टेलीग्राम यानी तार आया
अब नहीं सुनाई देगी वो आवाज, ‘बाबूजी तार आया है!’
14 जुलाई, 2013 भारतीय समाज के
लिए एक यादगार तारीख हो गई। इस तारीख के बाद एक ऐसी पीढ़ी होगी, जिसे शायद ये
समझाना बड़ा मुश्किल होगा कि डाकिया बाबू का ‘तार’ लाना क्या होता था? अपने युवा बच्चों
को ये बताना कठिन होगा कि उनके जन्म के समय कैसे उनके दादा-दादी, नाना-नानी को ‘तार’ भेजकर खबर की गई थी? एक पूरी युवा पीढ़ी
शायद ये समझ नहीं पाएगी कि ‘तार’ आने से कभी-कभी
घरों में रोना-पीटना शुरु हो जाता था? हमारे देश की पूरी एक पीढ़ी शायद उस अहसास को महसूस ही नहीं कर पाएगी, जो डाकिया बाबू के ‘तार’ लाने पर होता था? वो दरअसल एक पूरा
चित्र-सा होता था। वैसे तो खाकी वर्दी पहनने वाले डाकिया बाबू के चिठ्ठी लाने का
वक्त मुहल्ले-दर-मुहल्ले फिक्स होता था, लेकिन यदि वो बे-समय आ जाए, साथ में उनकी साइकिल पर वो बड़ा-सा खाकी झोला ना हो, तो पूरे मोहल्ले की
धड़कनें बढ़ जाती थी। ‘अरे, क्या किसी के घर ‘तार’ आया है?’ पूरे मोहल्ले में
सुगबुगाहट शुरु हो जाती थी। देखा जाता था कि खाकी वर्दीधारी डाकिया बाबू किस घर
में जाते हैं। अपने जेब से एक पर्ची-सा ‘तार’ निकालते हैं, और एक सूची पर
दस्तखत करवाते हैं, कि ‘तार’ संबंधित व्यक्ति को
मिल गया है। उसके बाद शुरु होता था मोहल्ले के लोगों का उस घर में जुटना। ‘तार’ से दो ही तरह की
खबरें आती थी- या तो अच्छी या बुरी। यदि खुशखबरी होती थी, तो उसी वक्त पूरे
मोहल्ले में मिठाई बांटी जाती थी, और यदि किसी के निधन की, मौत की खबर होती थी, कोई बुरा समाचार होता था, तो पूरा मोहल्ला गमगीन हो जाता था। वो दृश्य 14 जुलाई, 2013 से अब कहीं
देखने को नहीं मिलेगा, क्योंकि अब नहीं
सुनाई देगी वो आवाज, ‘बाबूजी तार आया है!’
‘तार’ या टेलीग्राम में
संदेश बहुत छोटा-सा होता था- बेटा हुआ है। मन्नू पास हो गया। नौकरी मिल गई। दद्दा
नहीं रहे। सब कुशल है, दिल्ली पहुंच गया।
छुटकी की सास 4 को आएगी। जैसे कई तरह के संदेश। इसके अलावा टेलीग्राम के कई संदेश
ऐसे होते थे, जो हमेशा भेजे जाते
थे। जैसे- शादी की बधाई। जन्मदिन मुबारक। शादी की सालगिरह मुबारक। हमारी संवेदना।
ऐसे कई कॉमन संदेशों के लिए एक नंबर होता था, जिसे एक निश्ति फीस देने पर संबंधित शहर, कस्बे के तारघर को भेज दिया जाता था, उस नंबर को डिकोड
कर ‘तार’ संबंधित व्यक्ति तक
पहुंचा दिया जाता था। दरअसल उन दिनों चिठ्ठी पहुंचने में कई दिन, कभी-कभी हफ्ते भी
लग जाते थे, ऐसे में ‘तार’ ही था, जिसके जरिए 24 घंटे
या जल्द से जल्द संदेश देश के किसी भी कोने में भेजा जा सकता था। टेलीग्राम करने
