सूरज की रोशनी से बचने के लिए जैसे त्वचा पर सनस्क्रीन लोशन लगाया जाता है, अगर पूरी पृथ्वी के साथ भी वैसा ही कुछ कर दिया जाए, तो क्या बढ़ते तापमान का मुकाबला हो सकता है। सुनने में दिलचस्प पर क्या हकीकत में संभव।
बुधवार को जारी रिसर्च में कहा गया है कि अगर ऐसा किया जा सके, तो यूरोप और एशिया के कुछ हिस्सों में तो बहुत फायदा हो सकता है लेकिन इक्वेटर यानि विषुवत रेखा के आस-पास मौसम पर बुरा असर पड़ सकता है। इतना कि दक्षिणी अमेरिका में ऊष्णकटिबंधीय वन सूख सकते हैं। अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया में सूखा पड़ सकता है। ब्रिटेन की रीडिंग यूनिवर्सिटी के मौसम विज्ञानी एंड्रयू चार्लटन पेरेज का कहना है, "इस तरह की जियो इंजीनियरिंग के भयंकर जोखिम हैं।"
साल 1997 में अमेरिकी भौतिकशास्त्री एडवर्ड टेलर और दूसरे वैज्ञानिकों ने सलाह दी कि वायुमंडल के ऊपरी परत स्ट्रेटोस्फेयर में सल्फेट पार्टिकल का छिड़काव कर दिया जाए, तो धरती पर गिरने वाली सूर्य की कुछ किरणें परिवर्तित होकर अंतरिक्ष में लौट जाएंगी। इससे धरती के तापमान के बढ़ते स्तर पर अंकुश लग सकती है। स्ट्रेटोस्फेयर धरती के वायुमंडल की दूसरी परत है।
राख जैसा एरोसोल : प्रस्तावित सनस्क्रीन उसी तरह काम करेगा, जैसा ज्वालामुखी फटने से निकलने वाली राख करती है। इसकी वजह से भी तापमान पर रोक लगती है लेकिन अगर सनस्क्रीन का इस्तेमाल किया गया, तो लागत बहुत कम आएगी। फिर कोयला, गैस और तेल के खर्च में ज्यादा कटौती की जरूरत नहीं पड़ेगी। जियो इंजीनियरों के बीच यह एक लोकप्रिय अवधारणा है, जो इसे आखिरी उपाय की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं।
विज्ञान की पत्रिका एनवायरनमेंटल रिसर्च लेटर्स में ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने कहा है कि एरोसोल नाम के पदार्थ से तापमान बढ़ने की प्रक्रिया रोकी जा सकती है। एक्सेटर यूनिवर्सिटी के अनगुस फेरारो का कहना है, "वैश्विक तापमान को कम करने के लिए भारी संख्या में एरोसोल के इंजेक्शन की जरूरत पड़ेगी।" थ्योरी है कि साल 1991 में माउंट पिनाटूबो ज्वालामुखी की विस्फोट से जितनी राख निकली, हर साल उससे पांचगुनी मात्रा में एरोसोल का इस्तेमाल करना होगा। माउंट पिनाटूबो को मिसाल इसलिए बनाया गया है क्योंकि पिछले 25 साल का यह सबसे बड़ा ज्वालामुखी विस्फोट है।
यह मॉडल इस तरह तैयार किया गया है कि जलवायु में मौजूद कार्बन डायोक्साइड की मात्रा प्रति 10 लाख कण में 1,022 कम कर दी जाए, यानी प्रति दिन 400 कणों की कमी। इसके बाद धरती का तापमान चार डिग्री तक कम हो सकता है।
मर जाएंगे जंगल : लेकिन जांच में यह भी पता चला है कि एरोसोल की भारी मात्रा से विषुवत रेखा के आस पास भारी असर पड़ सकता है। इसकी वजह से स्ट्रेटोस्फेयर का तापमान बेहिसाब बढ़ सकता है। सबसे ज्यादा असर यहां होने वाली बारिश पर होगा।
चार्लटन पेरेज कहते हैं, "ऊष्णकटिबंधीय इलाके में 30 फीसदी बारिश घट जाएगी। मतलब कि करीब हर दिन बरसात देखने वाला इंडोनेशिया इतना सूख जाएगा कि सूखे जैसे हालात हो जाएंगे। विषुवत रेखा के आस पास का मौसम पृथ्वी पर सबसे नाजुक है। हम देखते हैं कि यहां इतनी तेजी से बदलाव होता है कि लोगों को इसके मुताबिक खुद को ढालने में वक्त लग जाता है।"
अगस्त 2012 में इसी पत्रिका में प्रकाशित कीमतों के मुताबिक एरोसोल के छिड़काव की बुनियादी तकनीक मौजूद है और इस काम में हर साल पांच अरब डॉलर से कम खर्च होगा। इसकी अगर मौजूदा योजना से तुलना करें, तो 2030 में 200 अरब से 2,000 अरब डॉलर के बीच खर्च होंगे। हालांकि एरोसोल छिड़काव में मौसम को होने वाले नुकसान को नहीं जोड़ा गया है।
साल 2009 में ब्रिटेन की विज्ञान अकादमी यानी रॉयल सोसाइटी की एक समीक्षा आई, जिसमें कहा गया था कि एरोसोल के छिड़काव का काम बहुत जल्दी हो सकता है और इसका नतीजा साल भर के अंदर आ सकता है। लेकिन इससे कार्बन डायोक्साइड की मात्रा पर लगाम नहीं लग सकेगी, जिसके दूसरे खराब नतीजे हो सकते हैं। और इसका असर धरती की ओजोन परत पर भी पड़ सकता है। एजेए/आईबी (एएफपी)
