Saturday, June 28, 2008

८३ के बाद खर-खर बात

२५ साल पहले जब लार्ड्स के मैदान पर भारतीय टीम उतारी थी, तो उनके सामने चुनौती थी वेस्टइंडीज की बादशाहत को ख़त्म कराने की। और महज़ एक घंटे में कपिल की सेना ने एक ऐसा इतिहास रच दिया जो आज अतीत के पन्नो में याद किया जाता है। इसके बाद हमने बता दिया किक्रिकेट अब अंग्रेजों की उजाली नफासत का खेल नहीं हैं। वो ठेठ भारतीय रंगों में डूबा ऐसा तमाशा है, जिसमे रनों के ढोल के बजाते हैं। जैसे - जैसे विश्व कपकी उम्र बढ़ने लगी। बी.सी.सी.आई.मालामाल होने लगी। वो रुपयों की गठरी बनता गया जिसे दो कदम चलाना भी मुश्किल हो गया। कोंच भी लातेथे। ढोल नगाडे के साथ स्वागत करते थे, लेकिन वो कोच टीम को जितने के बजायतोड़कर चला गया। इसके बाद हमने विश्व कप जीतने का भरसक प्रयाश किया लेकिन ये कप भारत के लिए गूगली की तरह आया। और वाइड बाल की तरह निकल गया। इस दौरान कई उतार चढाव भी हमने देखे, टीम बदल गयी, सेनापति बदल गया। ज़माना बदल गया। जो नहीं बदली वो थी हमारी सोंच। यानी अगर एस २५ साल के सफर में कोई प्रतीक के रूप में खोजना चाहे तो हम पाएंगे कि हमें अपनी भारतीयता पर भी भरोसा नहें रहा। शायद यही वज़ह रही हम विदेशी कोच खोज़ने से लेकर विदेशी अंदाज़ अपनाने तक एक सी दरिद्रता दिखाते रहे। लेकिन अब हमें समझाना होगा कि आखिर हम क्यों चुके। वो कौन सी चीज़ है जो हमें बार- बार ताज पहनने से रोंकती हैं। जिस दिन हम ये पहेली सुलझा लेंगे उस दिन दुनिया में हमारा ज़वाब नही होगा।

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