के लिए डाकघर याने पोस्ट ऑफिस जाना होता था, क्योंकि छोटे शहरों, कस्बों में दिल्ली,मुंबई, कलकत्ता, मद्रास की तर्ज पर
अलग से तारघर नहीं हुआ करते थे। हर डाकघर में ‘तार’ भेजने के लिए अलग
से खिड़की होती थी, जहां बैठे बाबू को
आपको एक फार्म भरकर देना होता था, जिसमें ‘तार’ में भेजा जाने वाला
संदेश या नंबर लिखना होता था। जिसे ‘तार’ भेजना हो और जो ‘तार’ भेजता था, उसका नाम और पता
लिखा जाता था। कुछ ‘आना’ शुल्क से शुरु हुई
ये सेवा कई रुपयों तक पहुंची। 30 शब्दों के लिए 28 रुपये तक का शुल्क हो गया। इससे
ज्यादा शब्द होने पर प्रति शब्द के हिसाब से भुगतान करना होता था। इसके बाद तार
बाबू एक विशेष मशीन के से संबंधित तारघर को मोर्स कोर्ड के जरिए वो संदेश भेजते
थे। जिसे वहां एक पर्ची पर प्रिंट कर दिए पते पर तुरंत पहुंचा दिया जाता था। किसी
भी वक्त। ‘तार’ की यहीं तो एक
खासियत थी कि ‘तार’ बे-वक्त आते थे।
लेकिन अब ऐसा नहीं होगा, क्योंकि अब नहीं
सुनाई देगी वो आवाज, ‘बाबूजी तार आया है!’
‘तार’ या टेलीग्राम सेवा
की शुरुआत अंग्रेजों ने भारत में की थी। बताया जाता था कि 1850 में सबसे पहले
कलकत्ता (अब कोलकाता) से डायमंड हॉर्बर तक टेलीग्राम भेजा गया था। फिर कलकत्ता से
डॉयमंड हॉर्बर के बीच 27 मील लंबी
टेलीग्राम लाइन डाली गई। वैसे तो टेलीग्राम का अविष्कार सैमुअल एफबी मॉर्स ने
अमेरिका में किया था, लेकिन भारत में
इसकी शुरुआत एक सर्जन ने की थी। तब के अंग्रेज गर्वनर लॉर्ड डलहौजी इससे इतना
प्रभावित हुए कि पूरे देश में टेलीग्राम लाइन डालने की शुरुआत का आदेश दे दिया।
इतिहासकारों की मानें तो 1856 आने तक अंग्रेजों
ने पूरे देश में चार हजार मील लंबी टेलीग्राम लाइन डाल दी थी, और इस तरह कलकत्ता
को दिल्ली, पेशावर, आगरा, बॉम्बे, मद्रास सहित तब की
सभी बड़ी अंग्रेज छावनियों,
बंदरगाहों से जोड़
दिया था। बताया तो ये भी जाता है कि वो टेलिग्राम सेवा ही थी जिसके चलते अंग्रेज 1857 के स्वतंत्रता
संग्राम को दबाने में कामयाब हो गए थे। जहां-जहां विद्रोह हुए, अंग्रेज हुकूमत को
इसकी सूचना टेलीग्राम के जरिए मिलती रही। अंग्रेजों ने ‘तार’ भेजकर ही विद्रोह
के आस-पास की सैनिक छावनियों को आगाह किया, और वहां से सैनिक मदद भेजी जा सकी। यदि ये कहें कि ‘तार’ के चलते ही 1857 का स्वतंत्रता
आंदोलन सफल नहीं हो सका तो गलत ना होगा। या यूं कहें कि यदि ‘तार’ नहीं होते, तो हम 15 अगस्त 1947 के बदले 1857 में ही आजाद हो चुके होते। इतिहास की इन बातों
में कितना सच, या कितना झूठ, ये तो समय ही जानें, लेकिन ये सच है कि
अब नहीं सुनाई देगी वो आवाज, ‘बाबूजी तार आया है!’
