देश 1947 में आज़ाद हो गया था । आज़ादी के नशे में आज भी हम डूबे हुए हैं। लेकिन आज़ादी के बाद हमने क्या खोया क्या पाया इस पर भी समाज में समुद्र मंथन चल रहा है। इस समुद्र मंथन के बीच आज हर भारतीय नागरिक को आत्म मंथन करने की ज़रुरत है कि क्या हम वित्तीय रुप से आज भी आज़ाद है ? देश का प्राचीन नाम आर्यावर्त है और देश को सोने की चिड़िया के नाम से जाना जाता था । जिस देश में सोने की खान हो , वो सोने की चिड़िया आखिर कहाँ फुर्र हो गयी ? लेकिन एक सच ये भी है कि जब भी इस सोने की चिड़िया का नाम सात समंदर पार लिया जाता है तो पूरी दुनिया केवल नाम से ही देश पर सोना उड़ेलने के लिए तैयार रहती है । तो फिर सवाल ये उठता है कि जब देश पर सोना उगलना और सोना न्यौछावर होना दोनो शामिल है तो फिर कहाँ पर हमारी कमी रह गयी ? जो भुखमरी, गरीबी, बेरोजगारी आदि समस्याओं को हम दुरुस्त नहीं कर पाये हैं ? इन्हीं सब बातों को खंगालती हमारी ये विशेष रिपोर्ट ...... अब अगर भारतीय अर्थव्यवस्था के अतीत को झांके तो इसे दो भागों में याद किया जा रहा है।
एक तो 1991 से पहले का इतिहास और दूसरा 1991 के बाद का इतिहास जो वर्तमान में चल रहा है।
1991 के पहले यानी भारत की अर्थव्यवस्था का परिचय बहुत ही विडंबनाओं से घिरा मंद विकासशील अर्थव्यवस्था के रूप में याद किया जाता है। प्राकृतिक संसाधनो और मानवीय शक्ति होने के बावजूद भी देश की अर्थव्यवस्था गरीबी, बेकारी, अशिक्षा के मकड़जाल में फंसी रही । इस जाल से बाहर आने के लिए ज़रुरत थी एक ऐसे आयोजन की जो इस जाल में फड़फड़ा रही अर्थव्यवस्था को बाहर निकाल सके । लेकिन जब देश को आज़ाद कराने के लिए ख़ून से सींचकर उसे मजबूत बनाया जा रहा था कि फिरंगियों से लोहा ले, तभी देश के नागरिक वित्तीय खाका भी बना रहे थे । भले ही उस खाके को अमली जामा न पहनाया जा सका हो। लेकिन नींव तो रख ही दी गयी थी । सन 1934 में सबसे पहले एम विश्वेश्वरैया ने “प्लांड इकोनामी ऑफ इंडिया” नामक पुस्तक में आर्थिक योजनाओं की रूपरेखा लिखी थी । बाद में सन 1938 में जवाहर लाल नेहरु की अध्यक्षता में “नेशनल प्लानिंग कमेटी” बनायी गयी। इसके बाद देश के समक्ष एक – एक कर तीन विकास योजनाएं रखी गयीं । सर्वप्रथम भारत के चुने हुए आठ व्यवसयियों ने सन 1943 में एक योजना प्रस्तुत की, जो “मुंबई योजना” के नाम से जानी जाती है । ठीक उसी समय एम. एन राय ने “जन योजना” नामक एक नयी योजना प्रस्तुत की । इसके बाद मन्नारायण ने एक योजना तैयार की जिसे “गाँधी योजना” के नाम से जाना जाता है । लेकिन ये सभी योजनायें लागू नहीं हो सकी क्योंकि उस समय देश ग़ुलाम था । अंतत: जब देश आज़ाद हुआ तो भारत सरकार ने 1950 में योजना आयोग का गठन किया और इसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। इस योजना का मकसद है गरीबी दूर करना और जन-साधारण के जीवन स्तर को ऊपर उठाना । इस योजना आयोग ने पंच वर्षीय योजनाएं बनाना