एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएंसी सिंड्रोम अथवा एड्स पूरी दुनिया में तेजी से पाँव पसार रहा हैं। एचआईवी पाजटिव होने का मतलब आम तौर पर ज़िन्दगी का अंत मान लिया जाता हैं लेकिन यह अधूरा सच हैं और डाक्टरों के मुताबिक एच आई वी पॉजीटिव लोग भी सामान्य आदमी की तरह लम्बे समय तक जीवन जी सकते हैं। न्यूयॉर्क में एड्स की पहचान १९८१ में समलिंगी वयस्क पुरुषों में प्रतिरक्षण क्षमता में कमी एवं उच्च मृत्यु दर के लक्षणों के साथ की गयी। और इसका नाम एड्स रखा गया।
ए- मतलब एक्वायर्ड यानी यह रोग किसी दूसरे व्यक्ति से लगता है।
आई डी-- मतलब इम्यूनो डिफीशिएंसी यानी यह शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को खत्म कर देता हैं।
एस -मतलब सिंड्रोम यानी कई तरह के लक्षणों से पहचानी जाती हैं।
वास्तव में एड्स वर्तमान समाज में मानव सभ्यता की समझ सबसे बड़ी चुनौती बनकर खडा है। इस बीमारी का लाइलाज होना ही इससे भयाक्रांत होने का सबसे प्रमुख कारण हैं। पूरी दुनिया में अब तक तकरीबन ढाई करोड़ लोग एड्स के गाल में समा चुके हैं और करोड़ों लोग अभी इसके प्रभाव में हैं। एड्स रोगियों में अफ्रीका पहले नंबर में हैं जबकि भारत दूसरे नंबर में हैं। भारत में पहला एड्स मरीज मद्रास में पाया गया था। अमेरिका में ये रोग समलैंगिकता के कारण तेजी से फैला जबकि भारत में असुरक्षित यौन सम्बन्धों के कारण दिनों दिन अपने पैर जमा रहा हैं।
जुलाई २००५ में ब्राजील की राजधानी रियो-डी - जेनेरिया में १२५ देशों के लगभग ५०० विशेषज्ञों ने मिलकर एक सेमिनार का आयोजन किया था। और उसमें २६० शोध पत्र पेश किये गए थे। बीमारी से लड़ने हेतु तमाम सुझाव भी दिए गए थे। शोध के मुताबिक पूरी दुनिया में १४००० लोग हर दिन एड्स की चपेट में आते हैं। ९५ फ़ीसदी लोग मध्यम और कम आय वाले देशों के होते हैं । २००५ में ६.५ मिलियन एड्स से पीड़ित लोगों को उपचार की ज़रुरत थी लेकिन एक मिलियन का ही उपचार हो सका ।
भारत में एड्स के हालत -
यूनिसेफ,यूएन एड्स और विश्व स्वस्थ्य संगठन के ताजे सर्वेक्षण
माता से बच्चों में एचआईवी संक्रमण की रोक -
--- एचआईवी पॉजीटिव गर्भाधारित महिलाओं की संख्या - ६४,०००
-- एचआईवी पॉजीटिव के साथ उत्पन्न बच्चों की संख्या और प्रतिशत - १२,00 {२%}
-- १५ - २४ साल के लोगों में एचआईवी पुरुषों में - ०.३% और महिला ०.३%
-- १५-२४ साल के लोगों में जो पिछले एक वर्ष में एक से अधिक जीवन साथी के साथ लैंगिक सम्बन्ध बनाये उनका प्रतिशत पुरुष - १.६%, महिला ०.१%
-- एचआईवी से ग्रसित अनाथ बच्चों की संख्या २५,०००,०००
इस सच्चाई को जानने के बाद यही कहा जा सकता हैं की एड्स एक बड़ी बीमारी हैं - बेहद खतरनाक भी, लेकिन कोई समाज जितना बीमारियों से नहीं मरता उतना अपने रवैये से नष्ट होता हैं। एड्स का हम मुकाबला कर सकते हैं लेकिन उस डर, उस नासमझ का सामना कैसे करें जो अमानवीय ढंग से हमें अपने ही समाज के कुछ असहाय लोगों से काट डालती हैं । उन्हें अछूत बना डालती हैं। भारत सिर्फ एड्स का नहीं बल्कि कई बीमारियों का घर है। उन्नीसवीं सदी की बीमारियाँ इस इक्कीसवी सदी में पलट कर हमला कर रही हैं। हम प्लेग और पोलियो से भी लड़ रहे हैं। कैंसर एड्स की ही तरह रहस्यमय और जानलेवा बीमारी बना हुआ हैं। डायबिटीज को खामोश महामारी कहा जाता हैं। लेकिन और भी कई खामोश महामारियां से इस समाज को बीमार बनाने में लगी हैं। हमने एक चमकता हुआ भारत बनाया लेकिन इस भारत में कई हाँफते,कराहते,खांसते भारत भी शामिल हैं। वो बेदखल भारत शामिल हैं जो अपने घर परिवार से सैकड़ों मील दूर ज़िन्दगी और रोजगार की जद्दोजहद में रोज खुद को गला रहे हैं। छोटे-छोटे शहरों से देश के महानगरों तक ज़िन्दगी की तलाश में पहुंचे ये लोग अपने जिस्म में मौत के कीड़े लेकर लौटते हैं। और उनके घर वाले जान तक नहीं पाते कि आखिर उन्हें बीमारी है क्या ? ये वो एड्स हैं जो शरीर को नहीं बल्कि समाज को खा रहा हैं। फिर कहना होगा कि एड्स का इलाज सिर्फ एंटी रेट्रो वायरल थेरपी से नहीं हो सकता। इसके लिए पूरे समाज की धमानिया साफ़ करनी होगी उसका रक्त बदलना होगा। ये काम आसान नहीं है इसके बिना हम एड्स और कैंसर के इलाज खोज भी लें तो भी अपने समाज को नहीं बचा पायेंगे। क्यों कि हम इस लिए नहीं मर रहे हैं कि दवाएं नहीं हैं बल्कि इस लिए मर रहे हैं कि उनके पास दवाओं तक पहुंचने का साधन नहीं हैं ।
3 comments:
kaphi achhi research ki hain is stuff par.....Article main use kiye gaye Statistics se is issues ke baare main logo ko bohot si jankariya milengi........
kisi bhi baat ko represent karne ke alag alag tarike hote hai, but the way u r representing u'r views r awesome..., so keep it up, this is not u'r limit,
sky is u'r limit
hunnnnnnnnnnnnnn ...
sundr
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