भारत सरकार ने फैसला किया है कि 14 जुलाई 2013 से टेलीग्राम सेवाएं समाप्त कर दी जाएगी।
सरकार का तर्क है कि संचार के आधुनिक साधनों के मुकाबले अब टेलीग्राम सेवाएं
पिछड़ती जा रही है और सरकार को सैकड़ों करोड़ रुपये का घाटा हो रहा है। शायद सरकार
सच भी हो, क्योंकि आज हमारे
पास मोबाइल फोन्स हैं, इंटरनेट है, जिससे हम वो सारे
मैसेज भेज रहे हैं, जो कभी हमारे
बाप-दादा टेलीग्राम के जरिए भेजा करते थे। एसएमएस दरअसल टेलीग्राम संदेशों का ही
आधुनिक रुप बनकर सामने आया। अब वॉट्सअप है, चैटऑन है, ढेरों मैसेंजर
सेवाएं हैं, ऐसे में कौन भला
पोस्ट ऑफिस जाएगा और अपनों को टेलीग्राम करेगा। भारत में मोबाइल सेवा दुनिया की
सबसे सस्ती सेवाओं में शुमार हैं। अब तो हमारे चायवाला, दूधवाला, सेक्यूरिटी गार्ड, सब्जीवाला हर कोई
एक मोबाइल फोन अफोर्ड कर सकता है। आंकडो़ं की मानें तो देश में मोबाइल यूजर्स की
संख्या करोड़ों में पहुंच गई है। इंटरनेट यूजर्स देश में करोड़ों की संख्या में
पहुंच गए हैं। इतना ही नहीं स्मार्टफोन के चलते अब शहर-शहर, गांव-गांव मोबाइल
और इंटरनेट के माध्यम से पूरी दुनिया आम आदमी की जद में आ गई है। या यूं कहें तो
पूरी दुनिया ही एक ‘ग्लोबल विलेज’ बन गई है। तेजी से
बदलते समय के साथ अब सरकार का पुरानी तकनीक के बदले नई तकनीक को अपनाना जरुरी हो
गया है, और ऐसे में हमें कई
बदलावों से रुबरु होने के लिए खुद को ढालना होगा। दरअसल ‘तार’ या टेलिग्राम सेवा
का बंद होना हमारे एक युग से दूसरे युग में प्रवेश करने का संकेत है, और जब ऐसा होता है, तो बहुत-सी बातें
इतिहास बन जाती है। ऐसी बातें जो फिर दोहराई नहीं जाती। जो एक बार फिर हमारी
ज़िंदगी में नहीं आतीं। जैसे अब नहीं सुनाई देगी वो आवाज, ‘बाबूजी तार आया है!’
कुछ महत्वपूर्ण बिंदु ---
- भारत की तार सेवा 14 जुलाई 2013 को रात दस बजे समाप्त हो गई. 162 साल पुरानी सेवा के इतिहास के पन्नों में दर्ज होने से पहले सैकड़ों लोगों ने टेलीग्राम भेजा.
- भारत में टेलीग्राफ़ सेवा साल 1851 में शुरु हुई जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोलकाता से डायमंड हार्बर तक 48 किलोमीटर लंबी लाइन बिछाई. शुरु के कुछ साल तार सेवा सिर्फ़ आधिकारिक काम के लिए इस्तेमाल होती थी.
--मोबाइल फोन और इंटरनेट जैसे संचार के बेहतर और तेज़ रफ़्तार साधनों के चलते तार के घटते इस्तेमाल और बढ़ते घाटे की वजह से भारत संचार निगम लिमिटेड ने 12 जून को यह फ़ैसला लिया.
--- राजधानी दिल्ली में मोर्स कोड की मशीनों का इस्तेमाल 1970 के दशक तक चला. इसके बाद उनकी जगह दूसरी तकनीकों ने ले ली. दिल्ली के वार म्यूज़ियम में रखी यह मशीन 1915 की है. इसका इस्तेमाल द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान तार भेजने में हुआ था.
