देश के नजरिये से अगर इस दौर में सरकार को परिभाषित किया जाये तो पहले देश बेचना, फिर देश की फिक्र करना और अब फिक्र करते हुये देश को अपनी अंगुलियो पर नचाना ही सरकार का राजनीतिक हुनर है।
Friday, June 5, 2009
आंकडें बाजी का खेल
आम जनता के दुखदर्द और उसकी माली हालत में आला अधिकारी कितने अवगत हैं , जो एयर कंडीशन कमरों में बैठकर कागजों पर आंकडों की फसल उगते हैं। उनमें से कितने अधिकारी ऐसे हैं जिन्होंने देश के धूल भरे देहातों या मलिन बस्तियों की ख़ाक छानी है। और महसूस किया है की गरीब लोग किस हालत में रहते हैं। महंगाई की चक्की में पिसते , दुर्दशा और अभाव में जैसे तैसे रोते झींकते जीवन बिताते गरीब को सिर पर छप्पर और दो वक्त का भोजन भी मुश्किल से नसीब होता है। गरीबी रेखा के नीचे जीवन बिताने वालों की आबादी करोड़ों में है। लेकिन हमारे यहाँ के नौकरशाहों की इसकी कोई चिंता नहीं है। अब तो सर्वे भी कहता है भारत के नौकरशाह सबसे आलसी हैं। ऐसे कई सरकारी संगठन हैं जिनका काम है सरकार को आंकडे उपलब्ध कराना जिससे सरकार अग्रिम योजनाओं को क्रियान्वित कर सके। लेकिन ये आंकडे कितने सही है या वास्तविकता के करीब हैं इसपर भी बहस हो सकती है। और सरकार है की इन आंकडों को भी सही मान लेती है । आंकडों का खेल करने वाले बड़े - बड़े विशेषज्ञों का आंकलन कितना सटीक होता है इसे लेकर संदेह हो सकता है। केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन यानी सी एस ओ ने देश के प्रति व्यक्ति की मासिक आय तीन हाजार रुपये से भी अधिक बताई है। लेकिन सच्चाई ये है की साल १९९९-२००० के स्थिर मूल्य पर २००० रुपये से कुछ ही अधिक है। अब यह कितनी अजीब बात है कि सभी वास्तविक गणनाओं का आंकलन साल १९९९-२००० के स्थिर मूल्य के आधार पर किया जाता है। वरतमान मूल्यों के आधार पर नहीं। अब आप भी आंकलन कीजिये कि एक दशक पहले के आधार पर किया गया आंकलन कितना सटीक हो सकता है। वर्त्तमान मूल्यों के आधार पर तो सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी की वृधि १४.२ बैठती फीसदी है। इसी तरह प्रति व्यक्ति आय वर्तमान मूल्यों के आधार पर ३७४९० रुपये वार्षिक हो गयी। स्थिर मूल्यों पर यह अभी भी २५४९४ रुपये वार्षिक यानी २१२४ रुपये मासिक चल रही है। आंकडों का यह मायाजाल उस वर्ग के लिए ठीक है जिन्हें वेतन भत्ता वृद्धि और बदलते वेतनमान का लाभ मिलता है।वेतन आयोग की सिफारिशें आम गरीब के लिए कोई मायने नहीं रखती हैं। इसके विपरीत इसके फलस्वरूप बाज़ार में अधिक पैसा पहुँचने से महंगाई बढ़ जाती है। जिससे गरीब दुखी और बेबस हो जाता है। और आज आज़ादी के ६१ साल बीत जाने के बाद भी गरीब जस के तस हैं हाँ चुनाव जब भी आते है तो गरीबों को मोहरा बनाकर मुद्दे तय होते है। नतीजा ये निकालता है कि उन्हें सस्ते दाम पर गेहूं चावल देने का भरोसा दिया जाता है और नौकरशाह और राजनेता मलाई खाते है। आखिर क्या आंकड़े सरकार इसी लिए मंगाती है कि गेहूं चावल ही देते रहें। और मलाई मिलाती रहे धन्य हैं ये आंकडे। और धन्य है आंकडों का खेल।
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4 comments:
लेकिन कभी न कभी तो उन्हें इस खेल का जवाब देना ही होगा।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आप की बात सही है यह आकंड़े बाजी का खेल सब जनता को बेवकूफ बनाने के लिए ही खेला जाता है है।वास्तविकता कुछ और ही होती है।चुनाव के दिनों मे सब्जबाग दिखा कर गरीबों को ही नही बाकियों को भी बेफकूफ बनाया जाता है।
bevkuf
bevkuf kam bhi kabhi kiya karo
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