरकार में शामिल हुए उनकी तो बहार है।
अब में यही कह रहा हूँ कि हे मनमोहन सरकार ये आपने क्या किया । थोड़ा बहुत तो आप अपने काम काज को परख लें । आप क्या कर रहे है और इधर काया हो रहः है।

Thursday, December 11, 2008

लोकल ट्रेन में इंसानी फाटक

मुंबई की लोकल ट्रेन में अब इंसानी फाटक लगे हुए हैं। ये फाटक न तो सरकार ने लगवाया है और न ही लोकल को सबसे ज्यादा रकम देने वाले वर्ल्ड बैंक ने लगवाया है। बल्कि उसमे रोजाना भेड़ बकरी की तरह यात्रा करने वाले यात्री ही अड़ जाते हैं।
यूँ तो मुंबई में मैं पिछले कई सालों से पटखनी खाए पड़ा हुआ हूँ। और लोकल ट्रेन का मेरे साथ चोली दमन का रिश्ता है। इसलिए जब से मैंने मुसाफिरी करना शुरू किया है। तब से देख रहा हूँ कि लोकल ट्रेन में फाटक नहीं लगे हैं , जो भी यात्री होते हैं वो विण्डो शीत तलाशते हैं या फ़िर गेट में डटकर खड़े हो जाते हैं। ये लोग ४ से ५-६ यात्री होते है। और फ़िर फाटक की तरह काम करते है। फाटक में दो पल्ले होते हैं। जैसे ही स्टेशन आता है तो एक पल्ला खुल जाता है , जबकि दूसरा बंद रहता है। खुलने वाला पल्ला या तो स्टेशन में धंस जाता है, या फ़िर कुछ पल्ले ट्रेन में छिपकली की तरह चिपक जाते है। और तब बांकी लोग चढ़नाशुरू कर देते हैं। फ़िर जैसे ही ट्रेन चलती है तो फ़िर से दोनों पल्ले बंद हो जाते हैं। ट्रेन स्पीड पकड़ती है तो पल्ले नीचे ऊपर हिलने लगते हैं जब कि पल्ले के अन्दर के यात्रियों की हड्डियाँ राग भैरवी गाने लगाती है। कोई चिल्लाता है उफ , कोई कहता हाँथ हटा ,कोई कहता है हाथ ऊपर कर। इतना करते करते स्टेशन आ जाता है। और फ़िर पल्ले खुल जाते हैं और यात्री भरभरा कर स्टेशन पर कूद पड़ते हैं।
इस तरह से मैंने देखा कि भारतीय लोकल रेल में कैसे हड्डी मांस के फाटक लगे हुए हैं , जिस्म के इस फाटक में अन्दर भी जिस्म ही कैद है।

Friday, December 5, 2008

हमें अपनी चिंता है

आज देश का आम नागरिक अपनी कमाई से एक चौकीदार भी रखने में हिचकता है। लेकिन हमारे लोकतंत्र के पुजारी एन एस जी को अपनी हिफज्ज़त में लगाने के लिए बिल्कुल भी नहीं हिचकते हैं। २६ नवम्बर को मुंबई में समुद्री रस्ते से आतंकी ज़हर घुल गया।फ़िर कितने बेगुनाहों का खून बह गया। कितने निहत्थे जजन गवां कर चले गए। इसके बाद एन एस जी ने कमान सभाली और और आतंकियों के चंगुल से मुंबई को मुक्त करा दिया। लेकिन इसके बाद जो नेताओं को एन एस जी का चस्का लगा है की अब अपनी हिफाजत के एन एस जी लेकर चलेगें। पहले भी एक जेड प्लस सुरक्षा पाए नेता को २० से २५ जवान लगते थे। जरूरत पड़ी तो ५० से १०० तक बढ़ा लिया।यानी की हमें अपनी पड़ी है। जिसके टैक्स का पैसा लेकर आराम फरमा रहे है, उन्हें एन एस जी देने की ज़रूरत नहीं है। उन्हें तो बस हमेश सड़क पर खून बहाना होगा।
सन १९८५ में एन एस जी का गाथा किया गया था। आतंकवाद से निपटने के लिए,बंधकों को छुडाने के लिए, सरहद पर लड़ने के लिए। लेकिन बुध्जीवी नेताओं ने एन एस जी से क्या कम लेना शुरू किया आप भी देख लीजिये । ८७ के बाद से ही इसमे राजनीतिक जमा चढाने लगा था। और फ़िर चुनाव के समय सभाओं की रखवाली करना,लडाई झगडे में मोर्चा संभालना ऐसे तमाम धंधे पर लगा दिया। और केवल सरकार की हिफाज़त कराने में सुरक्छा के प्रति सालाना १८ करोड़ रूपये खर्च हो जाते है। ये खर्च केवल देश के ३० नेताओं पर होता है। यानी की नेता जी को सलाम कराने में ही करोड़ों बह जाते हैं। और जनता का खून सड़क पर बहता है।
अब बात समझ में आ गयी होगी की एन एस जी कैसे हो गयी है नेता security gaurd । क्या नेताओं को आज सुरक्षा की ज़रूरत है। एक तरफ़ तो महोदय कहतें हैं की नेताओं का काम नहीं है लड़ना , यानी की देश की हिफाज़त के लिए सेना का जवान ही मरेगा। नेता नहीं जायेंगे.अब ऐसे में यक्ष सवाल मेरा ये है की क्या इन्हे सत्ता में बने रहने का अधिकार है।

Thursday, September 11, 2008

राज ठाकरे की राजनीति

महाराष्ट्र में राजनीतिक ज़मीन तलाश रही महाराष्ट्र नव निर्माण सेना रास्ता भटक चुकी है। अपनी पहचान बनने के लिया जो मन में आया वही मनमानी शुरू कर दी। मराठी अस्मिता की लडाई लड़ने वाले राज ठाकरे से बढाकर शायद ही कोई ढोंगी बिल्ला इस दुनिया में मिले। जिसे हमेश मराठी का भूत स्वर रहता है। उसके ज़बान में मराठी भाषा है, लेकिन दिल में कोई और भाषा है।

कहते हैं की बालक प्रथम पाठशाला मांहोती है। और बाद में उसका स्कूल। मराठी रोटी खाने वालर राज ठाकरे अन्दर से जर्मन की रोटी खाते हैं। ये सुनकर आपको भी ताज्जुब होगा की जो व्यक्ति मराठी भाषा के लिए स्कूल में तोड़फोड़ करता है। और कहता है की केवल मराठी भाषा पढो। वहीं पर राज ठाकरे के बेटे अमित ने जर्मन भाष को चुना है। ग्यारहवीं में पढ़ने वाले अमित को मराठी भाष ज्यादा रास नहीं आयी। सूत्रों से जानकारी मिली है की अमित की मां ने ही अमित को जर्मन भाषा में पढ़ने के लिए सलाह दी है। अब इसका निचोस यह निकालता है की जिस परिवार में केवल मराठी के आलावा कुछ नहें सूझता वहाँ मराठी भाषा ही हाशिये पर है। अब आप भी ख़ुद विचार विमर्श कीजियेगा की मराठी के लिए कौन लड़ रहा है।

अब इस पूरे मामले में मिझे यही समझ आ रहा है की राज ठाकरे को ख़ुद मराठी भाषा में भरोषा नहें है। वो जानते है की मराठी भाषा का कार्ड लम्बी पारी के लिए नहीं खेला जा सकता है। केवल सुर्खियों में आने के लिए यही एक हथियार है , हमेश एक ब्रेकिंग न्यूज़ बने रहो। लेकिन ऐसे सोंच वाले नेता क्या करेंगे । आजाद भारत में नेताओं की कोई जाती नहें होती, कोई मज़हब नहें होता, कोई धरम नही होता। क्या वो अगर कल नेता होगा तो केवल मराठी भाषियों का ही भरण पोषण करेगा। हमारे स्वतन्त्रता सेनानियों ने केवल जाती की लडाई नहें लड़ीउनकी ऐसे सोंच नहीं रही की केवल मराठी को आजाद कर दो, बांकी को गुलाम रखो,या पंजाब को आजाद करो, बांकी पर राज करो। उन्होंने पूरे भारत के लिए लडाई लड़ी है। तो कम से कम उनसे कुछ तो सीख लो, उनकी लाज बचा लो। आब बात भाषा की है तो क्या सेनानियों मराठी भाषा का इस्लेमाल नहीं क्या, काया उन्होंने अंग्रेजी नहीं बोली, क्या हिन्दी का इस्तेमाल नहें हुआ तो फ़िर लडाई किस बात की।

अब रही बात जाया बच्चन के बोलने पर तो जहाँ पर सब कोई अंग्रजी में बोल रहे थे अगर वहां पर कोई हिन्दी में बोल देता है तो जुर्म कर दिया। बल्कि राष्ट्र का सम्मान किया। ऐसे में नेताओं को समझन होगा की मराठी को आदे हनथो क्यों ले रहे हो। कल गुजराती भी जहेगा की गुज़राती भाषा का अपमान हुआ है, अंग्रेजी वाला कहेगा अंगरेजी का अपमान हुआ है। बंगाली कहेगा बंगाल का अपमान हुआ है। आख़िर यी तेताओं की कौन सी समझदारी है। यी समझदारी अभी तक मुझे समझ में नहें आ रही है। सवाल ये उठता है की क्या महाराष्ट्र नव निर्माण सेना पहले महाराष्ट्र में तोड़फोड़ करेगी , भाईचारे की भावना में जहर घोलिएगी, फ़िर इसके बाद महाराष्ट्र में नव निर्माण करेगी । राज ठाकरे बेटे को जर्मन सिखा रहे है मतलब वो मकल का भविष्य जर्मन में तलाश रहें है, तो गिर आने वाले समय में मरथिई कौन बोलेगा ॥ आप्काके घर में मराठी का भविष्य क्या होगा, ये मनसे के कार्यकर्ताओं को तलाशना होगा।

Wednesday, August 6, 2008

लोकसभा बिकाऊँ है खरीदोगे ?