शुरु किया और पहली पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल 1951 को शुरु की गयी । ये पंच वर्षीय योजनाएं पाँच साल के लिए बनायी जाती हैं। जिसमें हर पंच वर्षीय योजना में कोई न कोई लक्ष्य बनाकर पूरा किया जाता है। चौथी पंचवर्षीय योजना में गरीबी हटाओ जोड़ा गया था । तब से कितनी गरीबों के लिए योजनाएं चल रही हैं और आज भी वही नारा है गरीबी हटाओ। अब गरीबी हटायी गयी है या फिर गरीब ही हट गये हैं ये एक अलग बहस का मुद्दा है। सातवीं पंचवर्षीय योजना 1985 से 1990 तक रही । अस्सी के दशक से ही आर्थिक सुधारों का बीज बोना शुरु कर दिया गया था। इसके बाद आठवीं पंचवर्षीय योजना केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता के कारण अपने निर्धारित समय से दो साल देरी से शुरु हुई । यहीं से अर्थव्यवस्था का दूसरा इतिहास कहा जा सकता है। 1992 से 1998 में आठवीं पंचवर्षीय योजना रही । ये एक ऐसा दौर था जब देश भारी आर्थिक संकट से गुजर रहा था । नरसिंह राव सरकार ने आर्थिक सुधारों के साथ राजकोषीय सुधारों की प्रक्रिया जारी की, ताकि अर्थव्यवस्था को एक नयी गति प्रदान की जा सके । आठवीं योजना का मूल उद्देश्य विकास मानव विकास करना था । मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे, और अर्थव्यवस्था की एक नयी पटरी बिछाई गयी । इसी समय आर्थिक क्षेत्र में आम आदमी की रुचि तब और जाग गयी जब धीरूभाई अंबानी ने अपनी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज के शेयर मध्यम वर्ग के लोगों को एलॉट किये । आर्थिक बीज तो भारत में अस्सी के दशक में ही बो दिये गये थे। लेकिन इसमें क्रांति आयी नब्बे के दशक में । ओपेन मार्केट यानी खुला बाज़ार भी इसी झोंके में आया। आर्थिक गुब्बारे में हवा सबसे ज्यादा इसी समय भरी गयी थी और उसी पटरी से हमने विकास तो किया लेकिन अब उसी पटरी पर दरारें भी दिखायी देने लगी हैं।
महंगाई का सामना –
शताब्दी एक्सप्रेस से भी तेज रफ्तार से भाग रही महंगाई एक्सप्रेस का कोई बाल का बांका नहीं कर पा रहा है। देश के अर्थशास्त्री जनक महंगाई पर चढ़ाई करने के लिए तमाम तरह के जमूरे लगाने का दावा कर रहे हैं। लेकिन महंगाई मंच सुलझने के बजाय उलझता जा रहा है। महंगाई के आंसू तो बॉलीवुड जगत भी बहा रहा है। भले ही वो इन्ही आंसुओं से मलाई खा रहा हो। साठ के दशक में भी महंगाई का रोना था तब महंगाई के बोल सिनेमा जगत में थे बाकी जो बचा सो महंगाई मार गयी और आज भी महंगाई को प्रमोशन देकर सिनेमा जगत कह रहा है महंगाई डायन सब खाये जात है... सवाल फिर वही है हमारे सामने कि आखिर महंगाई मंच को कैसे सुलझाया जाये... चीते की रफ्तार से महंगाई भाग रही है। इसे पकड़ने के लिए क्या सरकार को दोषी बताकर इतिश्री कर लें या फिर इस महंगाई रानी से बचने के कोई रास्ते निकाले जायें। अर्थशास्त्र का एक नियम है माँग और आपूर्ति दोनो एक दूसरे के व्युत्क्रमानुपाती ( इनवर्सिली प्रपोशनल) होते है। यानी माँग बढ़ गयी तो महंगाई बढ़ गयी और माँग कम हो गयी तो महंगाई कम हो गयी। ऐसे में जरूरत है इस समीकरण से बचने के लिए आय कैसे बढ़ायें .... आय बढ़ाने के लिए कई आयामों पर सोचना होगा जिससे महंगाई के डसने से बच सकें। अब तो सरकार की तरफ से भी आर्थिक रुप से विकास करने के लिए तमाम तरह की योजनाएं चलायी जा रही हैं। शेयर बाज़ार, आई. पी.