भारतीय समाज की जाति व्यवस्था को देखकर संसार के समाज शास्त्री चकित रह जाते हैं। जातियाँ और वर्गभेद संसार के सभी समाज में है। लेकिन जो रूप भारतीय समाज में प्राप्त होता है, वह अद्वतीय है। इस व्यवस्था ने समाज में आज जिस तरह अपना जाल फैला लिया है। उससे मुक्ति असोभाव प्रतीत होती है। हिंदू समाज तो इससे बुरी तरह ग्रस्त है ही, मुसलमान, ईसाई औए सिख भी इसके सर्वग्राही प्रभाव से मुक्ति नहीं है। सामाजिक द्रष्टि से जाति प्रथा का सबसे घृणित रूप ऊंच-नींच की भावना है। यह एसी सीढ़ीदार व्यवस्था है, जिसमें सबसे ऊंची सीढ़ी पर खड़ा व्यक्ति भी अपनी सर्वोच्चता के लिए अनेक प्रकार के दावेपेश करता है। सबसे निचली सीढ़ी पर कौन खड़ा है, यह भी निर्विवाद नहीं है। जाति व्यवस्था को तीन कसौटियों पर कसा जा सकता है।एक क्या सभी जातियों के लोग एक साथ धर्म स्थलों पर बैठकर पूजा- पाठ कर सकते हैं । दूसरा क्या सभी जाति के लोग बिना भेद -भाव किए भोजन कर सकते हैं? तीसरा क्या जाति भेद की चिंता किए बिना लोग आपस में विवाह- संबंध स्थापित कर सकते है
हिंदू समाज में ये तीनो प्रायः वर्जित हैं। हम रोटी दे सकते हैं, बेटी नहीं । अस्प्रश्य जातियों के लिए सदियों से मन्दिर में प्रवेश निषिद्ध रहा है। खान-पान का भेद पहले से बहुत कम हुआ है। आधुनिक जीवन की अनेक ऐसी बाध्याताये हैं की कुछ कट्टर मान्यताओं वाले अपवादों को छोंड़कर इसका पालन करना सहज नहीं है। किंतु आज भी सभी जातियों के लोग एक ही पंगत में बैठकर भोजन करें , ऐसे बहुत कम देखने को मिलाता है। जहां तक वैवाहिक संबंधों की बात है , इसमे जाति बन्धन का टूटना लगभग असंभव है। अपने ही वर्ण और वर्ग में ही लोग ऊंच-नीच का बहुत विचार करते हैं। ऐसे में अन्य जाति के विषय में सोंचना बहुत दूर की बात है। इस्लाम, ईसाई और सिखों में धार्मिक स्तर पर जाति प्रथा का पूरी तरह खंडन है। और ऊंच- नींच की भावना का पूरी तरह निषेध है। किंतु ये समुदाय भी दो पड़ाव पार करने के बाद तीसरे पड़ाव पर पहुंचकर ठिठक जाते हैं। अगर हम मुसलमानो की बात करते हैं तो कुरान, मस्जिद में यह स्पष्ट है की "इस्लाम में जाति के आधार पर सामाजिक बंटवारे का कोई स्थान नहीं है।
भारत के अधिसंख्यक मुसलमान यहीं के धर्मान्तरित लोग थे , विशेष रूप से सूद्र जाति से। भारत में लोगों की संख्या बहुत कम है, जो अपना संबंध उन पूर्वजो से जोड़ते हैं। जो अरब तुर्की , इरानी या अफगानिस्तान से यहाँ आए थे । ये लोग अशरफ कहलाते थे । और मुसलमानों को अपने से बड़ा मानते हैं। जो स्थानीय है ऐसे मुसलमानों को अज्लाफ़ कहा जाता है। सैयद , पठन, शेख, मुग़ल आदि अशरफ कहे जाते हैं। अंसारी, धुनिया लोहार बढ़ाई जैसे मुस्लमान जो अपने को राजपूतों और जातों की संतान मानते हैं, अन्य धर्म परिवर्तित मुसलमानों से श्रेष्ठ मानते हैं.कहीं न कहीं जाति प्रथा अपनी सभी बुराइयों के साथ इनमें भी विद्यमान है । पूजा- पाठ के समान अधिकार और लंगर की व्यवस्था के बावजूद वैवाहिक संबंधों में सिख समाज में भी वही जड़ता व्याप्त है, जो इस देश में सदियों से चली आ रही हैं।
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