सरकार गिराने बचाने के खेल का आखिरकार पटाक्षेप हो गया। विरोधी औंधेमुंह गिरे,लेफ्ट में मातम पसर गया। और सत्ताधारियों ने बाजी मार ली। लेकिन इस पूरे खेल में जैसी - जैसी चलें चली गयीं।जैसे - जैसे हथकंडे अपनाए गए।उसने जनतंत्र में जोड़तोड़ का नंगा सच बेनकाब कर दिया।कुर्शी के इस खेल में कौन कितने फायदे में। और कितने नुकसान में ये अलग मुद्दा है। लेकिन एक बात जो उभरकर जो सामने आयी है , वो ये है कि हमाम में सब नंगे हैं।
यानी कि लोकतंत्र के आस्था के इस मन्दिर में भक्तों के ऊपर करोड़ों रूपये का चढावा चढ़ता है। दुनिया के सबसे बडें लोकतंत्र के लिए ये विडम्बना ही कही जायेगी कि जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधि नुमाइंदे खुले बाज़ार में अपनी कीमत ऐसी लगा रहे हैं । जैसे वे व्यावसायिक बाज़ार में बिकने का कोई प्रोडक्ट बन गए हों। मंडी सज चुकी थी। सरकार बनाने की सांसे चल रही थी। कि लोकसभा के इस मन्दिर में वोट की जगह नोट की गड्डियां लहराई जाने लगी। मन्दिर शर्मसार हो गया। पुजारियों में कहीं बयानबाजी , तो कहीं उल्लास तो कहीं सन्नाटा पसर गया। और जनता को शर्म से पानी- पानी होने के सिवाय कोई चारा नहीं बचा। ऐबी वर्धन ने जब से कहा कि २५- २५ करोड़ रुपये में खरीद जारी है। तब से ही उम्मीद जग गयी थी कि रुपयों की बहार है। दरअसल न्यूक्लियर डील के पहले एक डील आपस में हुई। जब उस डील की गांठे कमजोर पड़ गयीं। तो मन्दिर में नोटों की गड्डियों की बहार आ गयी। और फ़िर इसके बाद एक के बाद गद्दे थैले से बहार निकलकर पुजारी वाहवाही लूट रहे थे। और अपने आपको श्रेष्ठ नुमाइंदे होने का खिताब मँगाने लगे। अब सवाल ये उठता है कि आखिर इतनी भरी रकम आती कहाँ से है? और अगर आती भी है तो देने वाले देते क्यों है? इन सभी सवालों के जवाब सत्ता के उन दलालों के पास होता है । जिनका संबंध राजनैतिक दलों के साथ साथ उन धन्ना सेठों से होता है। जो पैसे तो देते हैं , लेकिन किसी शर्त पर। देश के ये धन्ना सेठ होते हैं कारपोरेट घरानों के महारथी। सभी घरानों की किसी न किसी राजनैतिक दल के साथ के संत-गांठ होती है। हालाँकि सभी राजनैतिक पार्टियां जानती हैं कि कौन सा घराना किसके साथ है। लेकिन कोई भी इस अवैध संबंध को उजागर नहें करना चाहता है। वज़ह ये है कि सभी इस संबंध में भागीदार हैं। अब ऐसे में डर इस बात का सता रहा है कि कहीं ये बिकाऊँ प्रोडक्ट इस बात का नारा न बुलंद कर दे कि लोकसभा बेंचना है खरीदोगे ?

Saturday, June 28, 2008

८३ के बाद खर-खर बात

२५ साल पहले जब लार्ड्स के मैदान पर भारतीय टीम उतारी थी, तो उनके सामने चुनौती थी वेस्टइंडीज की बादशाहत को ख़त्म कराने की। और महज़ एक घंटे में कपिल की सेना ने एक ऐसा इतिहास रच दिया जो आज अतीत के पन्नो में याद किया जाता है। इसके बाद हमने बता दिया किक्रिकेट अब अंग्रेजों की उजाली नफासत का खेल नहीं हैं। वो ठेठ भारतीय रंगों में डूबा ऐसा तमाशा है, जिसमे रनों के ढोल के बजाते हैं। जैसे - जैसे विश्व कपकी उम्र बढ़ने लगी। बी.सी.सी.आई.मालामाल होने लगी। वो रुपयों की गठरी बनता गया जिसे दो कदम चलाना भी मुश्किल हो गया। कोंच भी लातेथे। ढोल नगाडे के साथ स्वागत करते थे, लेकिन वो कोच टीम को जितने के बजायतोड़कर चला गया। इसके बाद हमने विश्व कप जीतने का भरसक प्रयाश किया लेकिन ये कप भारत के लिए गूगली की तरह आया। और वाइड बाल की तरह निकल गया। इस दौरान कई उतार चढाव भी हमने देखे, टीम बदल गयी, सेनापति बदल गया। ज़माना बदल गया। जो नहीं बदली वो थी हमारी सोंच। यानी अगर एस २५ साल के सफर में कोई प्रतीक के रूप में खोजना चाहे तो हम पाएंगे कि हमें अपनी भारतीयता पर भी भरोसा नहें रहा। शायद यही वज़ह रही हम विदेशी कोच खोज़ने से लेकर विदेशी अंदाज़ अपनाने तक एक सी दरिद्रता दिखाते रहे। लेकिन अब हमें समझाना होगा कि आखिर हम क्यों चुके। वो कौन सी चीज़ है जो हमें बार- बार ताज पहनने से रोंकती हैं। जिस दिन हम ये पहेली सुलझा लेंगे उस दिन दुनिया में हमारा ज़वाब नही होगा।

Monday, June 9, 2008

फाटक का खुल गया फाटक

बारिश शुरू होने के पहले मुम्बई महानगरपालिका ने दावों की पोटली बांधकर मुम्बई करों थमा दिया। लेकिन जैसे ही बारिश शुरू हुई। पोटली नाले में बह गयी.दरशल मुम्बई महानगर पालिका के आयुक्त जयराज फाटक ने दावा किया था। कि मुम्बई में जल जमाव नही होगा। और शायद महानगर पालिका ने ये समझकर दावा किया था कि बारिश के रिमोट महानगर पालिका के पास है। लेकिन जैसे ही इन्द्र देवता गरजे कि मुम्बई करों में खतरों के बदल मंडराने लगे । लिचले इलाकों कि सडकों और नाले एक साथ मिल गए। सड़क यातायात अस्त व्यस्त हो गया। और महानगर पालिका की सारी व्य्व्स्थाये चरमरा गयी। घरों में ४ से ५-६ फीट पानी भर गया। और मुम्बैकर जान बचने के लिए ठिकाना ढूँढते हैं। रेल की रफ्तार धीमी पड़ गयी। और सडकों में पैदल चलाना तक मुश्किल हो गया। हालत यहं तक पहुँच गए कि दुर्घतानाये भी हो गयी। हिंद्मता सायन परेल माटुंगा जैसे इलाके पाने से भर गए।
फिलहाल अभी तक जीतनी मुम्बई में बारिश हुई है उसका दस फीसदी बारिश आ चुकी है। और पहली बारिश में मनापा के सरे डेव बह गए। मीठी नदी उफान मरने लगी। ऐसे में अब मनापा को जरूरत है कि फ़िर से दावों को अमली जामा पहनाने कि। ताकि बारिश से मनापा अपने आपको धुलने से बचा सके।

Sunday, June 1, 2008

हाय रे चला गया सबका बाप ...