ओ., के. पी.ओ., वायदा बाज़ार आदि न जाने अनगिनित बाजार में आ गये हैं। जहाँ से आर्थिक विकास के दरवाजे खुलते हैं और जन-जन का विकास संभव है।
एक तो 1991 से पहले का इतिहास और दूसरा 1991 के बाद का इतिहास जो वर्तमान में चल रहा है।
1991 के पहले यानी भारत की अर्थव्यवस्था का परिचय बहुत ही विडंबनाओं से घिरा मंद विकासशील अर्थव्यवस्था के रूप में याद किया जाता है। प्राकृतिक संसाधनो और मानवीय शक्ति होने के बावजूद भी देश की अर्थव्यवस्था गरीबी, बेकारी, अशिक्षा के मकड़जाल में फंसी रही । इस जाल से बाहर आने के लिए ज़रुरत थी एक ऐसे आयोजन की जो इस जाल में फड़फड़ा रही अर्थव्यवस्था को बाहर निकाल सके । लेकिन जब देश को आज़ाद कराने के लिए ख़ून से सींचकर उसे मजबूत बनाया जा रहा था कि फिरंगियों से लोहा ले, तभी देश के नागरिक वित्तीय खाका भी बना रहे थे । भले ही उस खाके को अमली जामा न पहनाया जा सका हो। लेकिन नींव तो रख ही दी गयी थी । सन 1934 में सबसे पहले एम विश्वेश्वरैया ने “प्लांड इकोनामी ऑफ इंडिया” नामक पुस्तक में आर्थिक योजनाओं की रूपरेखा लिखी थी । बाद में सन 1938 में जवाहर लाल नेहरु की अध्यक्षता में “नेशनल प्लानिंग कमेटी” बनायी गयी। इसके बाद देश के समक्ष एक – एक कर तीन विकास योजनाएं रखी गयीं । सर्वप्रथम भारत के चुने हुए आठ व्यवसयियों ने सन 1943 में एक योजना प्रस्तुत की, जो “मुंबई योजना” के नाम से जानी जाती है । ठीक उसी समय एम. एन राय ने “जन योजना” नामक एक नयी योजना प्रस्तुत की । इसके बाद मन्नारायण ने एक योजना तैयार की जिसे “गाँधी योजना” के नाम से जाना जाता है । लेकिन ये सभी योजनायें लागू नहीं हो सकी क्योंकि उस समय देश ग़ुलाम था । अंतत: जब देश आज़ाद हुआ तो भारत सरकार ने 1950 में योजना आयोग का गठन किया और इसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है। इस योजना का मकसद है गरीबी दूर करना और जन-साधारण के जीवन स्तर को ऊपर उठाना । इस योजना आयोग ने पंच वर्षीय योजनाएं बनाना शुरु किया और पहली पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल 1951 को शुरु की गयी । ये पंच वर्षीय योजनाएं पाँच साल के लिए बनायी जाती हैं। जिसमें हर पंच वर्षीय योजना में कोई न कोई लक्ष्य बनाकर पूरा किया जाता है। चौथी पंचवर्षीय योजना में गरीबी हटाओ जोड़ा गया था । तब से कितनी गरीबों के लिए योजनाएं चल रही हैं और आज भी वही नारा है गरीबी हटाओ। अब गरीबी हटायी गयी है या फिर गरीब ही हट गये हैं ये एक अलग बहस का मुद्दा है। सातवीं पंचवर्षीय योजना 1985 से 1990 तक रही । अस्सी के दशक से ही आर्थिक सुधारों का बीज बोना शुरु कर दिया गया था। इसके बाद आठवीं पंचवर्षीय योजना केंद्र में राजनीतिक अस्थिरता के कारण अपने निर्धारित समय से दो साल देरी से शुरु हुई । यहीं से अर्थव्यवस्था का दूसरा इतिहास कहा जा सकता है। 