बुधवार को जारी रिसर्च में कहा गया है कि अगर ऐसा किया जा सके, तो यूरोप और एशिया के कुछ हिस्सों में तो बहुत फायदा हो सकता है लेकिन इक्वेटर यानि विषुवत रेखा के आस-पास मौसम पर बुरा असर पड़ सकता है। इतना कि दक्षिणी अमेरिका में ऊष्णकटिबंधीय वन सूख सकते हैं। अफ्रीका और दक्षिण पूर्व एशिया में सूखा पड़ सकता है। ब्रिटेन की रीडिंग यूनिवर्सिटी के मौसम विज्ञानी एंड्रयू चार्लटन पेरेज का कहना है, "इस तरह की जियो इंजीनियरिंग के भयंकर जोखिम हैं।"
साल 1997 में अमेरिकी भौतिकशास्त्री एडवर्ड टेलर और दूसरे वैज्ञानिकों ने सलाह दी कि वायुमंडल के ऊपरी परत स्ट्रेटोस्फेयर में सल्फेट पार्टिकल का छिड़काव कर दिया जाए, तो धरती पर गिरने वाली सूर्य की कुछ किरणें परिवर्तित होकर अंतरिक्ष में लौट जाएंगी। इससे धरती के तापमान के बढ़ते स्तर पर अंकुश लग सकती है। स्ट्रेटोस्फेयर धरती के वायुमंडल की दूसरी परत है।
राख जैसा एरोसोल : प्रस्तावित सनस्क्रीन उसी तरह काम करेगा, जैसा ज्वालामुखी फटने से निकलने वाली राख करती है। इसकी वजह से भी तापमान पर रोक लगती है लेकिन अगर सनस्क्रीन का इस्तेमाल किया गया, तो लागत बहुत कम आएगी। फिर कोयला, गैस और तेल के खर्च में ज्यादा कटौती की जरूरत नहीं पड़ेगी। जियो इंजीनियरों के बीच यह एक लोकप्रिय अवधारणा है, जो इसे आखिरी उपाय की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं।
विज्ञान की पत्रिका एनवायरनमेंटल रिसर्च लेटर्स में ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने कहा है कि एरोसोल नाम के पदार्थ से तापमान बढ़ने की प्रक्रिया रोकी जा सकती है। एक्सेटर यूनिवर्सिटी के अनगुस फेरारो का कहना है, "वैश्विक तापमान को कम करने के लिए भारी संख्या में एरोसोल के इंजेक्शन की जरूरत पड़ेगी।" थ्योरी है कि साल 1991 में माउंट पिनाटूबो ज्वालामुखी की विस्फोट से जितनी राख निकली, हर साल उससे पांचगुनी मात्रा में एरोसोल का इस्तेमाल करना होगा। माउंट पिनाटूबो को मिसाल इसलिए बनाया गया है क्योंकि पिछले 25 साल का यह सबसे बड़ा ज्वालामुखी विस्फोट है।
यह मॉडल इस तरह तैयार किया गया है कि जलवायु में मौजूद कार्बन डायोक्साइड की मात्रा प्रति 10 लाख कण में 1,022 कम कर दी जाए, यानी प्रति दिन 400 कणों की कमी। इसके बाद धरती का तापमान चार डिग्री तक कम हो सकता है।
मर जाएंगे जंगल : लेकिन जांच में यह भी पता चला है कि एरोसोल की भारी मात्रा से विषुवत रेखा के आस पास भारी असर पड़ सकता है। इसकी वजह से स्ट्रेटोस्फेयर का तापमान बेहिसाब बढ़ सकता है। सबसे ज्यादा असर यहां होने वाली बारिश पर होगा।
चार्लटन पेरेज कहते हैं, "ऊष्णकटिबंधीय इलाके में 30 फीसदी बारिश घट जाएगी। मतलब कि करीब हर दिन बरसात देखने वाला इंडोनेशिया इतना सूख जाएगा कि सूखे जैसे हालात हो जाएंगे। विषुवत रेखा के आस पास का मौसम पृथ्वी पर सबसे नाजुक है। हम देखते हैं कि यहां इतनी तेजी से बदलाव होता है कि लोगों को इसके मुताबिक खुद को ढालने में वक्त लग जाता है।"
अगस्त 2012 में इसी पत्रिका में प्रकाशित कीमतों के मुताबिक एरोसोल के छिड़काव की बुनियादी तकनीक मौजूद है और इस काम में हर साल पांच अरब डॉलर से कम खर्च होगा। इसकी अगर मौजूदा योजना से तुलना करें, तो 2030 में 200 अरब से 2,000 अरब डॉलर के बीच खर्च होंगे। हालांकि एरोसोल छिड़काव में मौसम को होने वाले नुकसान को नहीं जोड़ा गया है।
साल 2009 में ब्रिटेन की विज्ञान अकादमी यानी रॉयल सोसाइटी की एक समीक्षा आई, जिसमें कहा गया था कि एरोसोल के छिड़काव का काम बहुत जल्दी हो सकता है और इसका नतीजा साल भर के अंदर आ सकता है। लेकिन इससे कार्बन डायोक्साइड की मात्रा पर लगाम नहीं लग सकेगी, जिसके दूसरे खराब नतीजे हो सकते हैं। और इसका असर धरती की ओजोन परत पर भी पड़ सकता है। एजेए/आईबी (एएफपी)
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