.... तेरा बाप कौन है- तेरा बाप कौन है यही सवाल बार बार उठता रहा और बेटा जवाब देता रहा कि एक दिन मेरा बाप जरूर आयेगा। और वो एक दिन आ गया । वो दिन था १८ अप्रैल। और संदेश दिया गया कि मनोरंजन का बाप डी एल एफ आई पी एल आगया । और अब वो एक जून को विदा होगया।
इस बाप ने भारत में तकरीबन डेढ़ महीने तक मुशाफिरी की। और इसका भूत इस कदर छाया कि कोई नहीं बच पाया। सबको लील गया। मैं ख़ुद लाख कोशिश करता रहा कि आई पी एल के भूत से दूर रहूँगा , लेकिन रोजी रोटी के चक्कर में आई पी एल के आगोश में मैं भी समां गया। मीडिया को तोपूरे महीने आई पी एल का भूत सवार रहा।
दरअसल इस बाप का बाप है ललित मोदी । जिसने कारोबार की द्रष्टि से आई पी एल को पैदा किया। और फ़िर चीयर लीडर्स ने उसमे और तड़का लगा दिया। और तड़का ऐसा लगा कि बांकी के सीरियल जैसे सास बहू और तमाम सरिअल की बैंड बजा गयी . टैम मीडिया रिसर्च की माने तो शाहरूख की टीम कोलकाता और माल्या की टीम बेन्गुलुरू के बीच खेले गए पहले आई पी एल मैच में व्यूअर्शिप आठ से ऊपर पहुँच गयी थी। जबकि सुपर हिट सीरियल की व्यूर्शिप पाँच के आस पास रहती है। जाहिर है आई पी एल सास बहू जैसे सेरियलों को पछाड़ दिया है। जनता क्रिकेट का तड़का देख रही है। आई पी एल की भूख थी और बाज़ार की मांग रही होगी कि इस टूर्नामेंट में तड़का लगना चाहिए। सो अमेरिका से चीयर लीडर्स को न्यौता दे दिया गया। लेकिन आई पी एल मैच के दौरान मुम्बई के कुछ नेताओं को चीयर लीडर्स की भंगिमाओं में एतराज हुआ। उन्हें नाचने वाली लड़कियों की छोटी - छोटी चाद्दियाँ और चोलियों में नाच की भाव भंगिमाएँ रास नहीं आयी। आखिर इन्ही नेताओं ने तो ही मुम्बई की बार बालाओं पर पाबन्दी लगवाई थी। बार बलाये तो फ़िर भी बार के हाल में नाचती थी। लेकिन ये चीयर लीडर्स खुले स्टेडियम में नाच रहीं हैं। नातों को नतिक बोध की चोंट लगी। और फ़िर उन्होंने पुलिस से कहा कि ये नंगा नाच नहीं चलेगा। कुछ ने विधान सभा में आवाज़ उठाई। पुलिस ने आदेश दे दिया कि चीयर लीडर्स को आचार संहिता के मुताबिक ही कपडे पहने होंगे। यहाँ ऊंचे पैंट और उरेजों का विभाजन दिखाने वाली चोलियाँ नहीं चलेगी। यानी मुम्बई पुलिस और नेता जिसे अश्लील समझते थे उस पर पाबंदी लग गयी।
वहीं टूर्नामेंट के दौरान एक ख़बर आयी कि आई पी एल कमिश्नर ललित मोदी सार्वजनिक स्थान में सिगरेट पी रहे थे। पुलिश में शिकायत भी दर्ज कर दी गयी। लेकिन भाई समझाना होगा कि बी सी सी आई के सामने आई सी सी भी पानी भारती है। तो फ़िर तुम किस खेत की मूली हो। अभी और किस्सा सामने आ गया कि रात दस बजे के बाद चीयर लीडर्स नाचेंगी नहीं। तो फ़िर भाई अभी तक क्यों बैंड बजवा रहे थे। क्या वो चीयर लीडर्स को देखकर भूल गए थे।
खैर कुछ भी हो । अब तो चैनल भी बार-बार चेयर लीडर्स पर ही ब्रेक लेते थे। अख़बार में क्रिकेटरों की जगह चीयर लीडर्स की फोटो छपती थी। अब सवाल ये उठता है कि क्या बाज़ार को देख कर रंग बदल गया है। क्या भारतीय समाज अब सिर्फ़ यूरोप के बजारू मूल्यों के सामने गिरवी रखने के लिए ही बचा है। या हमारा मीडिया ही बाज़ार का चीयर लीडर हो गया है। लेकिन अब तो मनोरंजन का बाप चला गया , और कई सवाल छोंड गया।

Saturday, May 17, 2008

अमेरिकी खाते कम फेंकते ज्यादा हैं

अभी कुछ दिनों पहले भारतीय थाली में बुश साहब को ,मिर्ची लग गयी थी। वो तोगनीमत रही कि बुश साहब को पता नहीं था कि हिंदुस्तान का इतिहास ५६ भोग और ३६ प्रकार के व्योंजनों से पटा पड़ा हैं। अगर कहीं इस बात का पता होता तो बुश साहब का चेहरा जाने कब का लाल हो गया होता। खैर जो भी हो,मैं उस देश की बात कर रहा हूँ जिस देश को महंगाई मर रही है। और विदेशियों को सब कुछ सस्ता लगता है। हम क्या खाते हैं?क्या पीते हैं ? बुश साहब अपने चछु से बगैर देखे ही दे डाले हैं। कहीं वो आम हिन्दुस्तानी की थाली देखते तो शायद ये बयान नहीं आता। क्योंकि ऐसा बयान देने के पहले उन्हें अपने गिरेबान में झांक कर देखना पड़ता। बुश ने उस देश को खाता पीता करार दिया है जिसकी आधे से ज्यादा आबादी भूख से दम तोड़ती है। आज भी ऐसी आबादी है जो खाने की थाली का भोजन फेंक देते हैं, और कुछ लोग जूठन खाने के लिए मजबूर रहते हैं.वो आबादी भी कम नहीं है जो लंगर के भरोसे जी रही है। लेकिन शायद बुश साहब ऐसी हकीकत से कोसों दूर हैं। और बिना नापा तुला बयान भारतीय थाली में परोस दिया।
लेकिन बुश साहब आप और आपकी सेना ज्यादा खाना खा नहीं पातीऔर फेंकने में भरोसा करती है। ऐसे में अगर हम अच्छा खाते हैं तो फ़िर मिर्ची आपको क्यों लग रही है। जबकि हम तो मिर्ची और गुलाब जामुन एक साथ एक ही थाली में खाते हैं।
अभी हल ही में अंतरराष्ट्रीय जल संस्थान, संयुक्त राष्ट्र के खाद्य तथा कृषि संगठन और अंतर्राष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान द्वारा तैयार की गयी रिपोर्ट में खुलासा किया गया है कि अमेरिका में ४८.३ अरब डोलर यानी तकरीबन १९ ख़राब रुपये मूल्य का खाना हर साल कूड़े में फेंक दिया जाता है। यह कुल भोजन का तीस फीसदी है। अब ये रिपोर्ट उस समय आयी है जब बुश को भारतीय थाली रास नहीं आयी है। और जब पूरी दुनिया खाद्य संकट और महंगाई की मर से जूझ रही है। टैब ये रिपोर्ट और तड़का लगा रही है। रिपोर्ट में विस्तार से समझते हुए लिखा गया है कि अमेरिका ब्रिटेन जैसे देश इस मामले में सबसे आगे है। ऐसे में खाद्य पदार्थों की बर्बादी का मतलब है कि पानी की बर्बादी। और ये मश्ले को और गंभीर बना देती है।क्योंकि दुनिया में पानी की घोर किल्लत होने वाली है। रिपोर्ट के मुताबिक अगर अमेरिका का तीस फीसदी भोजन बर्बाद करता है, तो वह ४० खरब लीटर पानी बेकार बहने के बराबर है। इतना पानी पचास करोड़ लोगों के घरेलु जरूरतों को पूरा कराने के लिए पर्याप्त है।
अब तो उम्मीद करना होगा कि ये रिपोर्ट बुश के ज्ञान चछू खोलेगी , और बुश साहब के देखने और समझने में फेरबदल होगा।