1992 से 1998 में आठवीं पंचवर्षीय योजना रही । ये एक ऐसा दौर था जब देश भारी आर्थिक संकट से गुजर रहा था । नरसिंह राव सरकार ने आर्थिक सुधारों के साथ राजकोषीय सुधारों की प्रक्रिया जारी की, ताकि अर्थव्यवस्था को एक नयी गति प्रदान की जा सके । आठवीं योजना का मूल उद्देश्य विकास मानव विकास करना था । मनमोहन सिंह वित्त मंत्री थे, और अर्थव्यवस्था की एक नयी पटरी बिछाई गयी । इसी समय आर्थिक क्षेत्र में आम आदमी की रुचि तब और जाग गयी जब धीरूभाई अंबानी ने अपनी कंपनी रिलायंस इंडस्ट्रीज के शेयर मध्यम वर्ग के लोगों को एलॉट किये । आर्थिक बीज तो भारत में अस्सी के दशक में ही बो दिये गये थे। लेकिन इसमें क्रांति आयी नब्बे के दशक में । ओपेन मार्केट यानी खुला बाज़ार भी इसी झोंके में आया। आर्थिक गुब्बारे में हवा सबसे ज्यादा इसी समय भरी गयी थी और उसी पटरी से हमने विकास तो किया लेकिन अब उसी पटरी पर दरारें भी दिखायी देने लगी हैं।
महंगाई का सामना –
शताब्दी एक्सप्रेस से भी तेज रफ्तार से भाग रही महंगाई एक्सप्रेस का कोई बाल का बांका नहीं कर पा रहा है। देश के अर्थशास्त्री जनक महंगाई पर चढ़ाई करने के लिए तमाम तरह के जमूरे लगाने का दावा कर रहे हैं। लेकिन महंगाई मंच सुलझने के बजाय उलझता जा रहा है। महंगाई के आंसू तो बॉलीवुड जगत भी बहा रहा है। भले ही वो इन्ही आंसुओं से मलाई खा रहा हो। साठ के दशक में भी महंगाई का रोना था तब महंगाई के बोल सिनेमा जगत में थे बाकी जो बचा सो महंगाई मार गयी और आज भी महंगाई को प्रमोशन देकर सिनेमा जगत कह रहा है महंगाई डायन सब खाये जात है... सवाल फिर वही है हमारे सामने कि आखिर महंगाई मंच को कैसे सुलझाया जाये... चीते की रफ्तार से महंगाई भाग रही है। इसे पकड़ने के लिए क्या सरकार को दोषी बताकर इतिश्री कर लें या फिर इस महंगाई रानी से बचने के कोई रास्ते निकाले जायें। अर्थशास्त्र का एक नियम है माँग और आपूर्ति दोनो एक दूसरे के व्युत्क्रमानुपाती ( इनवर्सिली प्रपोशनल) होते है। यानी माँग बढ़ गयी तो महंगाई बढ़ गयी और माँग कम हो गयी तो महंगाई कम हो गयी। ऐसे में जरूरत है इस समीकरण से बचने के लिए आय कैसे बढ़ायें .... आय बढ़ाने के लिए कई आयामों पर सोचना होगा जिससे महंगाई के डसने से बच सकें। अब तो सरकार की तरफ से भी आर्थिक रुप से विकास करने के लिए तमाम तरह की योजनाएं चलायी जा रही हैं। शेयर बाज़ार, आई. पी.ओ., के. पी.ओ., वायदा बाज़ार आदि न जाने अनगिनित बाजार में आ गये हैं। जहाँ से आर्थिक विकास के दरवाजे खुलते हैं और जन-जन का विकास संभव है।
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