1830 से 1840 के दशकों में सेम्युअल मोर्स ने लंबी दूरी के बीच संचार के लिए एक तकनीक विकसित की, जिसके तहत इलेक्ट्रिक सिग्नलों को एक तार के ज़रिए दूसरी जगह पहुंचाया जाता था. मोर्स ने इसके लिए एक कोड तैयार किया. इसमें अंग्रेज़ी के हर शब्द के लिए डैश और डॉट का इस्तेमाल होता था. डैश की अवधि एक डॉट के समय से तीन गुना ज़्यादा होती थी. इसी की मदद से सेम्युअल मोर्स ने 1844 में अमरीका में वाशिंगटन डीसी से बाल्टीमोर के बीच पहला टेलीग्राफ़ संदेश भेजा. बाद में तार के लिए इसी मोर्स कोड मशीन का इस्तेमाल किया जाने लगा. मोर्स पद्धति अभी भी गोपनीयता बनाए रखने के लिए सेना और नेवी में इस्तेमाल होती है. माना जाता है कि इसे डिकोड करना आसान नहीं है. असल में मोर्स कोड पद्धति वायरलेस संचार की आधारशिला रही है और संचार के साधनों में यह सबसे ज्यादा वक्त तक चलने वाली तकनीक भी है.
कुछ महत्वपूर्ण बिंदु ---
- भारत की तार सेवा 14 जुलाई 2013 को रात दस बजे समाप्त हो गई. 162 साल पुरानी सेवा के इतिहास के पन्नों में दर्ज होने से पहले सैकड़ों लोगों ने टेलीग्राम भेजा.
- भारत में टेलीग्राफ़ सेवा साल 1851 में शुरु हुई जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने कोलकाता से डायमंड हार्बर तक 48 किलोमीटर लंबी लाइन बिछाई. शुरु के कुछ साल तार सेवा सिर्फ़ आधिकारिक काम के लिए इस्तेमाल होती थी.
--मोबाइल फोन और इंटरनेट जैसे संचार के बेहतर और तेज़ रफ़्तार साधनों के चलते तार के घटते इस्तेमाल और बढ़ते घाटे की वजह से भारत संचार निगम लिमिटेड ने 12 जून को यह फ़ैसला लिया.
--- राजधानी दिल्ली में मोर्स कोड की मशीनों का इस्तेमाल 1970 के दशक तक चला. इसके बाद उनकी जगह दूसरी तकनीकों ने ले ली. दिल्ली के वार म्यूज़ियम में रखी यह मशीन 1915 की है. इसका इस्तेमाल द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान तार भेजने में हुआ था.
1830 से 1840 के दशकों में सेम्युअल मोर्स ने लंबी दूरी के बीच संचार के लिए एक तकनीक विकसित की, जिसके तहत इलेक्ट्रिक सिग्नलों को एक तार के ज़रिए दूसरी जगह पहुंचाया जाता था. मोर्स ने इसके लिए एक कोड तैयार किया. इसमें अंग्रेज़ी के हर शब्द के लिए डैश और डॉट का इस्तेमाल होता था. डैश की अवधि एक डॉट के समय से तीन गुना ज़्यादा होती थी. इसी की मदद से सेम्युअल मोर्स ने 1844 में अमरीका में वाशिंगटन डीसी से बाल्टीमोर के बीच पहला टेलीग्राफ़ संदेश भेजा. बाद में तार के लिए इसी मोर्स कोड मशीन का इस्तेमाल किया जाने लगा. मोर्स पद्धति अभी भी गोपनीयता बनाए रखने के लिए सेना और नेवी में इस्तेमाल होती है. माना जाता है कि इसे डिकोड करना आसान नहीं है. असल में मोर्स कोड पद्धति वायरलेस संचार की आधारशिला रही है और संचार के साधनों में यह सबसे ज्यादा वक्त तक चलने वाली तकनीक भी है.
No comments:
Post a Comment