Tuesday, May 6, 2008

स्वच्छ मुम्बई गंधाती मुम्बई

मुम्बई मनपा शहर को साफ सुथरा बनने के लिए सालाना एक हज़ार करोड़ रुपये फूंकती है। लेकिन सफ़ाई के नाम पर स्वच्छ मुम्बई हरित मुम्बई का नारा केवल कचाडा धोने वाली गाड़ियों में मिलेगा। या फ़िर ज़बान में मिलेगा। रही सही कसार मुम्बई में कचाडा ढोने वाली गाडियाँ गंधने में काफी सहयोग कर रही हैं।
मुम्बई मनपा का घन कचाडा विभाग रोजाना ७५०० मीट्रिक तन कचाडा उठाने का कम करता है। छः हज़ार कलेक्शन सेंटरों में ४६६ गाडियाँ मनपाऔर ६७३ गाड़ियों के जरिये से कचाडा उठाना निजी ठेकेदारों की है। जिसे देवनार, मुलुंड गोरे के डंपिंग ग्रौंद में दोंप किया जाता है। मनपा के रेकॉर्ड में १८०० से १९०० किलोमीटर सडकों की सुरक्षा की जाती हैं। साल २००६ - ०७ के बज़टमें ८९८ करोड़ रुपये मनपा ने कचाडा उठाने के लिए प्रावधान किए हैं। मुम्बई मनपा के वार्ड कार्यालय के अंतर्गत सहायक अभियंता और मुख्य अवेक्षक वार्ड स्तिरीय स्वच्छ पर नियंत्रण रखते हैं। अब सवाल ये उठता हैं की इतनी बड़ी यंत्रणा इतनी मोटी रकम और इतना स्टॉक होते हुए आखिर मुम्बई क्यों बदबूदार हो रही हैं।
शहर और उपनगरों में कचाडा ढोकर दौड़ने वाली गाडियाँ अपनी बदबू से स्वच्छ मुम्बई गंधाती मुम्बई का नारा दे रहीं हैं। कचाडा गाड़ी के इर्द - गिर्द बस , कार , टैक्सी या रिक्शा खड़ा होते ही यात्रियों को अपना रुमाल निकालकर नाक पर रखना पड़ता है। सिग्नल पर ट्राफिक में कचाडा गाड़ी का पड़ोसी होना सबसे बैडलकमाना जाता हैं। यह हुयी मुम्बई वाहन चालकों की कहानी। सडकों पर चलने वाले भी इन कचाडा गाड़ियों से काफी परेशां हैं। ठंड हवाओं के बीच गाड़ी से निकलने वाली बदबू मौसम का किरकिरा कर देती है। मनपा कालेक्टिन सेंटर के आस - पास रहने वाले लोग दुकानदार अपनी किस्मत को कोसते हैं। सफ़ाई कर्मचारियों की हड़ताल इन लोगों के लिए एक अमूल्य उपहार होती है।
मुम्बई मनपा के इसके अलावा दत्तक बस्ती योजना के जरिये स्वच्छता को बरकरार रखने का अलाप रागति है॥ पूरे शहर और उपनगर में २५० बस्ती संस्थाएं मनपा का ६० करोड़ रुपये सालाना दकारती हैं।और संस्थाये रोजी -रोटी कमती हैं। अधिकांश दत्तक बस्ती संस्थाये नगर सेवकों की प्राइवेट प्रापर्टी है, या फ़िर उनका कोई चमचा उसका संचालक है। " नया भिडू नया राज "के कारन नगर सेवक बदलते ही पुरानी संस्थाएं विश्र्जित होकर नयी संस्थायों का पुनर्जन्म होता है। मनापा अधिकारी, नगर सेवक और संस्था का त्रिगुट दिन दहाड़े लूटपाट कर रहा है। लेकिन उसकी ४० फीसदी से भी कम रकम उन मजदूरों को दी जाती है। जो १२ घंटे काम करते हैं। एकाध महीने पेमेंट मिलने पर देरी होने पर महापौर से लेकर नगर सेवक तक गुहार लगाती हैं। दत्तक बस्ती योजना के जरिये गली कूचे का कचाडा मनपा के कालेक्टों सेंटर तक लाया जाता है। और फ़िर मनपा उसे ढोकर डंपिंग ग्रौंद तक ले जाती है। यहाँ पर कचाडा ढोने का इतना विचित्र समय है की पूरी मुम्बई की जनता को पता चल जाता है की मुम्बई स्वच्छ हो रही है। क्योंकि कचाडा गाड़ी घंटों ट्राफिक जाम का कारन बनती है।
स्वच्छ मुम्बई सुंदर मुम्बई का नारा कागजों पर सिमटने से सडकों को स्वच्छ युक्त देखना किसी सपने से कम नहीं है। रोजाना कचाडा गाड़ियों से आने वाली बदबू से मुम्बई गंधने से रोकने के लिए कचाडा ढोने का समय निश्चित किया जाना चाहिए। नहीं टू स्वच्छ मुम्बई गंधाती मुम्बई का नारा लोगों की ज़बान रहेगा साथ ही ही दिलो दिमाग पर भी छाया रहेगा.....

मुम्बई में बहुरेंगे ट्राम के दिन

मुम्बई की भागती, दौड़ती, हांफती ज़िंदगी अब फ़िर से अतीत को याद कर सकती है। जिस शहर के लोगों ने ९० साल तक ट्राम में सफर किया हो, अब उसी शहर को फ़िर से ट्राम का लुत्फ़ मिल सकता है। ऐसे में बीते ज़माने की बन चुकी ट्राम एक बार फ़िर सर मुम्बई की सडकों में दौड़ सकती है। हालांकि अभी ये योजना अपने शुरुवाती दौर में है। मुम्बई में तेज़ी से बढ़ती आबादी की वजह से यहाँ यातायात की समस्या भयानक होती जा रही है। इसके समाधान के लिए शुरू की गई मास रैपित त्रंजिस्त सिस्टम के तहत वर्सोवा- अँधेरी - घाटकोपर क्षेत्र में ट्राम चलने के प्रस्ताव पर विचार किया जा रहा है। इसके लिए कोल्कता में चल रहे ट्राम का अध्धयन कराने के लिए मुम्बई से टीम भी गयी थी। जिसमे ये पता चला की कोलकाता की तरह मुम्बई में ट्राम नहीं चलाई जा सकती है। ये काफ़ी पुरानी है। और घटे में चल रही है।
ऐसे में अब ये कहा जा रहा है की यूरोपीय देशों में चलने वाली आधुनिक ट्रामों की तर्ज़ में चलाया जा सकता है। दुनिया के कई देशों में आज भे ट्राम लोगों को उनके मंजिल तक पहुंचा रही है। मेट्रो के अलावा मुम्बैकारों को अब ट्राम का भी इंतजार रहेगा। मुम्बई में ट्राम शुरू कराने का प्रारूप ऍम ऍम आर डी ऐ ने किया है , जिसको अमली जामा पहनाने का काम ऍम आर टी एस को करना है। यदि ये योजना लागू हो पाई तो ४० साल बाद मुम्बई में फ़िर से ट्राम की वापसी होगी। ट्राम के चलने में जहाँ खर्च कम आता है तो वहीं प्रदूषण से भी निजात मिल सकती है।
अब वैसे तो ट्राम मुम्बई के अलावा कानपूर, नाशिक और चेन्नई जैसे शहरों में यात्रा का मुख्य साधन हुआ करती थी। मुम्बई में १८७४ में बिटिश शाशन के दौरान ट्राम की शुरुआत हुई थी। शुरुआत में ट्राम घोडों के जरिये चलाई जाती थी। इसके बाद १९०५ में घोडों से चलने वाली ट्राम की विदाई हो गयी। और १९०७ में एलेत्रनिक ट्राम की शुरुवात हुई। धीरे - धीरे ट्राम में यात्रियों की तादाद बढ़ गई। टैब १९२० में डबल देकर टर्म चलने लगी। लेकिन बाद में ट्राम का चलना मुश्किल हो गया ॥ और १९६४ में मुम्बई से ट्राम की विदाई हो गई ॥ इस तरह से मुम्बई के लोगों ने 90 सालों तक ट्राम की सवारी की। .........

Friday, May 2, 2008

बनारस के अस्सी घाट में विशाल भंडारा

ब्रम्हार्शी श्री देवरहा भारत जी महाराज योग निकेतन मुम्बई द्वारा हनुमान जयन्ती के उपलक्ष्य में विशाला भंडारा का आयोजन किया गया था था। इसके बाद अब भारत महाराज बनारस की ओर रूख कर रहे हैं। श्री भारत महाराज ४ मई से बनारस के द्वारिका धीश मन्दिर के अस्सी घाट में विशाल भंडारा कर रहे हैं। श्री भारत महाराज ने बताया कि३ मई को अखंड रामायण सुबह १० बजे से शुरू हो जायेगी । इसके बाद दूसरे दिन पूर्णाहुति है, और इसके बाद विशाल भंडारा का आयोजन किया जायेगा। साथ ही संतो का समागम किया जायेगा। योग निकेतन की ओर से सभी देश वशियों से विनम्र निवेदन है कि अधिक से अधिक लोग पहुँच कर भंडारे को सफल बनायें। ये आयोजन ४ मई से ९ मई तक चलेगा। जिसमे सुबह ८ बजे से ११ बजे तक भारत महाराज के दर्शन पा सकते हैं। इसके बाद सायं ४ बजे से ६ बजे तक दर्शन कर सकते हैं। इस दर्शन में सभी भक्त गण अपनी समस्याओं का समाधान भारत महाराज से ले सकते हैं।
ये भंडारा योग निकेतन के द्वारा पिछले १० सालों से किया जा रहा है। जिसमें लाखों भक्त शामिल होते हैं। श्री भारत महाराज के विषय में जितना भी लिखा जाए वो कम है। महाराज के पास कई इसेमरीज़ आये जिन्हें डाक्टरों ने जवाब दे दिया। और वो महाराज के आशीर्वाद से घोडे कि तरह दौड़ कर घर जाते है। आज महाराज कैंसर , लकवा , मिर्गी आदि घातक बीमारियों को बिना किसी दवा के आशीर्वाद देकर ठीक कर देते हैं। आज महाराज के आश्रम में डाक्टरों के द्वारा जवाब दिए गए मरीज रात दिन काम कर रहे है। श्री भारत महाराज का आश्रम मुम्बई के जोगेश्वरी इलाके में रेल वे कालोनी में है, जहाँ हर दिन हजारों कि तादाद में भक्त दरसन करते हैं। अब अगर आप भी किसी समस्या से परेशान हैं तो फ़िर देर किस बात कि। बिना किसी पैसे के निः शुल्क आशीर्वाद मिलता है। और समस्त प्रकार की बीमारियाँ जड़ से दूर हो जाती हैं.

Tuesday, April 29, 2008

मुम्बई तुझे सीने से लगाये हैं

जाने क्या बात है बम्बई तेरी शबिस्तान में
कि हम शाम -ऐ अवध और सुबह ऐ बनाराश छोंड आए हैं........
तेरी सड़कों पे सोये, तेरी बारिश में नहाये हैं
तुझे ऐ बम्बई हम फ़िर भी सीने से लगाये हैं........
अली सरदार जाफरी
कुछ इसी जज्बात के साथ मुम्बई के बारे में याद दिलाता हूँ। मुम्बई महिम, कुलाबा, छोटा कुलाबा मझागोवं, वरली, परेल और माटुंगा सात छूते टापुओं का समूह है। ऐसे सात टापू में से कुलाबा, मझगांव और महिम ये तीनो सभी सभी द्रष्टि से महत्वपूर्ण थे। इन सभी टापुओं पर ज्यादातर लोगों कि संख्या कोली समाज कीथी। आज एस कोली समाज की बस्ती ऐसे स्थानों पर मौजूद है। एस कोली समाज के कुल देवता का नाम मुम्बई आई है। और अंग्रजों ने इसका अपभ्रंश मुम्बई किया।
मुम्बई की खोज प्रशिध्ध भूगोल शास्त्री पिन्तोल मीने ने इ.स। १५० में की थी । खिस्ती शत पूर्व २७३-२३२ इधर मौर्या काल का शासन रहा। ८१० से १२६० तक शिलाहरा का राज्य चला। २३-१२ १९३४ को सुलतान बहादुर शाह ने पुर्तगाल को ८५ पौंड लगन भरने की शर्त पर हमेशा के लिए दे डाला। उसके बाद उस दौर में डच और अंग्रेज भी आ गए। केरल किनारे के मलबारी यहाँ आकर बस गए । और जिस टेकडी पर उनका अड्डा है , वो प्रसिद्ध मालाबार हिल है।
१६६१ में अंग्रजों को राजकुमारी कैथरीन का चार्ल्स दूसरे से विवाह में दहेज़ के रूप में दिया गया। इसके बाद अंग्रजों nऐ इसे ईस्ट इंडिया कंम्पनी को १० पौंड वार्षिक राशी पर पत्ते पर दे दिया। सन१६१२ में अंग्रजों ने अपना मुख्य कार्य क्षेत्र सूरत से हटाकर मुम्बई करेदिया। आज इस शहर को गिलियान तिन्दल ने " सिटी आफ गोल्ड " की उपाधि दी। एक ओर जहाँ ये महानगर लंदन और पेरिश से टक्कर लेता है वहीं दूसरी ओर निर्धनता की पराकाष्ठा भी दर्शाता है। यहाँ एक ओर वैभव शाली अत्तालिकाए, चमचमाती शानदार कारें और पाँच सितारा होटल वहीं दूसरी ओर झुग्गी , झोपदियाँहैं। यहाँ है वैभव एश्वर्या और चमक - दमक का साम्राज्य है। देश के सबसे सम्र्ध्ध औधोगिक घरानों जैसे बिड़ला, टाटा अम्बानी के मुख्यालय यहाँ स्थित है। यहीं पर मुम्बई फ़िल्म उद्योग को चकाचौंध कराने वाले स्टूडियो हैं। जो बहरत वर्ष के कोने - कोने से युवक- युवतियों को आकर्षित करते हैं। कुछ सपने पूरे होकर वो प्रशिधी की ऊंचाई में पहुँच जाते है। लेकिन जादातर लोगों का जीवन थोंकारे खाकर गरीबी में ही गुजर जाते हैं। सारे देश से लोग अपना भाग्य बनने यहाँ आते हैं। कहतें हैं मुम्बई म,एन सोना बिखरा पड़ा है। .उसे टू खोजने वाले और उठाने वाले चाहिए। इतिहास ऐसे कई लोगों को उदाहरण पेश करता है। की कैसे लोग यहाँ लोटा डोर लेकर यहाँ आए, और अपने पुरुषार्थ और व्यापर कौशल पर बुलंदी पर पहुँच गए।
मुम्बई शहर के मूल निवाशियों की अधिष्ठात्री मुम्बा देवी के नाम से मुम्बई का नाम पड़ा। देश में रेल का मुंह देखने का श्रेय इसेसहर को मिलहुआ है। टैब से लेकर अब तक मुम्बई में कई परिवर्तन हो गए हैं। एस शहर ने बाढ़, विस्फोट, dange झेले हैं लेकिन न थामने वाली मुम्बई मुस्कराते हुए अपने रफ्तार पर बनी रही और आज मुम्बई सिर्फ़ एक ही धर्म जानती है - काम कारन और चलते रहना।

Monday, April 28, 2008

महाराष्ट्र स्थापना दिवस

महाराष्ट्र स्थापना दिवस


एक मई १९६० को महाराष्ट्र प्रथक राज्य बना

महाराष्ट्र का इतिहास काफी पुराना है। इसके लिखित इतिहास के अनुसार सबसे पहले इस राज्य में सातावाहन राजवंश और उसके बाद वाकाटक वंश का राज्य रहा है। इसके पश्चात इस क्षेत्र पर कलचुरी, चालुक्य, यादव, दिल्ली के खिलजी और बहमिनी वशों ने शासन किया। इसके बाद केंद्रीय सत्ता बिखरकर छोटी-छोटी सल्त्नतों में बदल गई।

सत्रहवीं शताब्दी में शिवा जी के प्रभावशाली बनने के बाद आधुनिक मराठा राज्य का उदय हुआ। शिवाजी ने बिखरी ताकतों को एकजुट कर शक्तिशाली सैन्य बल का संगठन किया। इस सेना की मदद से मुग़लों को दक्षिण के पत्थर से आगे बढ़ने से रोका । लेकिन, शिवाजी की मृत्यु के बाद मराठा शक्ति बिखरने लगी। शिवाजी के उत्तराधिकारियों की विफलता के कारण पेशावओं ने सत्ता पर अधिकार कर लिया। सन 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई के बाद मराठा शक्ति पूरी तरह से बिखर गई। अंततः 1818 तक अंग्रेजों ने सम्पूर्ण मराठा क्षेत्र पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। फिर से 1875 में नाना साहब के सैनिकों ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गाँधी और तिलक ने महाराष्ट्र के लोगों को सक्षम नेत्रत्व प्रादन किया। स्वंत्रता प्राप्ति के बाद बम्बई प्रान्त में महाराष्ट्र और गुजरात शामिल थे। बाद में बम्बई पुनर्गठन अधिनियम १९६० के अंतर्गत एक मई १९६० को इस सम्मलित प्रान्त को महाराष्ट्र और गुजरात नामक दो प्रथक राज्यों में बाँट दिया गया। पुराने बम्बई राज्य की राजधानी नए महाराष्ट्र राज्य की राजधानी बन गई। सन १९९५ में बम्बई का नाम बदलकर मुम्बई कर दिया गया।

अगर महाराष्ट्र के भौगोलिक क्षेत्र में नजर डालें तो महाराष्ट्र देश का तीसरा सबसे बड़ा राज्य है। राज्य के पश्चिम में अरब सागर, दक्षिण में कर्नाटक दक्षिण पूर्व में आंध्र प्रदेश और गोवा , उत्तर पशिम में गुजरात और उत्तर में मध्य प्रदेश स्थित है। महाराष्ट्र का तटीय मैदानी भाग कोंकण कहलाता है। कोंकण के पूर्व में सह्याद्री की पड़ी श्रंखला सागर के समांतर स्थित है। आज महाराष्ट्र में विधान सभा की सीटें २८८, विधान परिषद् की सीटें ७८ ,लोकसभा की सीटें ४८ ,और राज्य सभा की १९ सीटें हैं। और महाराष्ट्र में ३५ जिले है।

अब अगर वर्तमान राजनीतिक बात करें तो महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश स्थापना दिवस मनाने पर हमेश बवाल उठता है। इसी वज़ह से उत्तर भारतीयों ने महाराष्ट्र सथापना दिवस मनाने का फैसला भी किया है। उत्तर प्रदेश, बिहार झारखंड के सांस्कृतिक मंच ने महाराष्ट्र सथापना दिवस मनाने का फैसला किया है। जाहिर है इस कार्यक्रम से मराठी और गैर मराठियों में बढ़ रही खाई कम होने की उम्मीद जताई जा सकती है।

Sunday, April 27, 2008

इस बार आग उगलेगा सूरज

इस साल मुम्बई में ठंढ ने सभी तरह के रेकॉर्ड को ध्वस्त करके ठंढ चरम पर पहुँच गई। पिछले ४४ सालों के रेकॉर्ड को ठंढ ने तोड़ दिया। और पूरी मायानगरी कांप गई। लेकिन इस साल मुम्बई के अलावा पूरे देश वाशियों को उमस भरी गर्मी ज्यादा झेलनी पड़ सकती है। क्योंकि इप्च्क की रिपोर्ट ने जिस तरह के संकेत दिए हैं , उससे यही मालूम पड़ता हैं की इस बार लू के थपेडे ज्यादा सहने पडेगें। मौसम विग्यनिओं की बात माने तो उनका कहना है की पिछले दस सालों से शीत लहर और लू के थपेडों में बढोत्तरी हुई है। इस साल गर्मियों में नए - नए रेकॉर्ड बनने की संभावना है। वहीं पिछले महीने नागपुर और विदर्भ में ओले गिरे। एक तो पहले बेमौसम बारिश फ़िर ओले गिराने से पहले से ही जख्म खाए किसानों के जख्म और हरे हो गए । ये सब हो रहा है ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ।
इप्च्क यानि इंटर गवर्नमेंट पैनल ऑन क्लीअमेत चेंज की रिपोर्ट भी यही कहती है की ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ये सब हो रहा है। रिपोर्ट ने ये संकेत दे दिए हैं की इसबार पारा ४५ के पार रहेगा। मुम्बई जैसे शहर में जहाँ सम शीतोष्ण रहता है, वहां भी पारा ने अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है। अभी अप्रैल का महीना ख़त्म होने के कगार में चल रहा है। और यहाँ गर्मी ने सबका कचूमर निकालना शुरू कर दिया है। लोकल ट्रेन में भेड़ बकरी की तरह ठुंसे रहने वाले यात्रियों की जबान बदल गई है.पहले कहते थे गर्दी (भीड़) बहुत ज्यादा है। अब कहतें हें- गर्मी ज्यादा है.अब अगर उत्तर भारत की बात करें तो तो वहाँ गर्मी और ठंढी का गढ़ माना जाता है। गर्मी में जहाँ जाने जाती है तो वहां ठंढी में भेड़ जाने जाती है। लेकिन अभी तक वहाँ तपन मई में शुरू होती थी। और बारिश के पहले तक असर रखती थी। लेकिन इस बार मई के बिना इन्तजार किए ही गर्मी ने दस्तक दे दी। और पारा अभी से ही ४५ के पार हो गया। अगर में में तो लोग पारा के ऊपर चढाने से बहाल हो गए हैं।
अब सवाल ये उठता है की प्रकृति का परिवर्तन है, होता रहता है.लेकिन ये परिवर्तन घातक क्यों साबित हो रहा है।
धरती को गर्म से बचानेकी पहल पर पर ग्लोबल वार्मिंग के चलते दुनिया कई लोग जागरूक भी हो गए हैं। ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते खतरों के चलते जागरूकता निर्माण कराने के लिए एक घंटे के लिए बिजली का उपयोग नहीं क्या गाया। "अर्थ अवर " नाम से किए गए इस प्रयोग में विश्व के ३७१ देशों में रात्रि ८ से ९ बजे तक बिजली का उपयोग नहीं किया गया । इस तरह से ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिए तमाम तरह के प्रयोग किए जाते हैं। लेकिन जरूरत है की प्रकृति से छेड़- छाड़ नहीं करे। अगर अपनी आदतों में सुधर नहीं हुआ तो कितना भी जागरूकता फैला लो , सूर्य देवता तो आग उगलेंगे ही ।

Saturday, April 26, 2008

भज्जी का थप्पड़ जग जाहिर

मोहाली में मैच चल रहा था , एक तरफ़ मुम्बई की टीम तो दूसरी तरफ़ पंजाब की टीम। दोनों टीम को जीत का खाता खोलना था । किसी ना किसी का खाता खुलना था। खाता खोल दिया पंजाब की टीम ने , बस फ़िर क्या था। अम्बानी टीम के कैप्टन यानी मुम्बई टीम हरभजन हार नहीं झेल सके , और श्री शांत को एक थप्पड़ रसीद कर दिया। बस फ़िर क्या था , जिसकी मैदान में कभी तूती बोलती थी । वो फूट -फूट कर रोने लगा । आँखों से आंसू छलकने लगे , आंसू थामने का नाम नहीं ले रहे थे। साथी खिलाड़ी आंसू पोंछने लगे, लेकिन जख्म इतने गहरे थे , की थामने वाले ही नहीं थे। पहले तो शांत के आंसू देखर यही लगा कि खुशी के आंसू हैं, लेकिन खुशी के आंसू और गम के आंसुओं में फर्क जल्द ही पता चल गया । रही सही कसर युवराज ने पूरी कर दी और जो बताया उसे सुनकर सबकी ऑंखें फटी कि फटी रह गयी। और युवराज ने ही खुलासा किया कि हरभजन ने थप्पड़ mara है । मामले को देखते हुए हरभजन ने kshama भी मांगी । लेकिन क्या IPL में anushaashan khatm हो गया है। जब हार नहीं hazam नहीं हुई तो थप्पड़ मारकर आत्म शान्ति pahunchaa रहे हो। khel को khel कि भावना से khelanaa चाहिए । ये श्री शांत पर थप्पड़ नहीं बल्कि IPL पे थप्पड़ है। अगर kahin bahar होता तो क्या होता । बाद में फ़िर उसी तरह के केस का samna करते । BCCI ने तो gambheer mamala बताया है, और कुछ ना कुछ hal nikalane का ashwashan दिया है। लेकिन क्या भज्जी को थप्पड़ maarane पर जीत मिल गई है ? हम aapas में ही ulajhana chahate हैं। लेकिन भज्जी ने जो कुछ bhee किया वो khel भावना को darkinaar करके उसने किया । filhaal kings elevan ने मैच refari से shikayat भज्जी के khilaf darz kara दी है।

Friday, April 25, 2008

महाराष्ट्र में यौन शिक्षा

बजट सत्र के दौरान विधान मंडल में यौन शिक्षा देने की बात शिक्षा मंत्री बसंत पुरके ने की। लेकिन जब विपक्ष नहीं माने तो सरकार को पीछे हटाना पड़ा। और अब सरकार ने एक समिति गठन करने का फैसला लिया है , और समिति की रिपोर्ट आने के बाद ही विचार किया जायेगा। लेकिन यक्ष सवाल ये है की जिस देश में १८ साल की उम्र में सरकार चुनने का अधिकार है , तो क्या इस उम्र में यौन शिक्षा देने कि जरूरत नहीं है। इस उम्र में एक आम लड़की कि शादी शादी हो जाती है। तो क्या एसे में ये जरूरी नहीं है कि पहले ही उसे दांपत्य जीवन के बारे में जरूरतों और सावधानियों कि जानकारी दे दी जाए ।
एक बात गौर करने कि है यौन भावना और यौन जानकारी का आपस में कोई संबंध है कि नहीं। बहुतों का कहना है कि यौन जानकारी बच्चों में ग़लत भावनाओं को उभारेगी। ये भारतीय संस्कृति को दूषित करेगी । लेकिन यौन जानकारी के बिना भी यौनेछा तो उपजेगी ही। तब इसे समझना और संयमित करना और मुश्किल हो जाएगा । क्योंकि चोरीछिपेहशील कि गयी जानकारी कैसे होगी ये कल्पना से बाहर है।
कई बार ये भी कहा जाता है कि बच्चो को इन सबकें के बारें में बड़े लोगों से जानकारी मिल जाती है। लेकिन हमारा तथाकथित पढ़ा लिखा वर्ग भी किस तरह कि जानकारी रखता है ये किदी से छिपा नहीं है ।
माहवारी आने पर कपडा बाँध लेने कि बात ही यौन शिक्षा तक सीमित नहीं है। हमारा महिला समाज अपनी देह को सुंदर दिखाने में जीतनी रुचि लेता है उसकी चौथाई भी अगर शरीर कि समस्याओं को समझनेमें लेता तो कई ऐसेबीमारियों से बचा सकता है। जो बाद में जानलेवा साबित होती है। इसलिए पुरषों कि तुलना में महिलाओं को तो यौन जानकारी देना और भी जरूरत है।
एक बात ये भी है कि यौन शिक्षा का जो विरोध हो रहा है , उसके पीछे भी पुरुषवादी मानसिकता ही ज्यादा कम करती है । लेकिन यक्ष एक बात मानना होगा कि यौन जानकारी देने वाली शिक्षा न केवल ख़ुद में आत्म विश्वाश लाती है, बल्कि इससे सामाजिक स्वास्थ्य भी बेहतर होगा।

Tuesday, April 22, 2008

मुझे सरकारी गुंडों से बचाओ

मुम्बई के किल्ला कोर्ट में अरुण गवली की पेशी थी, सभी कैमरा मन कैमरा तान कर खड़े हो गए , शूटिंग चल रही थी , तभी कर्तव्यनिष्ठा से शूटिंग कर रहे सीटीवी के कैमरा मन पर पुलिस ने हाथ उठा दिया, और बेबाक शब्दों में जवाब दिया ये हमारा काम हैं। यानी अब पुलिस के काम बदल गए है। उनकी कर्तव्यनिष्ठा बदल गयी है..उल्टे धमकी देकर चेतावनी भी देतें हैं। सवाल यही उठता है की इन पुलिस वालों को किसने अधिकार दिया है इस तरह से क़ानून को हाथ में लेने के लिएसाथ ही ये भी धमकी दे देते हैं की जो करना है कर लेना। यानी कानून इन्हीं से बनता है, और इन्हीं पर khatm hotaa है । मीडिया और पुलिस में karib एक घंटों तक nonk jhonk chalati रही , और पुलिस bavaal katati रही । shikaayat लिखने में भी aanaakaani करते रहे , लेकिन बाद में shikat darz की , और मुम्बई आला afasar kaa bayan आता है की sakhat karrvaai kee jayegi॥ लेकिन kahin ये bayaan jhunjhanaa ना sabit हो jae जिसे केवल bajaate रहा jaen ।

Wednesday, April 16, 2008

जाति- प्रथा समता मूलक समाज की स्थापना में सबसे बड़ी बाधा है

भारतीय समाज की जाति व्यवस्था को देखकर संसार के समाज शास्त्री चकित रह जाते हैं। जातियाँ और वर्गभेद संसार के सभी समाज में है। लेकिन जो रूप भारतीय समाज में प्राप्त होता है, वह अद्वतीय है। इस व्यवस्था ने समाज में आज जिस तरह अपना जाल फैला लिया है। उससे मुक्ति असोभाव प्रतीत होती है। हिंदू समाज तो इससे बुरी तरह ग्रस्त है ही, मुसलमान, ईसाई औए सिख भी इसके सर्वग्राही प्रभाव से मुक्ति नहीं है। सामाजिक द्रष्टि से जाति प्रथा का सबसे घृणित रूप ऊंच-नींच की भावना है। यह एसी सीढ़ीदार व्यवस्था है, जिसमें सबसे ऊंची सीढ़ी पर खड़ा व्यक्ति भी अपनी सर्वोच्चता के लिए अनेक प्रकार के दावेपेश करता है। सबसे निचली सीढ़ी पर कौन खड़ा है, यह भी निर्विवाद नहीं है। जाति व्यवस्था को तीन कसौटियों पर कसा जा सकता है।एक क्या सभी जातियों के लोग एक साथ धर्म स्थलों पर बैठकर पूजा- पाठ कर सकते हैं । दूसरा क्या सभी जाति के लोग बिना भेद -भाव किए भोजन कर सकते हैं? तीसरा क्या जाति भेद की चिंता किए बिना लोग आपस में विवाह- संबंध स्थापित कर सकते है
हिंदू समाज में ये तीनो प्रायः वर्जित हैं। हम रोटी दे सकते हैं, बेटी नहीं । अस्प्रश्य जातियों के लिए सदियों से मन्दिर में प्रवेश निषिद्ध रहा है। खान-पान का भेद पहले से बहुत कम हुआ है। आधुनिक जीवन की अनेक ऐसी बाध्याताये हैं की कुछ कट्टर मान्यताओं वाले अपवादों को छोंड़कर इसका पालन करना सहज नहीं है। किंतु आज भी सभी जातियों के लोग एक ही पंगत में बैठकर भोजन करें , ऐसे बहुत कम देखने को मिलाता है। जहां तक वैवाहिक संबंधों की बात है , इसमे जाति बन्धन का टूटना लगभग असंभव है। अपने ही वर्ण और वर्ग में ही लोग ऊंच-नीच का बहुत विचार करते हैं। ऐसे में अन्य जाति के विषय में सोंचना बहुत दूर की बात है। इस्लाम, ईसाई और सिखों में धार्मिक स्तर पर जाति प्रथा का पूरी तरह खंडन है। और ऊंच- नींच की भावना का पूरी तरह निषेध है। किंतु ये समुदाय भी दो पड़ाव पार करने के बाद तीसरे पड़ाव पर पहुंचकर ठिठक जाते हैं। अगर हम मुसलमानो की बात करते हैं तो कुरान, मस्जिद में यह स्पष्ट है की "इस्लाम में जाति के आधार पर सामाजिक बंटवारे का कोई स्थान नहीं है।
भारत के अधिसंख्यक मुसलमान यहीं के धर्मान्तरित लोग थे , विशेष रूप से सूद्र जाति से। भारत में लोगों की संख्या बहुत कम है, जो अपना संबंध उन पूर्वजो से जोड़ते हैं। जो अरब तुर्की , इरानी या अफगानिस्तान से यहाँ आए थे । ये लोग अशरफ कहलाते थे । और मुसलमानों को अपने से बड़ा मानते हैं। जो स्थानीय है ऐसे मुसलमानों को अज्लाफ़ कहा जाता है। सैयद , पठन, शेख, मुग़ल आदि अशरफ कहे जाते हैं। अंसारी, धुनिया लोहार बढ़ाई जैसे मुस्लमान जो अपने को राजपूतों और जातों की संतान मानते हैं, अन्य धर्म परिवर्तित मुसलमानों से श्रेष्ठ मानते हैं.कहीं न कहीं जाति प्रथा अपनी सभी बुराइयों के साथ इनमें भी विद्यमान है । पूजा- पाठ के समान अधिकार और लंगर की व्यवस्था के बावजूद वैवाहिक संबंधों में सिख समाज में भी वही जड़ता व्याप्त है, जो इस देश में सदियों से चली आ रही हैं।

बोली का बोलबाला

आई पी एल मंडी का क्रिकेट १८ से ...
आई पी एल का संग्राम १८ अप्रैल से शुरू हो रहा है। आई पी एल का मंडी में सभी खिलाड़ी मैदान मरने की तैयारी में जुट गए हैं। आई पी एल की पैदाइश है। बीसीसीआई ने जिस तरह के हथ्कोंदे अपनाए, उसने मिटटी को भी सोना बनाया है। और उसे सोना के भाव में बेंचा भी है। पहले तो आई पी एल का बाज़ार सजाया । जाने माने कारोबारियों ने पानी की तरह पैसा बहाया । जिन्होंने कभी कारोबार नहीं किया उन्होंने भी हाँथ साफ कराने की कोशिश की है। खिलाड़ियों की बोली लगी । और कंपनी चहेते खिलाड़ियों के लिए पानी की तरह पैसा बहाया। इसके बाद सभी कंपनियों ने ताम झाम के साथ टीम लॉन्च की। कोई कसार न रह जाए इसके लिए ब्रांड एम्बेसडर भी बनाये गए। खिलाड़ियों और दर्शकों के मनोरंजन के लिया सरे बंदोबस्त किए गए हैं। खिलाड़ियों की बोली के समय से ही कंपनियों का बोलबाला शुरू हो गया था। इस बोली में सबसे महंगे थे धोनी। जिन्हें चेन्नई की टीम ने छह करोड़ रुपये में ख़रीदा। इस बोली में भारत के ३३ खिलाड़ी शामिल हैं। आस्ट्रेलिया के १३ दक्षिण अफ्रीका के ११, पाक के ८, श्रीलंका के ९, न्यूजीलैंड के ६, वेस्ट इंडीज़ के ३ और बंगलादेश के २ खिलाड़ी शामिल हैं। जबकि जहाँ क्रिकेट पैदा हुआ है यानी इंग्लैंड के अक भी खिलाड़ी शामिल नहीं हुए हैं। इसमें आई कान खिलाड़ियों को भी दर्जा भी दिया गया है। और ये दर्जा मिला है सचिन, सौरव, राहुल, युवराज और वीरेंद्र को। और अब ललित मोदी की जादू १८ अप्रैल से शुरू हो रहा है। जो की १ जून २००८ की ख़त्म हो रहा है।
अब अगर विचार करें तो आई सी एल के खुन्नस के कारन ही आईपीएल को बीसीसीआई ने पैदा किया है। और बीसीसीआई के रंग के आगे आई सी एल फींका पड़ गया है। और दे दनादन , दनादन चल रहा है। इस आईपीएल से जहाँ देश में छिपी प्रतिभा को इंटरनेशनल खिलाड़ियों के साथ हुनर दिखाने मौका मिलेगा। तो वहीं सबसे बड़ी बात उभरकर सामने ये आरही है की जिनके ऊपर नस्लवाद का आरोप लगता था , और जो मढ़ते थे वो सब एक ही थाली में खाएँगेयानी एक साथ जब मैदान में उतरेंगे .तो जिस तरह की गलतफहमियां पैदा हो चुकी थी । हो सकता है उन्हें पटने का मौका मिल जाएँ। और सबको एक ही धागे में बांधकर तू दिखा हुनर ......

Tuesday, April 15, 2008

वेश्यावृत्ति को खत्म करना चाहतें हैं या वेश्याओं को

बीएचयू के सैकड़ों छात्रों ने वाराणसी के रेड लाइट इलाके शिव्दाश्पुर के कोठों पर सुनियोजित ढंग धावा बोलकर कई नाबलिंग लड़कियों को इस अमानवीय पेशे से मुक्ति दिलाने का दावा कर तहलका मचा दिया। वहीं मुम्बई के रेस्कुई फाउंडेशन ने रेड लाइट इलाके भिवंडी से सेक्स का प्रीपेड टोकन से लड़कियों को मुक्त कराया। इस तरह से मुक्त करे गयी बालिकाओं मै से ज्यादातर वैधानिक रस्म अदायगी व पुलिसिया दोहन के बाद देर- सबेरे या हालत से लचर होकर फ़िर इस दोजख में नहीं लौट आएँगी । लड़कियों द्व्रारा अपने मुक्त सेनानियों से पूँछे गए यक्ष प्रश्न का जवाब किसी के पास नहीं था की पुलिस तो हमसे पैसा खाती है , पर क्या तू मुझसे शादी करेगा ?
हम कुलमिलाकर एक हिपोक्रेट समाज के अभिन्न अंग हैं। ढिंढोरा तो हम पीटतें हैं , गरीबी हटाने का , मगर अब तक अनुभव यही बयान करता है की हमारी व्यवस्था गरीबों को ही हटा देती है। कहा जाता है वेश्यावृत्ति दुनिया का सबसे पुराना धंधा है, यह एक ऐसी कड़वी सच्चाई है, जिसके सामने मनो दुनिया भर की संभावनाएँ नजरें नीची किए , सिर झुकाएं खड़ी हैं। एक ऐसा कर्म की वेश्या के रूप में पुरूष भी करता कारक हैं। मानवीयता पर कलंक इस व्यवसाय को ख़त्म करने के मकसद से पुरूष प्रधान हमारे समाज की कुल कवायद वेश्याओं के इर्द गिर्द ही मंडराती रहती है।
जबकि इसे पसरने व पनपने के लिए ईंधन मुहैया करवाने वाले एक विशाल वर्ग (ग्राहंक) सदैव नजर अंदाज़ कर दिया जाता है । नतीजन जख्म ऊपर से ठीक हो जाता है। और अन्दर से हरा ही रहा जाता है। मौका पते ही नासूर बनकर उभरने लगता है। जब तक बाज़ार में खरीददार मौजूद है, वेश्यावृत्ति का खत्म भला कैसे संभव है।
किसी ज़माने में मनीला के मेयर ने वहां के तकरीबन तीन सौ बार बंद करावा कर कई तरह की पाबंदियाँ लगाव दी थीं । मुम्बई समेत महारास्त्रमें बार बालाओं पर शिकंजा कसने की सरकारी कवायद सालों से देश में सुर्खियों में रही । करांची में मानवाधिकार से जुड़े वकीलों ने कभी ऐसे गिरोह के खिलाफ जनमत टायर किया था। जिन्होंने हजारों बंगलादेशी लड़कियों का अपहरण कर वेश्या बना दिया था । मगर क्या इन सबसे से उन देशों में इस कारोबार की खात्मा हुआ? उल्टे इलाज कराने की कसरत में मर्ज़ ही लाईलाज़ होता जा रहः है।
एक बार इस दोजख में कदम रख देने वाली औरत को क्या हमारा समाज इस कदर परिपक्व है की उन्हें चैन से कोई और कारोबार कर रोजी रोटी कमाने देगाइन सरे सवालों के जवाब नहीं है। फ़िर क्या यह संभव नहीं है की लचर होकर वे लड़कियों के तौर तरीके बदलकर फ़िर इस पेशे को ही विस्तार दे।इस देश में अपराध को रोंकने के लिए कानून बनने वाले के मुकाबले उसे तोड़ने वाली प्रतिभाएं कहीं ज्यादा कुशाग्र बुद्धि संपन्न है। अगर ऐसा ना भी हुआ तो पुलिस उन्हें तलाश-तराश कर देती है।
अब सवाल यह उठता है की अगर हम पेशा छोंड दे तो क्या सरकार हमें रोजी रोटी की गारंटी देगी इस तरह के तमाम सवाल के जवाब नहीं मिल रहे है। यक्ष सवाल यह है की हम वेश्यावृत्ति को ख़त्म करना चाहतें है या वेश्याओं को ।
इसके लिए सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, व राजनीतिक मोर्चों पर हमने कितना होमवर्क किया । अगर हमने कोई तैयारी नहीं किया तो ऑपरेशन शिव्दाश व रेस्कुई फाउंडेशन सरिखें अभियान मीडिया मै क्षणिक कौताहल पैदा कराने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते।

महंगाई के साइड इफेक्ट

बाज़ार में घुसते ही जिस चीज़ के दर्शन सबसे पहले होते हैं वह है महंगाई। महंगाई देखकर आदमी यह मनाने को विवश हो जाता है कि दुनिया तेजी से तरक्की कर रही है। पहले जेब में पैसा लेकर बाज़ार जाते थे और सौदा थैला में भरकर लाते थे । आज थैला भरकर पैसा ले जाओ सौदा मुठ्ठी में भरकर लाओ । हो सकता आने वाले समय में आटा कैप्सूल में मिलाने लगे और दाल का पानी इंजेक्शन में मिलाने लगेगा

हमेश छुई मुई और लगाने वाली श्रीमातियाँ भी महंगाई के नाम पर गुस्से से फनफना उठती है । उनकी मुठ्ठियाँ बाँध जाती है। बेचारे श्रीमान जी थोड़े और बेचारे हो जाते है। सरकार गृहस्थों का कोपभाजन बन जाती है। कभी लहसुन टू कभी प्याज़ , कभी आलू तो कभी चीनी उसकी भेंट ले लेते हैं।

महंगाई सरकारों के आने और जाने की बहाना बन जाती है। महंगाई मनोरंजन का भी सस्ता एवं सर्व सुलभ साधन है। भारतवासी कुस्ती देखने के बड़े शौकीन होते है। जब भी जनता के पेट में दर्द होता है सरकार उसे अस्वाशन का सीरप पिला देती है । हम महंगाई के खिलाफ लडेंगे । सुनकर जनता को दो पल के लिए राहत महसूस होती है । वह नंगी आंखों से सरकार और महंगाई का मल्ल्युध्धा देखती रहती है।

Saturday, April 12, 2008

आरक्षण की मारामारी

सुप्रीम कोर्ट ने नेताओं की बात को जायज ठहराते हुए फ़िर से २७ फीसदी आरक्षण पिछड़ी जाती को दे दिया है। नेता तों खुश हो गए। चलो फ़िर से कुछ झुनझुना मिल गया बजाने के लिए । लेकिन इन नेताओं को समझाना होगा की आरक्षण एक बशाखी है , पाँव नहीं , जिसे हमेश के लिए लगा दिया जाए। बशाखी का सहारा देकर ऊपर लाओ लेकिन बशाखी बाद मे हटा दो जिससे वो अपने दम पर आ सके । लेकिन जहाँ तक मेरा सवाल है आरक्षण प्रायमरी से ही मिलाना चाहिए। क्योंकि जब प्रायमरी में नहीं देंगे तों ऊपर तक पहुंचेगा कौन क्रिमिलयेर को आरक्षण से अलग रखा गया है। इससे जरूर गरीब तबके को फायदा होगा। लेकिन अगर इसका दूसरा पहलू देखा जाए तों सरकार जड़ों के बजाये पत्तों को पानी दे रही है। पाती सींचने से देश की उद्धार होने वाला नहीं है। जड़ मे पानी दो जिससे आम आदमी को इसका फायदा मिले।